
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुमानों के अनुसार, ओरल रिहाइड्रेशन थ्योरी से 60 मिलियन से अधिक लोगों की जान बचाने का अनुमान है। हालांकि, शहर के डॉक्टरों का मानना है कि केंद्र सरकार द्वारा यह मान्यता बहुत पहले मिलनी चाहिए थी। शहर के मेडिकल प्रैक्टिशनर, उदीप्ता रे ने कहा- उनका आविष्कार बांग्लादेश मुक्ति युद्ध के दौरान आया था, जिसने हजारों लोगों की जान बचाई थी। अंत में, भारत सरकार ने चिकित्सा विज्ञान के प्रति उनके योगदान को मान्यता दी है। देर आए दुरुस्त आए। जाने-माने मैक्सिलोफेशियल सर्जन श्रीजोन मुखर्जी इस बात से खुश हैं कि आखिरकार महालनाबिस को लंबे समय से प्रतीक्षित मान्यता मिल गई है। उन्होंने कहा, हम, बंगाल के डॉक्टर, हमारे अग्रदूतों को मरणोपरांत मान्यता मिलने के आदी हो गए हैं।
बांग्लादेश 1971 में मुक्ति संग्राम के दौरान हैजे की चपेट में आ गया था। महालनबिस तब बनगांव में भारत-बांग्लादेश सीमा पर एक शरणार्थी शिविर में डॉक्टर के रूप में सेवा दे रहे थे। शिविर में लोगों को हैजा और दस्त से बचाने के लिए उन्होंने नमक और चीनी को पानी में मिलाकर घोल तैयार किया। इन दोनों जानलेवा बीमारियों से बचाव में यह उपाय चमत्कार का काम करता था। यह घोल बाद में ओआरएस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महालनाबिस को 2002 में पोलिन पुरस्कार और 2006 में प्रिंस महिदोल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। उन्हें 1994 में रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज के विदेशी सदस्य के रूप में चुना गया था। हालांकि, लाखों लोगों की जान बचाने वाले चिकित्सा के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए केंद्र सरकार से शायद ही कोई मान्यता मिली हो, लेकिन अब मरणोपरांत पद्म विभूषण दिया जा रहा है। जिससे लोगों में खुशी है।
--आईएएनएस
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कोलकाता न्यूज डेस्क !!!