9 मंज़िलों में कैद है मेवाड़ की शौर्यगाथा, 3 मिनट के शानदार वीडियो में जानिए कब और क्यों बनाया गया था ये स्तंभ
राजस्थान के चित्तौड़गढ़ किले में स्थित विजय स्तंभ (विजय टॉवर) न केवल एक वास्तुशिल्प चमत्कार है, बल्कि यह भारत के गौरवशाली अतीत और वीरता का एक जीवंत उदाहरण है। 9 मंजिला ऊंचा यह स्तंभ न केवल युद्ध में जीत के उपलक्ष्य में बनाया गया था, बल्कि यह उस स्वाभिमान, बलिदान और वीरता का भी प्रतीक है, जिसके लिए मेवाड़ का नाम इतिहास में अमर है।
विजय स्तंभ का इतिहास - इसे किसने और कब बनवाया?
विजय स्तंभ का निर्माण राणा कुंभा ने करवाया था, जो 15वीं शताब्दी में मेवाड़ के शासक थे। यह स्तंभ 1448 ई. में बनकर तैयार हुआ था और इसे मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर जीत की याद में बनवाया गया था। राणा कुंभा ने न केवल युद्ध जीता, बल्कि मेवाड़ को वास्तुकला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में स्वर्ण युग में भी पहुंचाया।
वास्तुकला की दृष्टि से अद्वितीय
विजय स्तंभ की ऊंचाई लगभग 122 फीट (37.19 मीटर) है और इसमें कुल 9 मंजिलें हैं। यह स्तंभ लाल बलुआ पत्थर और सफेद संगमरमर से बना है, जो राजस्थानी वास्तुकला की खूबसूरती और मजबूती का अद्भुत उदाहरण है। स्तंभ की दीवारों पर देवी-देवताओं की उत्कृष्ट नक्काशी, युद्ध के दृश्य, राजाओं की मूर्तियां और शिलालेख अंकित हैं। अंदर जाने के लिए बनी सर्पिल सीढ़ियां इसकी अनूठी विशेषता है - इसकी सबसे ऊपरी मंजिल तक पहुंचने के लिए कुल 157 सीढ़ियों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जहां से चित्तौड़गढ़ किला और आसपास का इलाका दूर-दूर तक देखा जा सकता है।
विजय स्तंभ और धार्मिक संदर्भ
यह स्तंभ न केवल एक विजय स्मारक है, बल्कि इसका गहरा धार्मिक महत्व भी है। इसकी भीतरी और बाहरी दीवारों पर हिंदू धर्म के प्रमुख देवी-देवताओं की मूर्तियां उकेरी गई हैं। खास तौर पर इसमें विष्णु के 24 अवतारों की मूर्तियां प्रमुख हैं। इससे पता चलता है कि मेवाड़ की जीत न केवल सैन्य ताकत का नतीजा थी, बल्कि धर्म और संस्कृति के प्रति उसकी आस्था भी उतनी ही मजबूत थी।
शिलालेख और ऐतिहासिक साक्ष्य
विजय स्तंभ की दीवारों पर संस्कृत और ब्राह्मी लिपि में लिखे कई शिलालेख भी हैं, जो न केवल राणा कुंभा की विजय का वर्णन करते हैं, बल्कि उस समय के समाज, संस्कृति और शासन व्यवस्था की झलक भी देते हैं। ऐसा माना जाता है कि इन शिलालेखों को महाकवि आचार्य श्रवण और उनके पुत्रों ने लिखा था। ये शिलालेख आज भी इतिहासकारों और शोधकर्ताओं के लिए अमूल्य धरोहर हैं, जिनके माध्यम से 15वीं शताब्दी की राजनीतिक और धार्मिक सोच को समझा जा सकता है।
विजय स्तंभ का सांस्कृतिक महत्व
चित्तौड़गढ़ के विजय स्तंभ को सिर्फ एक स्मारक मानना भूल होगी। यह स्तंभ मेवाड़ की वीरता, स्वाभिमान और आत्मबलिदान की कहानियों का मूक गवाह है। यह वह भूमि है जहां रानी पद्मिनी ने जौहर किया, जहां महाराणा प्रताप जैसे योद्धा का जन्म हुआ और जहां बार-बार आक्रमणों का सामना करने के बाद भी मेवाड़ ने अपना गौरव नहीं खोया। विजय स्तंभ उस ऐतिहासिक चेतना को जीवित रखता है जो भारत के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर आज तक लोगों को प्रेरित करती रही है। पर्यटन और विरासत का प्रतीक
आज विजय स्तंभ चित्तौड़गढ़ किले के प्रमुख आकर्षणों में से एक है और हर साल लाखों पर्यटक इसे देखने आते हैं। इसे भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्मारक का दर्जा दिया गया है और यह यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल (चित्तौड़गढ़ किला) का हिस्सा है। पर्यटन के लिहाज से यह जगह न केवल भारतीयों के लिए बल्कि विदेशी पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र है जो भारतीय इतिहास और संस्कृति को जानना और अनुभव करना चाहते हैं।
विजय स्तंभ का संदेश
9 मंजिलों में कैद यह कहानी पत्थर पर उकेरी गई तस्वीरों तक सीमित नहीं है। यह स्तंभ हमें सिखाता है कि सच्ची जीत केवल तलवार से नहीं, बल्कि संस्कार, संस्कृति और दृढ़ संकल्प से हासिल होती है। राणा कुंभा का यह स्तंभ इस बात का प्रतीक है कि किसी भी कालखंड में जब-जब धर्म, संस्कृति और स्वाभिमान खतरे में पड़ा है, तब-तब मेवाड़ जैसे अडिग प्रहरी खड़े हुए हैं और उन्होंने अपने स्वाभिमान को झुकने नहीं दिया है।
निष्कर्ष
चित्तौड़गढ़ का विजय स्तंभ एक ऐसी विरासत है जो भारतीय इतिहास के पन्नों में सुनहरी स्याही से दर्ज है। इसकी ऊंचाई सिर्फ भौतिक नहीं है, बल्कि यह आत्म-गौरव और सांस्कृतिक विरासत का भी प्रतीक है। राणा कुंभा द्वारा बनवाया गया यह स्तंभ न केवल उनके युग की उपलब्धियों को दर्शाता है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों को यह भी सिखाता है कि वीरता, बलिदान और संस्कृति के प्रति सम्मान ही सच्चा इतिहास बनाते हैं।

