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Sudama Panday Dhoomil Death Anniversary प्रसिद्ध हिन्दी कवि सुदामा पांडेय धूमिल की पुण्यतिथि पर जानें इनका जीवन परिचय

सुदामा पांडेय धूमिल (अंग्रेज़ी:Sudama Panday Dhoomil, जन्म: 9 नवंबर, 1936 - मृत्यु: 10 फ़रवरी, 1975) हिन्दी के समकालीन कवि थे। उनकी कविताओं में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त....

साहित्य न्यूज डेस्क !!! सुदामा पांडेय धूमिल (अंग्रेज़ी:Sudama Panday Dhoomil, जन्म: 9 नवंबर, 1936 - मृत्यु: 10 फ़रवरी, 1975) हिन्दी के समकालीन कवि थे। उनकी कविताओं में आज़ादी के सपनों के मोहभंग की पीड़ा और आक्रोश की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति मिलती है। व्यवस्था जिसने जनता को छला है, उसको आइना दिखाना मानो धूमिल की कविताओं का परम लक्ष्य है। इन्हें मरणोपरांत 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

जीवन परिचय

सुदामा पांडेय 'धूमिल' का जन्म 9 नवंबर 1936 को वाराणसी के निकट गाँव खेवली में हुआ था। उनके पूर्वज कहीं दूर से खेवली में आ बसे थे। धूमिल के पिता शिवनायक पांडे एक मुनीम थे व इनकी माता रजवंती देवी घर-बार संभालती थी। जब धूमिल ग्यारह वर्ष के थे तो इनके पिता का देहांत हो गया। आपका बचपन संघर्षमय रहा। धूमिल का विवाह 12 वर्ष की आयु में मूरत देवी से हुआ। 1953 में जब आपने हाईस्कूल उत्तीर्ण किया तो आप गांव के पहले ऐसे व्यक्ति थे जिसने मैट्रिक पास की थी। आर्थिक दबावों के रहते वे अपनी पढ़ाई जारी न रख सके। स्वाध्याय व पुस्तकालय दोनों के बल पर उनका बौद्धिक विकास होता रहा।

कार्यक्षेत्र

रोजगार की तलाश 'धूमिल' को कलकत्ता ले आई। कहीं ढँग का काम न मिला तो लोहा ढोने का काम कया व मजदूरों की ज़िंदगी को करीब से जाना। इस काम की जानकारी उनके सहपाठी मित्र तारकनाथ पांडे को मिली तो उन्होंने अपनी जानकारी में उन्हें एक लकड़ी की कम्पनी मैसर्स तलवार ब्रदर्ज़ प्रा. लि. में नौकरी दिलवा दी। वहाँ वे लगभग डेढ वर्ष तक एक अधिकारी के तौर पर कार्यरत रहे। इसी बीच अस्वस्थ होने पर स्वास्थ्य-लाभ हेतु घर लौट आए। बीमारी के दौरान मालिक ने उन्हें मोतीहारी से गौहाटी चले जाने को कहा। 'धूमिल' ने अपने अस्वस्थ होने का हवाले देते हुए इनकार कर दिया। मालिक का घमंड बोल उठा, "आई एेम पेइंग फॉर माई वर्क, नॉट फॉर योर हेल्थ!"

फिर क्या था साढ़े चार सौ की नौकरी, प्रति घन फुट मिलने वाला कमीशन व टी. ए, डी. ए....'धूमिल' ने सबको लात लगा दी। इसी घटना से 'धूमिल' पूंजीपतियों और मज़दूरों के दृष्टिकोण व फ़ासले को समझे। अब उनका जनवादी संघर्ष उनकी कविता में आक्रोश बन प्रकट होने वाला था। धूमिल को हिंदी कविता के संघर्ष का कवि कहा जाता है। 1957 में 'धूमिल' ने काशी विश्वविद्यालय के औद्योगिक संस्थान में प्रवेश लिया। 1958 में प्रथम श्रेणी से प्रथम स्थान लेकर 'विद्युत का डिप्लोमा' लिया। वहीं विद्युत-अनुदेशक के पद पर नियुक्त हो गए। फिर यही नौकरी व पदोन्नति पाकर वे बलिया, बनारस व सहारनपुर में कार्यरत रहे। 1974 में जब वे सीतापुर में कार्यरत थे तो वे अस्वस्थ हो गये। अपनी स्पष्टवादिता व अखड़पन के कारण उन्हें अधिकारियों का कोपभाजन होना पड़ा। उच्चाधिकारी अपना दबाव बनाए रखने के कारण उन्हें किसी न किसी ढँग से उत्पीड़ित करते रहते थे। यही दबाव 'धूमिल' के मानसिक तनाव का कारण बन गया। अक्टूबर 1974 को असहनीय सिर दर्द के कारण 'धूमिल' को काशी विश्वविद्यालय के मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। डॉक्टरों ने उन्हें ब्रेन ट्यूमर बताया। नवंबर 1974 को उन्हें लखनऊ के 'किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज में भर्ती करवाया गया। यहाँ उनके मस्तिष्क का ऑपरेशन हुआ लेकिन उसके बाद वे 'कॉमा' में चले गए और बेहोशी की इस अवस्था में ही 10 फ़रवरी 1975 को वे काल के भाजक बन गए।[1]

भाषा एवं शैली

धूमिल की भाषा का संबोधनात्मक प्रयोग भी उन्हें तमाम समकालीन मुलम्मेदार व पाण्डित्य-प्रदर्शन-प्रिय कवियों से अलग व एक विशिष्ट पहचान देता है। उनकी कविता नये विम्ब विधान व नये संदर्भो में जनता के संघर्ष के स्वर में स्वर मिलाती है। इस दृष्टि से उनकी काव्यभाषा सामाजिक संरचना के औचित्य को चुनौती देती है। उनके काव्य बिंब अपने परवर्ती कवियों से पृथक हैं। वे अपनी प्रकृति और प्रस्तुति में अद्भुत हैं- धूप मां की गोद सी गर्म थी। कहकर कवि मां की महिमा को सिर माथे स्वीकारता है। छंदविधान की दृष्टि से उनकी लगभग सभी कविताएं गद्यात्मक लय की ओर झुकी हुई हैं। कविता की एकरसता और लंबाई तोडने के उद्देश्य से वे पंक्तियों को छोटा-बडा करते हैं और तुकों द्वारा तालमेल एवं लय स्थापित करते हैं। हिंदी कविता को नए तेवर देने वाले इस जनकवि का योगदान चिरस्मरणीय है और रहेगा।

कृतियाँ

धूमिल के चार काव्य-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें सम्मिलित हैं-

  • संसद से सड़क तक (इसका प्रकाशन स्वयं 'धूमिल' ने किया था)
  • कल सुनना मुझे (संपादन - राजशेखर)
  • धूमिल की कविताएं (संपादन - डॉ. शुकदेव)
  • सुदामा पाण्डे का प्रजातंत्र (संपादन - रत्नशंकर। रत्नशंकर 'धूमिल' के पुत्र हैं।)

उपरोक्त कृति 'संसद से सड़क तक' का प्रकाशन स्वयं 'धूमिल ने किया था व शेष का प्रकाशन मरणोपरांत विभिन्न प्रकाशकों द्वारा किया गया।[1]

हिंदी कविता के एंग्री यंगमैन

धूमिल का रहन-सहन इतना साधारण था कि ब्रेन ट्यूमर के शिकार होकर 10 फरवरी, 1975 को वे अचानक मौत से हारे तो उनके परिजनों तक ने रेडियो पर उनके निधन की खबर सुनने के बाद ही जाना कि वे कितने बड़े कवि थे। बनारस के मणिकर्णिका घाट पर उनकी अंत्येष्टि के समय सिर्फ कुंवर नारायण और श्रीलाल शुक्ल पहुंचे थे। अपने आत्मकथ्यों में वे अपनी जिस मृत्यु को अनिश्चित लेकिन दिन में सैकड़ों बार संभव बताते थे, वह उस दिन आयी ही कुछ ऐसे दबे पांव थी। वरिष्ठ कथाकार काशीनाथ सिंह बताते हैं कि औपचारिक उच्च शिक्षा से महरूम धूमिल बाद में कविता सीखने व समझने की बेचैनी से ऐसे ‘पीड़ित’ हुए कि जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। उन्होंने अपने पड़ोसी नागानंद और कई शब्दकोशों की मदद से अंग्रेज़ी भी सीखी, ताकि उसकी कविताएं भी पढ़ व समझ सकें। अलबत्ता, विधिवत अध्ययन की कमी को उन्होंने इस रूप में जीवन भर झेला कि वामपंथी होने के बावजूद न स्त्रियों को लेकर मर्दवादी सोच से मुक्त हो पाये और न गांवों व शहरों के बीच पक्षधरता के चुनाव में सम्यक वर्गीय दृष्टि अपना पाये। अशोक वाजपेयी का संग्रह ‘शहर अब भी संभावना है’ आया तो उन्होंने यह कहकर उसकी आलोचना की कि शहर तो एक फ्रंट है, वह संभावना कैसे हो सकता है? लेकिन इसका एक लाभ भी हुआ। ‘अनौपचारिक जानकारियों’ ने उनका बनी-बनाई वाम धारणाओं की कैद से निकलना आसान किये रखा और वे सच्चे अर्थों में किसान जीवन के दुःखों व संघर्षों के प्रवक्ता और सामंती संस्कारों से लड़ने वाले लोकतंत्र के योद्धा कवि बनकर निखर सके।

खाये-पिये और अघाये लोगों की ‘क्रांतिकारी’ बौद्धिक जुगालियों में गहरा अविश्वास व्यक्त करने में उन्होंने ‘सामान्यीकरण’ और ‘दिशाहीन अंधे गुस्से की पैरोकारी’ जैसे गंभीर आरोप भी झेले लेकिन पूछते रहे कि ‘मुश्किलों व संघर्षों से असंग’ लोग क्रांतिकारी कैसे हो सकते हैं? उनका विश्वास था कि ‘चंद टुच्ची सुविधाओं के लालची/अपराधियों के संयुक्त परिवार’ के लोग एक दिन खत्म हो जायेंगे और इसी विश्वास के बल से उन्होंने ‘अराजक’ होना कुबूल करके भी निष्ठा का तुक विष्ठा से नहीं भिड़ाया। कविताओं में वर्जित प्रदेशों की खोज करने और छलिया व्यवस्था द्वारा पोषित हर परम्परा, सभ्यता, सुरुचि, शालीनता और भद्रता की ऐसी-तैसी करने को आक्रामक धूमिल ने अपना छायावादी अर्थध्वनि वाला उपनाम क्यों रखा, इसकी भी एक दिलचस्प अंतर्कथा है। धूमिल ने अपनी छोटी-सी उम्र में ही हिंदी आलोचना का परंपरा से कहानियों की ओर चला आ रहा मुंह घुमाकर कविताओं की ओर कर लेने में सफलता पा ली थी। यह और बात है कि उनकी पहली प्रकाशित रचना एक कहानी ही थी, जो अपने समय की बहुचर्चित पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। वे बनारस में साहित्यकारों के स्वाभिमान के प्रतीक माने जाते थे और जिसमें भी ओछापन देखते उसके खिलाफ हो जाते। कुछ लोग आरोप लगाते हैं कि वे नामवर सिंह के लठैत की तरह काम करते थे। इसमें कम से कम इतना सही है कि वे नामवर के खिलाफ कुछ भी सुनना पसंद नहीं करते थे। लेकिन उनके स्वभाव के मद्देनजर इससे भी ज्यादा सच्ची बात यह है कि जिस भी पल उन्हें लगता कि नामवर उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं, वे उन्हें छोड़ देते।

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