Samachar Nama
×

कोरोना से भी भयानक छप्पनिया अकाल जब औरतें बेच दी गईं और बच्चों को खाने पर मजबूर हुई महिलायें, वीडियो में देखे भयानक मंजर 

कोरोना से भी भयानक छप्पनिया अकाल जब औरतें बेच दी गईं और बच्चों को खाने पर मजबूर हुई महिलायें, वीडियो में देखे भयानक मंजर 

भारत के इतिहास में कई ऐसी घटनाएँ दर्ज हैं जिन्होंने मानव सभ्यता की नींव को झकझोर कर रख दिया। लेकिन जब हम 'भयानकतम त्रासदियों' की बात करते हैं, तो 1899-1900 के 'छप्पनिया अकाल' को कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस अकाल को 'छप्पनिया' इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह विक्रमी संवत 1956 यानी सन् 1899 में आया था। यह अकाल इतना भीषण था कि लोग रोटी के एक टुकड़े के लिए अपने घर, जमीन, यहां तक कि अपनी पत्नियों को भी बेचने पर मजबूर हो गए थे। महिलाएं भूख से इस कदर टूट चुकी थीं कि उन्होंने अपने ही बच्चों को खा लिया।


छप्पनिया अकाल की भयावह शुरुआत

राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में यह अकाल विकराल रूप में फैला था। वर्षा ना होने के कारण फसलें सूख गईं, तालाब और कुएं सूख गए और पशु-पक्षी मरने लगे। लोग पीने के पानी और खाने के एक दाने के लिए तड़पते रहे। अनाज तो दूर की बात, पेड़ की छालें और मवेशियों का चारा भी खाना शुरू कर दिया गया। हालत इतनी खराब हो गई थी कि कई जगहों पर लोग मरे हुए जानवरों का मांस खाने लगे।

जब भूख ने तोड़ दी इंसानियत
इस समय की सबसे दुखद और अमानवीय घटनाओं में एक थी—पत्नी और बच्चों को बेच देना। अनेक गांवों से यह रिपोर्ट सामने आई कि लोग अपने परिवार के सदस्यों को भोजन के बदले बेच रहे थे। यह कोई अफवाह नहीं बल्कि राजस्थान की मौखिक लोककथाओं, सरकारी रिकॉर्ड्स और इतिहासकारों की रिपोर्ट में दर्ज सच्चाई है। महिलाओं को पशुओं की तरह खरीदा और बेचा गया, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनके पति उन्हें जिंदा नहीं रख सकते थे।

माताएं खाने लगीं अपने बच्चे
छप्पनिया अकाल का सबसे भयानक रूप तब देखने को मिला जब कई जगहों से यह खबर आई कि माताओं ने अपने नवजात शिशुओं को ही मारकर खा लिया। यह सुनकर दिल दहल जाता है लेकिन यह भूख की वह पराकाष्ठा थी जहां नैतिकता, ममता और रिश्ते सभी खत्म हो गए थे। सरकारी रिपोर्ट्स में इन घटनाओं का ज़िक्र नहीं किया गया लेकिन लोक स्मृतियों और साहित्य में इन घटनाओं को दर्ज किया गया है।

सरकारी उदासीनता और बदइंतजामी
इस समय भारत पर ब्रिटिश हुकूमत का शासन था। अंग्रेज सरकार ने बहुत देर से राहत कार्य शुरू किए और वह भी इतने सीमित कि लोगों तक पहुंच ही नहीं पाए। जिन राहत शिविरों की स्थापना की गई वहां भी सख्त नियम और अपमानजनक स्थितियां थीं। कई जगहों पर मजदूरी के बदले सिर्फ एक मुठ्ठी भर अनाज मिलता था।

अकाल से उपजे सामाजिक और आर्थिक बदलाव
छप्पनिया अकाल का असर केवल तत्कालीन समाज तक सीमित नहीं रहा। इसके बाद राजस्थान और आसपास के राज्यों में कई सामाजिक और आर्थिक बदलाव देखने को मिले। लोग अपने गांव छोड़कर दूसरे राज्यों की ओर पलायन करने लगे। सामंतशाही और ज़मींदारी व्यवस्था ने इस समय में गरीबों का सबसे अधिक शोषण किया। कई परिवार पूरी तरह खत्म हो गए और जो बचे, उन्होंने कभी दोबारा उस जमीन की ओर रुख नहीं किया।

लोक स्मृति में छप्पनिया अकाल
आज भी राजस्थान और गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों में बुजुर्ग जब छप्पनिया अकाल की बात करते हैं, तो उनकी आंखें नम हो जाती हैं। लोकगीतों, कहावतों और जनश्रुतियों में उस त्रासदी का उल्लेख है। एक कहावत है—
"छप्पनिये रो काल पड़्यो, हाड़ गोदो बिक गयो।"
(अर्थात: छप्पनिया अकाल ऐसा पड़ा कि हड्डी-मांस भी बिक गया)

कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक था छप्पनिया अकाल?
कोरोना महामारी ने भी दुनिया को हिला दिया, लेकिन छप्पनिया अकाल ने इंसान की आत्मा को ही नष्ट कर दिया था। जहां कोरोना में लोगों ने एक-दूसरे की मदद की, वहीं छप्पनिया में लोग अपने ही लोगों को खा गए। कोई मेडिकल सिस्टम नहीं, कोई सोशल मीडिया सहायता नहीं, और कोई वैश्विक मदद नहीं – यह त्रासदी एकांत, उपेक्षा और असहायता की पराकाष्ठा थी।

Share this story

Tags