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वीडियो में जाने 1971 युद्ध में भारत का सबसे बड़ा हथियार कैसे बना ब्लैकआउट ? जब अंधेरे ने बचाई लाखों जानें और बदला युद्ध का नक्शा

वीडियो में जाने 1971 युद्ध में भारत का सबसे बड़ा हथियार कैसे बना ब्लैकआउट ? जब अंधेरे ने बचाई लाखों जानें और बदला युद्ध का नक्शा

भारत-पाकिस्तान के बीच वर्ष 1971 में लड़ा गया युद्ध सिर्फ सैन्य मोर्चे तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह देश के हर नागरिक, हर गाँव और हर शहर की भागीदारी का भी उदाहरण था। उस समय जब पाकिस्तान के साथ तनाव चरम पर था, तब भारत सरकार ने पूरे देश में ब्लैकआउट (Blackout) लागू कर दिया था — एक ऐसा उपाय जिसने युद्ध के दौरान लाखों लोगों की जान बचाई और दुश्मन की रणनीतियों को असफल करने में बड़ी भूमिका निभाई।

ब्लैकआउट क्या होता है?
ब्लैकआउट एक ऐसी स्थिति है जब किसी शहर, क्षेत्र या देश की सभी बाहरी रोशनी को पूरी तरह बंद कर दिया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य होता है कि दुश्मन के हवाई हमलावर विमान रात में किसी भी लक्षित स्थान की पहचान न कर सकें। ऐसे समय में न केवल स्ट्रीट लाइट्स बल्कि घरों, कारों, दुकानों की हर प्रकार की रोशनी बंद कर दी जाती है या उसे किसी मोटे कपड़े या काले कागज से ढक दिया जाता है।

1971 का युद्ध और ब्लैकआउट की रणनीति
दिसंबर 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच जब युद्ध अपने चरम पर था, तब भारत के शहरों को दुश्मन की एयर स्ट्राइक से बचाने के लिए ब्लैकआउट लागू किया गया था। खासकर सीमावर्ती राज्यों पंजाब, राजस्थान, गुजरात, जम्मू-कश्मीर और पश्चिम बंगाल के शहरों में रात होते ही सभी लाइटें बंद कर दी जाती थीं। आम जनता को पहले से सूचित किया गया था कि सायरन बजने पर तुरंत रोशनी बंद कर दें और किसी सुरक्षित स्थान पर चले जाएं।इस ब्लैकआउट व्यवस्था में नागरिक सुरक्षा (Civil Defence) का अहम रोल था। नागरिकों को ट्रेनिंग दी गई कि कैसे सायरन बजने पर संयम रखें, बच्चों और बुजुर्गों को छुपाएं और खुद को किसी दीवार या सुरक्षित कमरे में छुपाएं। स्कूलों, कॉलेजों और दफ्तरों में मॉक ड्रिल्स कराई गईं, ताकि हर नागरिक आपातकालीन स्थिति में पूरी तरह तैयार हो।

कैसे हुआ था ब्लैकआउट का पालन?
1971 के समय अधिकांश शहरों में सायरन सिस्टम लगा दिया गया था। जैसे ही दुश्मन के हमले की आशंका होती, शहर में तेज़ सायरन बजता। लोग तुरंत घर की खिड़कियाँ और दरवाज़े बंद कर देते, लाइटें बुझा देते और रेडियो या ट्रांजिस्टर से सरकार की घोषणाओं को सुनते रहते। कारों की हेडलाइट्स पर काले पेपर या क्रॉस टेप लगा दिए जाते थे, ताकि बहुत अधिक रोशनी बाहर न जाए।यह एक अनुशासित नागरिक प्रयास था, जिसमें सरकारी एजेंसियों से लेकर आम नागरिक तक, हर किसी ने जिम्मेदारी निभाई। अस्पताल, सेना की छावनियों और जरूरी संस्थानों में केवल आवश्यक लाइट्स का प्रयोग होता था और वह भी विशेष सुरक्षा उपायों के साथ।

ब्लैकआउट का मनोवैज्ञानिक असर
ब्लैकआउट केवल एक सुरक्षा रणनीति नहीं थी, बल्कि यह एक राष्ट्र की एकता और सजगता का प्रतीक भी था। लोगों को यह एहसास होता था कि वे इस युद्ध का हिस्सा हैं और उनकी छोटी-सी सावधानी भी देश की रक्षा में अहम साबित हो सकती है। इससे एक सामूहिक भावना उत्पन्न हुई, जिसने नागरिकों को एकजुट किया और भारत की सामूहिक चेतना को मजबूत किया।

1971 से अब तक की स्थिति
1971 के बाद इतने बड़े स्तर पर ब्लैकआउट अभ्यास नहीं हुआ था, लेकिन हाल ही में गृह मंत्रालय द्वारा घोषित मॉक ड्रिल और ब्लैकआउट अभ्यास ने उस दौर की यादें ताजा कर दी हैं। 5 मई 2025 को देश के 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 244 नागरिक सुरक्षा जिलों में मॉक ड्रिल आयोजित की गई, जिसमें एयर रेड सायरन और ब्लैकआउट अभ्यास शामिल था।इस अभ्यास का उद्देश्य था आम नागरिकों को युद्ध या आपातकाल जैसी स्थिति में खुद को सुरक्षित रखने की ट्रेनिंग देना। गृह मंत्रालय ने नागरिक सुरक्षा जिलों को तीन श्रेणियों में बांटा है, जिनमें से श्रेणी-1 को सबसे अधिक संवेदनशील माना गया है, जैसे कि उत्तर प्रदेश का नरौरा, जहां परमाणु संयंत्र स्थित है।

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