30 सप्ताह से अधिक गर्भवती नाबालिग पीड़िता को बच्चे को जन्म देने की मिली अनुमति, 15 दिन तक रखेगी अपने पास

मध्यप्रदेश हाईकोर्ट ने एक नाबालिग बलात्कार पीड़िता की गर्भावस्था को लेकर महत्वपूर्ण निर्णय सुनाया है। गर्भावस्था की अवधि 30 सप्ताह से अधिक होने और चिकित्सकीय दृष्टिकोण से गर्भपात के जोखिम को देखते हुए अदालत ने पहले पीड़िता के अशिक्षित माता-पिता की पुनः काउंसलिंग कराने के आदेश दिए थे। अब काउंसलिंग के बाद पीड़िता और उसके परिवार ने अदालत में यह सहमति दी है कि वह बच्चे को जन्म देगी और सिर्फ 15 दिनों तक स्तनपान कराने के लिए बच्चे को अपने पास रखेगी, इसके बाद बच्चे को गोद देने की प्रक्रिया शुरू की जाएगी।
यह आदेश मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के जस्टिस विशाल मिश्रा की एकलपीठ ने सुनाया। अदालत ने पीड़िता और उसके माता-पिता की इच्छा को ध्यान में रखते हुए दायर की गई याचिका का निराकरण कर दिया।
क्या है मामला?
यह मामला मध्यप्रदेश के एक जिले का है, जहां एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार की घटना सामने आई थी। मेडिकल जांच में पुष्टि हुई कि पीड़िता गर्भवती है और जब यह मामला हाईकोर्ट तक पहुंचा, तब तक उसकी गर्भावस्था 30 सप्ताह से अधिक हो चुकी थी। मेडिकल विशेषज्ञों की राय थी कि इस अवस्था में गर्भपात करना न केवल जटिल है, बल्कि मां के जीवन के लिए भी जोखिमपूर्ण हो सकता है।
अदालत ने पहले पीड़िता और उसके माता-पिता की काउंसलिंग कराई थी, क्योंकि वे अशिक्षित थे और पूरी स्थिति को समझने में कठिनाई हो रही थी। काउंसलिंग के बाद परिजनों ने स्पष्ट किया कि वे बच्ची को जन्म देने को तैयार हैं, लेकिन बच्चे का भविष्य देखते हुए उसे केवल 15 दिन तक ही अपने पास रखेंगे, इसके बाद उसे गोद देने की प्रक्रिया की अनुमति दी जाएगी।
कोर्ट की टिप्पणी
जस्टिस विशाल मिश्रा ने अपने आदेश में कहा कि अदालत पीड़िता की इच्छा और स्वास्थ्य को सर्वोपरि मानते हुए निर्णय ले रही है। उन्होंने कहा कि "बालिका और उसके माता-पिता का निर्णय सोच-समझकर और परामर्श के बाद लिया गया है। इसलिए अब कोर्ट की दखल की आवश्यकता नहीं रह गई है।"
अदालत ने प्रशासन और बाल कल्याण समिति को यह निर्देश दिया है कि वे पीड़िता की हरसंभव सहायता करें और बच्चे के गोद ग्रहण की प्रक्रिया को विधिसम्मत तरीके से पूर्ण करें।
सामाजिक सरोकार
यह मामला एक बार फिर यह दिखाता है कि यौन अपराधों की शिकार नाबालिगों के लिए केवल न्यायिक राहत ही नहीं, बल्कि सामाजिक, मानसिक और स्वास्थ्य संबंधी सहायता भी अत्यंत जरूरी है। कोर्ट की संवेदनशीलता और समझदारी भरे दृष्टिकोण ने पीड़िता और उसके परिवार को एक सुरक्षित विकल्प चुनने का मौका दिया है।