डॉ. एसके मुखर्जी को देवतुल्य मानकर लोग कराते थे इलाज, जनता का था प्रगाढ़ विश्वास

आज इंदौर प्रदेश की आर्थिक, शैक्षणिक और चिकित्सा राजधानी के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। इंदौर में हर तरह के इलाज के लिए ज्यादातर बड़े अस्पताल और डॉक्टरों की टीम मौजूद है। इंदौर प्रदेश में अपनी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मशहूर हो चुका है। यहां दूर-दूर से लोग इलाज करवाने आते हैं। एक समय में इंदौर में डॉ. संतोष कुमार मुखर्जी का नाम हर किसी की जुबान पर था। अगर आप किसी भी समस्या के लिए डॉ. मुखर्जी से सलाह लेते थे तो ऐसा माना जाता था कि आपने अपनी बीमारी भगवान को दिखा दी और दवा मिल गई। दरअसल, शहर में और भी कई डॉक्टर थे, जिनके पास लोग गहरी आस्था के साथ इलाज के लिए जाते थे। बुधवार को डॉक्टर्स डे पर हम शहर के मशहूर डॉक्टरों और चिकित्सा सुविधाओं का हाल जान रहे हैं।
भारत रत्न विधान चंद्र रॉय की याद में मनाया जाता है यह दिन
बंगाल के दूसरे मुख्यमंत्री और मशहूर डॉक्टर डॉ. विधान चंद्र रॉय का जन्म 1 जुलाई 1882 को हुआ था और 1 जुलाई 1962 को उनका निधन हो गया था। उनकी याद में डॉक्टरों को सम्मान देने के लिए यह दिन देश भर में मनाया जाता है। 1961 में डॉ. रॉय को भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
1857 में जला दिया गया गोपाल मंदिर अस्पताल
प्राचीन काल में इंदौर में पारंपरिक देशी और झाड़-फूंक के साथ आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति से भी रोगों का इलाज होता था। शहर में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति को लेकर कई भ्रांतियां थीं। शहर में राजबाड़ा के पास गोपाल मंदिर के अम्बारी खाना में अंग्रेजी चिकित्सा पद्धति पर आधारित पहला अस्पताल खोला गया। इसके पहले अस्पताल सहायक के रूप में विनायक राव को नियुक्त किया गया। शहर के लोगों में एलोपैथी के प्रति अविश्वास और इस उपचार को लेकर फैली भ्रांतियों के कारण इस अस्पताल में कोई भी इलाज के लिए नहीं आता था। जुलाई 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ क्रांति में इस अस्पताल में आग लगा दी गई थी, विद्रोह शांत होने के बाद इस अस्पताल को फिर से खोलने का फैसला किया गया।
क्लोरोफॉर्म के सेवन को हानिकारक माना जाता था
1857 के विद्रोह के बाद इस अस्पताल को फिर से खोला गया। धीरे-धीरे इस अस्पताल की लोकप्रियता बढ़ने लगी। 1908 तक ग्रामीण क्षेत्रों से लोग यहां इलाज के लिए नहीं आते थे, क्योंकि माना जाता था कि सर्जरी के दौरान क्लोरोफॉर्म सूंघने से कोई अप्रिय घटना हो सकती है। 1865-66 में शहर में अंग्रेजी पद्धति से इलाज के लिए वामन राव और विनायक राव नामक दो डॉक्टर उपलब्ध थे।
रेजीडेंसी में शुरू हुई मेडिकल शिक्षा
मेडिकल शिक्षा देने के लिए 1870 में रेजीडेंसी में पहली क्लास शुरू की गई। इसमें वैद्य और हकीम नियुक्त किए गए। 1878 में इस संस्था को सेंट्रल इंडिया मेडिकल स्कूल का रूप दिया गया। ब्रिटिश अधिकारियों के प्रयासों से किंग एडवर्ड हॉस्पिटल के नाम से इस संस्था की स्थापना की गई। शुरुआत में इसमें सिर्फ चार छात्रों ने प्रवेश लिया। 1880 में पहले बैच के चार छात्र तैयार हुए। यह भी दिलचस्प है कि 1891 में शहर की पहली महिला शांतिबाई खोत ने प्रवेश लिया। होलकर स्टेट ने मेडिकल छात्रों को छह रुपये प्रतिमाह की छात्रवृत्ति भी दी। 1901 में शुरू हुआ था एमटीएच अस्पताल
1901 में शहर में महाराजा तुकोजी राव अस्पताल शुरू हुआ। इस अस्पताल में इंदौर मेडिकल स्कूल की पहली महिला डॉक्टर शांतिबाई खोत की नियुक्ति हुई थी। शुरुआती दौर में डॉ. जीएस चास्कर, गोविंद सदाशिव, डॉ. वाघ, डॉ. सारंगपानी शहर के प्रमुख डॉक्टर थे। ये सभी आजादी से पहले के थे।
विरोध के बाद बना भरोसा
चिकित्सा जगत के बाद के विकास ने शहर को कई नामी डॉक्टर दिए। लेकिन शुरुआती दौर में डॉक्टरों को भरोसा बनाने के लिए काफी विरोध से जूझना पड़ा। वर्तमान में शहर में कई प्रमुख अस्पताल और डॉक्टर हैं जो अपने इलाज के लिए इंदौर ही नहीं बल्कि प्रदेश और देशभर में मशहूर हैं।