
उत्तराखंड के एक गांव से मानवता को झकझोर देने वाला मामला सामने आया है, जहां एक महिला का केवल इस कारण से सामाजिक बहिष्कार कर दिया गया, क्योंकि उसका बेटा हत्या के आरोप में जेल में बंद है। मामला अभी अदालत में विचाराधीन है, लेकिन गांववालों ने न्यायिक प्रक्रिया का इंतजार किए बिना ही पीड़ित महिला और उसके परिवार को समाज से बाहर कर दिया।
क्या है पूरा मामला?
मिली जानकारी के अनुसार,
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महिला का बेटा कुछ माह पहले गांव के एक युवक की हत्या के आरोप में गिरफ्तार हुआ था।
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मामला अदालत में लंबित है और अंतिम फैसला अब तक नहीं आया है।
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लेकिन गांव की पंचायत या प्रभावशाली लोगों ने महिला को दोषी ठहराते हुए पूरे परिवार का सामाजिक बहिष्कार कर दिया।
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न तो उन्हें गांव के किसी आयोजन में बुलाया जाता है, न ही किसी भी सामाजिक सुविधा का लाभ लेने दिया जा रहा है।
कैसे हो रहा बहिष्कार?
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महिला और उसके परिवार से कोई बात नहीं करता।
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उन्हें गांव के कुएं, मंदिर या बाजार तक इस्तेमाल करने से मना कर दिया गया है।
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यहां तक कि कुछ लोग उनके बच्चों को भी स्कूल में ताने मारते हैं।
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राशन की दुकानें और दुकानें भी सेवा देने से इनकार कर रही हैं।
क्या कहते हैं परिजन?
महिला का कहना है:
“मेरा बेटा जेल में है, उसका मामला कोर्ट में है। अगर उसने गलती की है तो सजा मिलेगी, लेकिन हमने क्या गुनाह किया? अब गांव में कोई हमसे बात नहीं करता, हम कहीं भी नहीं जा सकते।”
क्या कहती है कानून व्यवस्था?
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सामाजिक बहिष्कार करना भारतीय संविधान के मूल अधिकारों का उल्लंघन है।
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इस प्रकार की घटनाएं अन्यायपूर्ण सामाजिक मानसिकता को दर्शाती हैं, जहां पूरे परिवार को एक सदस्य के कथित अपराध के लिए सजा दी जाती है।
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स्थानीय पुलिस और प्रशासन को ऐसे मामलों में तत्काल दखल देना चाहिए।
मानवाधिकार विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
“यह पूरी तरह असंवैधानिक और अमानवीय है। भारतीय संविधान ‘व्यक्तिगत अपराध’ की बात करता है, सामूहिक सजा की नहीं। अगर कोई दोषी है, तो सजा न्यायालय देगा, न कि भीड़ या पंचायत।”
निष्कर्ष:
यह मामला न सिर्फ कानून और संविधान के खिलाफ है, बल्कि भारतीय समाज के भीतर मौजूद असंवेदनशीलता की भी तस्वीर पेश करता है।
जब तक ऐसी सामाजिक न्याय प्रणाली की जगह ‘भीड़ का इंसाफ’ लेती रहेगी, तब तक गरीब और कमजोर वर्गों को बार-बार इस प्रकार की अमानवीयता का सामना करना पड़ेगा।