CM की कुर्सी तक लालू यादव को पहुंचाने वाले नीतीश, आज सियासी दुश्मन क्यों बन गए
बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को एक दूसरे का धुर विरोधी माना जाता है। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि ये दोनों नेता कभी बहुत करीबी दोस्त हुआ करते थे। जिस राजनीति में आज दोनों आमने-सामने हैं, उसी राजनीति में कभी नीतीश ने लालू को उस मुकाम पर पहुंचाया था, जहां से लालू ने पूरे बिहार पर अपना राजनीतिक प्रभाव स्थापित कर लिया था।
1990: जब नीतीश ने लालू को बनाया मुख्यमंत्री
ये 1990 की बात है, जब बिहार की राजनीति करवट ले रही थी। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद खाली था और इस पद को पाने वाला ही अगला मुख्यमंत्री बन सकता था। लालू यादव उस समय उभरते हुए नेता थे, लेकिन उनके पास पर्याप्त समर्थन नहीं था। नेता प्रतिपक्ष बनने के लिए 42 विधायकों की जरूरत थी और लालू के पास मुट्ठी भर समर्थक भी नहीं थे।
इस मुश्किल वक्त में नीतीश कुमार और शरद यादव ने लालू की जिम्मेदारी संभाली। शरद दिल्ली से पटना पहुंचे और मिशन "लालू को मुख्यमंत्री" की शुरुआत की और इसकी जिम्मेदारी नीतीश कुमार और जगदानंद सिंह को सौंपी। दोनों नेताओं ने विधायकों से संपर्क करने के लिए दिन-रात काम किया और उन्हें लालू के पक्ष में लाने की मुहिम शुरू की।
नीतीश की रणनीति: घर-घर जाकर विधायकों को मनाना
नीतीश कुमार खुद लालू यादव के साथ पैदल ही विधायकों के पास पहुंचते थे। कई बार वे सुबह से शाम तक विधायकों के क्लब और फ्लैट में जाकर उन्हें मनाने की कोशिश करते। वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर अपनी किताब बंधु बिहारी में लिखते हैं कि अगर उस समय नीतीश और शरद की जोड़ी नहीं होती तो लालू शायद मुख्यमंत्री नहीं बन पाते। इस रणनीति और नीतीश की मेहनत का नतीजा यह हुआ कि लालू विपक्ष के नेता बने और बाद में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए।
शुरुआती दौर में दोस्ती और साथ
उस समय लालू और नीतीश की जोड़ी को 'नए बिहार' की उम्मीद माना जाता था। दोनों पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधि थे और मंडल राजनीति के उदय के समय उनकी पकड़ काफी मजबूत हो गई थी। लालू अपने भाषणों और हाव-भाव से जनता के बीच लोकप्रिय हो रहे थे, जबकि नीतीश विकास की बात करने के मामले में शांत और गंभीर नेता के रूप में अपनी पहचान बना रहे थे। लालू जब मुख्यमंत्री बने तो नीतीश उनके सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में से एक थे। लेकिन समय के साथ सत्ता के गलियारों में समीकरण बदलने लगे।
1991 के बाद शुरू हुई दूरियां
1991 के लोकसभा चुनाव में लालू यादव ने मंडल राजनीति की मदद से बड़ी सफलता हासिल की। वे खुद को पिछड़े वर्ग के सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित करने लगे। इसके बाद उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती गईं और वे अपने साथियों की कम सुनने लगे। नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता लालू की कुछ नीतियों और कार्यशैली से असहमत होने लगे। यह मतभेद धीरे-धीरे दूरियों में बदल गया। जब लालू ने उनके सुझावों को नजरअंदाज करना शुरू किया तो नीतीश ने अलग राह अपनाने का फैसला किया।
1994: समता पार्टी का गठन और अलग राह
1994 में गांधी मैदान में आयोजित एक बड़ी 'कुर्मी रैली' ने नीतीश कुमार को नई दिशा दी। जब नीतीश ने इस रैली में भारी भीड़ देखी तो वे खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। और ठीक एक साल बाद नीतीश ने लालू का साथ छोड़कर 'समता पार्टी' बनाई। यहीं से दोनों नेताओं की राहें पूरी तरह से अलग हो गईं।
क्या कहते हैं राजनीतिक गलियारे
बिहार के कई वरिष्ठ नेता मानते हैं कि 1990 में लालू को मुख्यमंत्री बनाने में सबसे अहम भूमिका नीतीश कुमार की थी। अगर लालू ने शरद और नीतीश की अनदेखी न की होती तो शायद यह राजनीतिक दोस्ती आज भी कायम रहती।
दोस्ती से दुश्मनी तक का सफर
आज नीतीश और लालू भले ही विरोधी खेमे में नजर आते हों, लेकिन बिहार की राजनीति की यह अनोखी कहानी है- जहां एक दोस्त ने दूसरे को सीएम बनाया, लेकिन समय के साथ वही दोस्त राजनीतिक दुश्मन बन गया। यह कहानी सिर्फ बिहार की राजनीति की नहीं, बल्कि बदलती मानसिकता और सत्ता की सच्चाई की है, जो कभी भी रिश्तों की दिशा बदल सकती है।

