Kuppali Venkatappa Puttappa Birthday कन्नड़ भाषा के प्रसिद्व कवि और लेखक कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा के जन्मदिन पर जानें इनके बारे में कुछ रोचक तथ्य
कन्नड़ भाषा के कवि व लेखक थे। उन्हें 20वीं शताब्दी के महानतम कन्नड़ कवि की उपाधि दी जाती है। कन्नड़ भाषा में ज्ञानपीठ सम्मान पाने वाले सात व्यक्तियों में कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा प्रथम थे। कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा ने अपने सभी साहित्यिक कार्य उपनाम 'कुवेम्पु' से किये हैं। साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में सन 1958 में कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा को 'पद्म भूषण' से भी सम्मानित किया गया था।
परिचय
कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा उर्फ 'केवेम्पु' का जन्म 29 दिसम्बर, 1904 को कर्नाटक में शिवमोगा ज़िले के कुपल्ली नामक गांव में एक कन्नड़ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम 'वेंकटप्पा गौड़' और माँ का नाम 'सीथम्मा' था। वह जब 12 साल के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। उन्होंने 30 अप्रैल, 1937 को 'हेमवती' नाम की युवती से विवाह किया और वैवाहिक जीवन में प्रवेश किया। वे दो पुत्र और दो पुत्रियों के पिता थे।
कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा ने अपनी प्राथमिक पढ़ाई घर में ही पूरी की, उसके बाद माध्यमिक शिक्षा मैसूर के हाईस्कूल से पूरी की। उन्होंने 1929 में महाराजा कॉलेज, मैसूर से अपनी स्नातक की शिक्षा पूर्ण की और उसके तुरंत बाद उन्होंने महाराजा कॉलेज में ही प्राध्यापक के रूप में नौकरी करके अपने व्यावसायिक जीवन की शुरूआत की। बाद में 1936 में केंद्रीय विद्यालय, बैंगलोर में सहायक प्रोफेसर के रूप में काम किया और 1946 को फिर से महाराजा कॉलेज में लौट आये। 1956 में उन्हें मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में चुना गया, जहां उन्होंने 1960 में सेवानिवृत्ति तक अपनी सेवाएँ दीं।
साहित्यिक कार्य
कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा ने अपने साहित्यिक कार्य को अंग्रेज़ी में शुरू किया, जिसमें कविताओं का संग्रह शुरुआती विचार था, लेकिन बाद में आपका कार्य, रचनाएँ मूलत: कन्नड़ भाषा में बदल गयीं। उन्होंने कन्नड़ को शिक्षा के लिए माध्यम बनाने के लिए आंदोलन का नेतृत्व किया, 'मातृभाषा में शिक्षा' विषय पर जोर दिया। कन्नड़ शोध की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए, उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय में 'कन्नड़ अध्यायन संस्थे'[2] की स्थापना की, जिसे बाद में इसका नाम बदलकर 'कुवेम्पु इंस्टीट्यूट ऑफ कन्नड़ स्टडीज़' कर दिया गया। मैसूर विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उन्होंने विज्ञान और भाषाओं के अध्ययन का बीड़ा उठाया। उन्होंने 'जी. हनुमंत राव' के साथ काम करने वालों के लिए ज्ञान के प्रकाशन को चुनौती दी। कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा जातिवाद, अर्थहीन प्रथाओं और धार्मिक अनुष्ठान के ख़िलाफ़ थे। 'द शूद्र तपस्वी' जैसे लेखन में उनकी इन प्रथाओं के खिलाफ असंतोष को देखा जा सकता है। 'श्री रामायण दर्शनम्' नामक महाकाव्य की वजह से उन्हें प्रतिष्ठित 'ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया।
काव्य कृतियाँ
अमलन कथे (शिशु साहित्य) (1924)
बोम्मनहळ्ळिय किंदरिजोगि (शिशु साहित्य) (1926)
हाळूरु (1926)
कोळलु (1930)
पांचजन्य (1933)
कलासुंदरि (1934)
नविलु (1934)
चित्रांगदा (1936) (खंडकाव्य)
कथन कवनगळु (1936)
कोगिले मत्तु सोवियट रष्या (1944)
कृत्तिके (1946)
अग्निहंस (1946)
पक्षिकाशि (1946)
किंकिणि (1946)
प्रेमकाश्मीर (1946)
षोडशि (1947)
नन्न मने (1947)
जेनागुव (1952)
चंद्रमंचके बा, चकोरि! (1954)
इक्षु गंगोत्रि (1957)
अनिकेतन (1963)
अनुत्तरा (1963)
मंत्राक्षते (1966)
कदरडके (1967)
प्रेतक्यू (1967)
कुटीचक (1967)
होन्न होत्तरे (1976)
समुद्रलंघन (1981)
कोनेय तेने मत्तु विश्वमानव गीते (1981)
मरिविज्ञानि (1947) (शिशु साहित्य)
मेघपुर (1947) (शिशु साहित्य)
श्रीरामायण दर्शनम् (1949) (महाकाव्य)
नाटक
मोडण्णन तम्म (1926)(मक्कळ नाटक)
जलगार (1928)
यमन सोलु (1928)
नन्न गोपाल (1930) (मक्कळ नाटक)
बिरुगाळि (1930)
स्मशान कुरुक्षेत्र (1931)
महारात्रि (1931)
वाल्मीकिय भाग्य (1931)
रक्ताक्षि (1932)
शूद्र तपस्वि (1944)
बेरळ्गे कोरळ् (1947)
बलिदान (1948)
चंद्रहास (1963)
कानीन (1974)
उपन्यास
कानूरु सुब्बम्म हेग्गडति (1936)
मलेगळल्लि मदुमगळु (1967)
कथा संकलन
संन्यासि मत्तु इतर कथेगळु (1936)
नन्न देवरु मत्तु इतरे कथेगळु (1940)
गद्य, विचार तथा प्रबंध
आत्मश्रीगागि निरंकुशमतिगळागि (1944)
साहित्य प्रचार (1944)
काव्य विहार (1947)
तपोनंदन (1950)
विभूति पूजे (1953)
द्रौपदिय श्रीमुडि 1960)
रसोवैसः (1962)
षष्ठि नमन (1964)
इत्यादि (1970)
मनुजमत-विश्वपथ (1971)
विचार क्रांतिगे आह्वान (1974)
जनताप्रज्ञे मत्तु वैचारिक जागृति (1978)
आत्मकथा
नेनपिन दोणियल्लि
जीवन चरित्र
श्री रामकृष्ण परमहंस (1934)
स्वामी विवेकानंद (1934)
रामकृष्ण-विवेकानंद साहित्य
विवेकवाणी (1933)
गुरुविनोडने देवरडिगे (1954)
वेदांत साहित्य
ऋषिवाणी (1934)
वेदांत (1934)
मंत्र मांगल्य (1966)
अन्य
जनप्रिय वाल्मीकि रामायण (1950)
प्रसारांग (1959)
प्रशस्ति एवं पुरस्कार
केंद्र साहित्य अकादमी प्रशस्ति - (श्रीरामायण दर्शनम्) (1955)
पद्म भूषण (1958)
मैसूर विश्वविद्यालयदिंद गौरव डि.लिट्.
'राष्ट्रकवि' पुरस्कार (1964)
कर्नाटक विश्वविद्यालयदिंद गौरव डि.लिट्. (1966)
ज्ञानपीठ प्रशस्ति (श्री रामायण दर्शनम्) (1968)
बेंगळूरु विश्वविद्यालयदिंद गौरव डि.लिट्. (1969)
पद्म विभूषण (1989)
कर्नाटक रत्न (1992)
पंप प्रशस्ति(1988)
गूगल डूडल (Google Doodle)
कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा कन्नड़ भाषा के महान लेखक और कवियों में गिने जाते हैं। वे कन्नड़ ज्ञानपीठ पुरस्कार पाने वाले सात व्यक्तियों में सबसे पहले थे। उनको साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया था। उनके द्वारा रचित एक महाकाव्य 'श्रीरामायण दर्शनम्' के लिये उन्हें सन् 1955 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' से सम्मानित किया गया। उन्हें साहित्यिक क्षेत्र में 'कुवेम्पु' उपनाम से जाना जाता है। गूगल ने इस महान साहित्यकार को उनके 113वें जन्मदिन के दिन बेहतरीन डूडल बनाकर याद किया। गूगल ने अपने इस डूडल में दिखाया है कि कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा एक बड़े पत्थर पर बैठे साहित्य लिख रहे हैं, उनके पीछे सुंदर प्रकृति को दर्शाया गया है। उसके साथ गूगल का कन्नड़ भाषा के अंदाज़में सफ़ेद रंग का गूगल लोगो भी दिखाया गया है।
फ़िल्म निर्माण
यदि कुप्पाली वेंकटप्पा पुटप्पा की रचनाओं पर फ़िल्मों की बात करें तो गिरीश कर्नाड ने कन्नड़ में उन पर एक फ़िल्म बनाई थी। गिरीश कर्नाड ने 1999 में ‘कनरू हेग्गाडिथी’ फ़िल्म बनाई थी, जो कुवेम्पु के उपन्यास ‘कनरू सुबम्मा हेग्गाडिथी’ पर आधारित थी। फ़िल्म की कहानी आज़ादी से पहले के एक परिवार की थी। इस फ़िल्म ने सन 2000 में कन्नड़ की बेस्ट फ़ीचर फ़िल्म का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार भी जीता था। दिलचस्प बात यह थी कि फ़िल्म रिलीज़ होने के बाद लोगों की इस उपन्यास में दिलचस्पी बढ़ गई थी और इसकी 2000 प्रतियां और छापी गई थीं

