थनौद गांव में कुम्हार समाज की पारंपरिक गणेश प्रतिमा निर्माण, पर्यावरण संरक्षण की मिसाल
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले स्थित थनौद गांव एक अनूठी परंपरा और पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक बन गया है। यहां कुम्हार समाज द्वारा पांच पीढ़ियों से गणेश की प्रतिमाएं बनाई जा रही हैं, जो न केवल आस्था का प्रतीक हैं, बल्कि पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देती हैं।
गांव में पीओपी (प्लास्टर ऑफ पेरिस) की मूर्तियों पर 2016 से प्रदेश सरकार द्वारा प्रतिबंध लगाया गया था, लेकिन थनौद गांव ने इस प्रतिबंध से बहुत पहले ही पारंपरिक और प्रकृति के सम्मान को प्राथमिकता दी। यहां परंपरागत रूप से मिट्टी से बनी गणेश मूर्तियां बनाई जाती हैं, जो पर्यावरण के लिए सुरक्षित और स्वाभाविक होती हैं।
थनौद गांव में हर वर्ष 40 पंडालों में दो हजार से अधिक गणेश प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। इन मूर्तियों के निर्माण से 500 से अधिक लोगों को रोजगार मिलता है। यह न केवल कुम्हार समाज की कलात्मकता का प्रतीक है, बल्कि पर्यावरण के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण को भी दर्शाता है।
गांव के लोग बताते हैं कि इस पारंपरिक प्रक्रिया में वे मिट्टी की मूर्तियों को बनाते समय प्राकृतिक रंगों का उपयोग करते हैं, जो जल में घुलने के बाद हानिकारक नहीं होते। यही कारण है कि थनौद की मूर्तियां पर्यावरण के लिए सुरक्षित होती हैं, जबकि अन्य जगहों पर प्लास्टिक, रंग और अन्य रासायनिक तत्वों से बनी मूर्तियां जल निकायों को प्रदूषित करती हैं।
थनौद गांव की इस पहल ने न केवल पर्यावरण संरक्षण में महत्वपूर्ण योगदान दिया है, बल्कि यह सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से भी एक मिसाल बन चुकी है। यहां की मूर्तियों को राज्य और देशभर में सराहा जा रहा है, और यह साबित कर रहा है कि प्रकृति और परंपरा का सम्मान करते हुए आस्था को जीवित रखा जा सकता है।

