पारंपरिक उल्लास के साथ बंग समुदाय ने मनाया पोइला बोइशाख, 'शुभो नोबो बोरशो' कहकर देते हैं बधाई
जिस तरह देश में अलग-अलग धर्म और जातियां अपनी-अपनी अद्भुत परंपराओं का जश्न मनाती हैं, उसी तरह बंग समुदाय भी आज 15 अप्रैल को पोइला वैशाख का त्योहार मनाकर अपने नए साल का स्वागत कर रहा है। यह दिन बंगाली कैलेंडर का पहला दिन होता है और इसे नोबोबोर्शो के नाम से भी जाना जाता है। इस दिन नए कार्यों की शुरुआत की जाती है और समाज में एकता का संदेश फैलाया जाता है। आपको बता दें कि पोइला वैशाख भारतीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। हर समुदाय का अपना नववर्ष उत्सव होता है, जैसे मराठी समुदाय में गुड़ी पड़वा मनाया जाता है। पोइला वैशाख बंग समुदाय की सांस्कृतिक पहचान का प्रतिनिधित्व करता है जो उनके रंगीन उत्सवों और परंपराओं को दर्शाता है।
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस विशेष दिन पर बंग समुदाय के लोग एक-दूसरे को 'शुभो नोबो बोर्शो' कहकर बधाई देते हैं। प्रोफेसर कमल बोस के अनुसार, यह दिन बड़े उत्साह और जोश के साथ मनाया जाता है, जिससे बंगाली भाषी लोगों में खुशी और उल्लास का माहौल बनता है।
व्यवसायियों के लिए विशेष महत्व
पोइला वैशाख एक महत्वपूर्ण दिन है, विशेषकर व्यापारिक समुदाय के लिए। रांची के व्यवसायी सुजीत गुई के अनुसार इस दिन व्यापार में वृद्धि के लिए खाता बहा की पूजा की जाती है। यह दिन व्यवसायियों के लिए नए अवसरों की शुरुआत का प्रतीक है। वैशाख के पहले दिन से ही शुभ कार्य शुरू हो जाते हैं। बंगाली समुदाय के लोग इस दिन को विवाह, गृह प्रवेश, मुंडन (सिर मुंडवाने की रस्म) और खरीदारी जैसी गतिविधियों के लिए शुभ मानते हैं। इस दिन पश्चिम बंगाल में कई जगहों पर मेले का भी आयोजन किया जाता है। इसके अतिरिक्त, दूसरे दिन लोग अच्छी वर्षा के लिए बादलों की पूजा करते हैं, जिसे अच्छी फसल पैदा करने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
पारंपरिक संगीत का आनंद लें.
संगीत बंगाली संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। पोइला वैशाख के दिन पारंपरिक संगीत सुनने की परंपरा है। संगीतकार वीणा श्री सरकार के अनुसार, इस दिन रवींद्रनाथ टैगोर की धुनें और लोकगीत बजाए जाते हैं, जिससे उत्सव और अधिक आनंददायक हो जाता है।
रांची का ऐतिहासिक इतिहास
पोइला वैशाख का राजधानी रांची में भी एक समृद्ध इतिहास है। सुबीर लाहिड़ी के अनुसार, यह महोत्सव पहली बार रांची के टैगोर हिल में 1912 में आयोजित किया गया था, जब ज्योतिरींद्रनाथ टैगोर रांची आए थे। तब से इस समुदाय की सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखते हुए रांची में यह दिन बड़े उत्साह के साथ मनाया जाता है।