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किन्नौर अदालत ने आदिवासी प्रमाण पत्र मामले में दी महत्वपूर्ण टिप्पणी

किन्नौर अदालत ने आदिवासी प्रमाण पत्र मामले में दी महत्वपूर्ण टिप्पणी

रामपुर स्थित विशेष न्यायाधीश की अदालत ने फर्जी एसटी प्रमाण पत्र पर पदोन्नति के एक मामले में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। अदालत ने स्पष्ट किया कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 366 (25) के अनुसार, अनुसूचित जनजाति की कोई ऐसी विशिष्ट परिभाषा नहीं है कि आदिवासी महिलाओं के बच्चे को आदिवासी नहीं माना जा सके।

मामले का विवरण

मामला एक शिक्षक से जुड़ा था, जिसने पदोन्नति पाने के लिए एसटी प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया था। शिकायतकर्ता ने इस प्रमाण पत्र को फर्जी बताया था।

  • शिक्षक का प्रमाण पत्र असल साबित हुआ।

  • प्रमाण पत्र बचपन में आठ साल की उम्र में बनाया गया था।

  • शिक्षक उस समय अपनी मां के साथ किन्नौर में रह रहे थे।

अदालत ने यह तय किया कि प्रमाण पत्र वैध और असली है और शिक्षक ने पदोन्नति के लिए कोई धोखाधड़ी नहीं की।

अदालत की टिप्पणी और महत्व

अदालत ने इस मामले में आदिवासी पहचान और एसटी प्रमाण पत्र की वैधता पर महत्वपूर्ण दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। न्यायाधीश ने कहा कि अनुच्छेद 366 (25) के अनुसार किसी भी बच्चे को उसकी मातृ या पितृ जाति के आधार पर आदिवासी अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता।

यह टिप्पणी न केवल शिक्षक के मामले में निर्णय को प्रभावित करती है, बल्कि आदिवासी समुदाय के अधिकार और एसटी प्रमाण पत्र के महत्व को भी स्पष्ट करती है।

शिक्षक और समुदाय के लिए संदेश

शिक्षक की ओर से दिए गए प्रमाण पत्र को असली मानते हुए अदालत ने यह संकेत दिया कि सत्यापन और सही दस्तावेज पेश करना सर्वोच्च प्राथमिकता है। इसके अलावा, यह निर्णय आदिवासी बच्चों और उनके अधिकारों के संरक्षण में भी मील का पत्थर है।

सार्वजनिक और प्रशासनिक दृष्टिकोण

विशेष न्यायाधीश की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट होता है कि एसटी प्रमाण पत्र की वैधता और अदालती प्रक्रिया आदिवासी अधिकारों के संरक्षण के लिए अहम है। प्रशासन और समुदाय दोनों के लिए यह एक मार्गदर्शक निर्णय माना जा सकता है।

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