क्या आप जानते हैं 100 साल पहले कैसा था उदयपुर? वीडियो में देखे मेवाड़ रियासत के गौरवशाली इतिहास और शाही जीवनशैली की दास्तान

आज जब हम उदयपुर को देखते हैं, तो मन झीलों, महलों और ऐतिहासिक हवेलियों की सुंदरता में खो जाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि आज से 100 साल पहले, यानी 1920 के आसपास, 'झीलों की नगरी' उदयपुर कैसा दिखता था? कैसे रहते थे लोग? कैसी होती थी राजशाही और क्या था आम जनता का जीवन? चलिए, आज हम आपको लेकर चलते हैं एक ऐसे ऐतिहासिक दौर में जहां मेवाड़ की रियासत अपने शाही वैभव के साथ मौजूद थी।
उदयपुर: इतिहास की गहराइयों में
उदयपुर की स्थापना 1559 में महाराणा उदय सिंह द्वितीय ने की थी। 100 साल पहले, यानी 20वीं सदी की शुरुआत में यह शहर ब्रिटिश शासन के अधीन भारतीय रियासतों में से एक था। हालांकि यहां की सत्ता महाराणाओं के हाथ में थी, लेकिन प्रशासनिक फैसलों पर अंग्रेजों की भी छाया थी। उस समय के शासक महाराणा फतेह सिंह (1884–1930) थे, जिन्हें मेवाड़ की परंपराओं का रक्षक और जनता का प्रिय शासक माना जाता था।
झीलों की असली पहचान
आज की तरह ही उस समय भी उदयपुर अपनी झीलों के लिए प्रसिद्ध था, लेकिन उस वक्त इन झीलों की सफाई और संरक्षण राजघराने की सर्वोच्च प्राथमिकता होती थी। झीलें जैसे — पिचोला, फतेह सागर, स्वरूप सागर और दूध तलाई — न केवल पानी का मुख्य स्रोत थीं, बल्कि सामाजिक और धार्मिक जीवन का केंद्र भी थीं। नावों का उपयोग आम नहीं था, केवल रियासत के विशेष अवसरों पर शाही नावों में सवारी की जाती थी।
महलों और राजप्रसादों की शान
100 साल पहले उदयपुर का सिटी पैलेस इतना ही भव्य था जितना आज है, लेकिन उस समय यह आम जनता के लिए नहीं खुला था। यह पूरी तरह से महाराणा और उनके परिवार के निवास और दरबार के कार्यों के लिए था। मोती महल, शीश महल और कृष्ण विलास जैसे कक्षों में राजकीय बैठकें, विदेशी दूतों से मुलाकात और त्यौहारों का आयोजन होता था।
वहीं, लेक पैलेस जो आज एक 5-सितारा होटल बन चुका है, पहले महाराणा के ग्रीष्मकालीन विश्राम स्थान के रूप में प्रयोग होता था। यह पूरी तरह से संगमरमर से बना हुआ भवन झील के मध्य में तैरती सी प्रतीत होती थी, और इसका सौंदर्य उस समय भी उतना ही अलौकिक था जितना आज।
शाही परंपराएं और उत्सव
मेवाड़ की रियासतकालीन परंपराओं में गंगौर, दशहरा, होली और दिवाली जैसे त्यौहार बड़े धूमधाम से मनाए जाते थे। इन अवसरों पर राजमहल से आम जनता के लिए शोभायात्रा निकाली जाती थी जिसमें हाथियों, घोड़ों और शाही वस्त्रों से सुसज्जित सैनिक चलते थे। शास्त्रीय संगीत, लोक नृत्य और मेवाड़ी भोजन हर उत्सव का अभिन्न अंग था।
आम जनता का जीवन
उस समय आम जनता मुख्यतः कृषि, हथकरघा, कारीगरी और व्यापार में संलग्न रहती थी। उदयपुर के बाजार जैसे हाथीपोल, भूपालपुरा और घंटाघर क्षेत्र तब भी व्यस्त हुआ करते थे, लेकिन आधुनिक दुकानों की जगह मिट्टी और पत्थर की बनी छोटी दुकानों का चलन था। महिलाएं पारंपरिक लहरिया और घाघरा पहनती थीं और पुरुष धोती-कुर्ता और साफा धारण करते थे।स्वास्थ्य सेवाएं सीमित थीं, लेकिन राजकीय चिकित्सालय (जिसे आज MB अस्पताल कहते हैं) का निर्माण शुरू हो चुका था और राजपरिवार द्वारा दवाइयों की व्यवस्था करवाई जाती थी।
शिक्षा और संस्कृति
1920 के दौर में उदयपुर में शिक्षा की ज्यादातर सुविधा प्रिंसली स्कूलों और मदरसों में थी। केवल संपन्न परिवारों के बच्चों को उच्च शिक्षा मिलती थी, और लड़कियों की शिक्षा बहुत सीमित थी। लेकिन मेवाड़ के राजाओं ने शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पुस्तकालयों और विद्यालयों की स्थापना में दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया था, जो आगे चलकर बड़े संस्थानों में तब्दील हुए।
अंग्रेजों का प्रभाव और आधुनिकता की दस्तक
भले ही मेवाड़ एक स्वतंत्र रियासत थी, लेकिन अंग्रेजों का प्रभाव धीरे-धीरे प्रशासन और भवन निर्माण में दिखने लगा था। कई इमारतें गोथिक और मुग़ल शैली के मिश्रण से बनीं, और कुछ शाही सड़कों पर अंग्रेजी टनल और बगीचों की संरचना भी शुरू हो गई थी। रेलवे लाइन के आने से व्यापार में गति आई, और शहर का फैलाव धीरे-धीरे झीलों से बाहर की ओर बढ़ने लगा।
आज का आधुनिक उदयपुर भले ही पर्यटकों के लिए एक स्वर्ग हो, लेकिन 100 साल पहले का उदयपुर एक शांत, शालीन और परंपराओं से जुड़ा राजसी नगरी था। जहां झीलें सिर्फ फोटो लेने का स्थान नहीं थीं, बल्कि जीवन का आधार थीं। महल सिर्फ इमारत नहीं थे, वो गौरव, गरिमा और गाथाओं का संग्रह थे। आमजन का जीवन सरल था, पर उस सादगी में एक अलग ही गरिमा थी।उदयपुर का रियासतकालीन यह दौर सिर्फ इतिहास नहीं, बल्कि आज भी उस धरोहर की जड़ें हैं, जिन पर वर्तमान की यह खूबसूरत नगरी खड़ी है। शायद यही कारण है कि आज भी जब कोई उदयपुर की गलियों से गुजरता है, तो उसे अतीत की गूंज सुनाई देती है।