3 अक्टूबर 2008 : जिस दिन धूल में उड़ गया था सिंगुर की माटी पर नैनो बनाने का सपना
नई दिल्ली, 2 अक्टूबर (आईएएनएस)। स्कूटर पर एक परिवार है। पिता ने सामने एक बच्चे को बैठाया हुआ है और मां ने बारिश में एक हाथ से छाता पकड़कर दूसरे हाथ से एक और बच्चे को संभाला हुआ है। क्या होगा अगर बारिश के पानी में यह स्कूटर फिसल जाए....पूरा परिवार सड़क पर गिर जाए! और ऐसा होता भी है.....उस स्कूटर को सुरक्षित कैसे बनाएं? स्कूटर तो फिसलन रहित तो नहीं बनाया जा सकता, लेकिन एक ऐसी कार जरूर बनाने के बारे में सोचा जा सकता है जो दो पहिया वाहन धारकों की जेब पर ज्यादा भारी न पड़े। यह रतन टाटा के दिमाग में नैनो कार को बनाने के पीछे का ख्याल था। रतन टाटा के मुताबिक इसी ख्याल ने नैनो को मूर्त रूप दिया था।
इस तरह से दुनिया की सबसे सस्ती कार नैनो की घोषणा हुई जिसको साल 2008 तक बाजार में उतारना था। कार के प्लांट के लिए पश्चिम बंगाल में हुगली जिले की सिंगुर नाम की जगह को चुना गया था। लेकिन नैना की अवधारणा के पीछे रतन टाटा का मध्यमवर्गीय भारतीय लोगों की जरूरतों को ध्यान में रखकर पैदा हुआ संवेदनशील ख्याल धरातल पर उतरते ही बड़े विवादों में उलझ गया। जो नैनो हमारे सामने आई वह अपने बनने से पहले विवादित भूमि अधिग्रहण, जन आंदोलन और राजनीति की बड़ी मार झेल चुकी थी।
तब बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीएम) की सरकार थी। 2006 में वाम मोर्चा औद्योगीकरण और रोजगार के चुनावी वादों के साथ सत्ता में लौटा था। उस मई में, मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने घोषणा की कि टाटा को लगभग 1,000 एकड़ जमीन दी जाएगी ताकि नैनो बनाने के लिए एक कारखाना लगाया जा सके। हालांकि कम्युनिस्ट सरकार ने यह फैसला तलवार की धार पर लिया था। पश्चिम बंगाल के अधिकांश हिस्सों की तरह सिंगुर की भी अधिकतर जमीन खेती के लिए इस्तेमाल होती थी। कितनी भी कोशिश कर ली जाती, सिंगुर में नैना प्लांट के लिए जमीन का अधिग्रहण बगैर किसानों की जमीन को हासिल किए संभव नहीं था। ऐसे होने पर लोगों के विरोध का भी जोखिम था। लेकिन महाराष्ट्र और गुजरात की तर्ज पर पश्चिम बंगाल को औद्योगिक राज्य बनाने की बुद्धदेव की महत्वाकांक्षा इस जोखिम पर भारी थी। यहां तक कि यह नजरिया उनकी खुद की पार्टी के बुनियादी विचार से हटकर था।
सिंगुर की उस जमीन पर करीब 1 हजार किसान अपनी फसलें उगाते थे। 25 मई 2006 को जब टाटा के अधिकारी सिंगुर की जमीन को देखने के लिए पहुंचे थे तो पहली बार उनको स्थानीय लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा था। लेकिन सरकार अपनी ओर से पूरी तरह प्रतिबद्ध थी। उसको कैसे भी करके यह जमीन टाटा को देनी थी। 17 जुलाई 2006 को अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू हुई। तब तीन हजार लोगों ने हुगली के डीएम ऑफिस के सामने प्रदर्शन किया था। जन-भावनाएं इस जमीन के अधिग्रहण के खिलाफ थी। लोगों में भय का माहौल था कि सरकार उनकी जमीन का न तो पूरा मुआवजा देगी और न ही उनके पुनर्वास के लिए गंभीरता से विचार होगा। स्थानीय नेता भी लोगों के साथ मिलकर इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे। आंदोलन को नई दिशा और ऊर्जा तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी के उतरने ने दे दी थी।
ऐसी स्थिति में भी 25 सितंबर 2006 को सरकार ने सिंगुर की जमीन पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया और इसको टाटा को सौंप दिया। ममता बनर्जी समेत कई टीएमसी नेताओं को हिरासत में लिया गया। लेकिन इन सब चीजों से सिंगुर आंदोलन और तेज हो गया था। कई एनजीओ, प्रोफेसर्स, ट्रेड यूनियन, मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन से जुड़ चुके थे। अब यह महज किसानों का आंदोलन ना होकर एक जन आंदोलन में तब्दील हो चुका था लेकिन बुद्धदेव भट्टाचार्य की सरकार टस से मस नहीं हुई थी। किसानों के प्रति उसका रवैया सख्त और निर्मम रहा।
इसी तरह से 2008 तक सिंगुर आंदोलन चलता रहा। टाटा ने वहां कारखाने का काम शुरू करने के लिए करीब 1,500 करोड़ रुपए का निवेश किया था। लेकिन स्थानीय लोगों के रोष ने टाटा कर्मचारियों को कभी चैन से काम नहीं करने दिया। टाटा प्लांट के पास रोज कर्मचारियों के साथ मारपीट की जाने लगी, कारखाने का गेट तोड़ने की कोशिश की जाती रही तो दुर्गापुर में हाईवे पर जाम लगाने जैसी घटनाएं होने लगी। आए दिन प्लांट का सामान चोरी होने लगा। इन परिस्थितियों में कारोबार संभव नहीं था। इन सब चीजों से जूझते हुए रतन टाटा समझ चुके थे कि मध्यमवर्गीय भारतीय की लखटकिया कार का सपना एक दिन गरीब किसानों की हकीकत के आगे कुचल जाएगा।
आखिरकार 22 अगस्त, 2008 को उन्होंने स्पष्ट संदेश दे दिया कि उनके लिए सिंगुर कोई मायने नहीं रखता, अगर वह उसके कर्मचारियों की जान का दुश्मन बन चुका है। जरूरत पड़ी तो नैनो को सिंगुर प्लांट से हटा दिया जाएगा। टाटा के इस बयान के अगले ही दिन से उड़ीसा, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, गुजरात और कई अन्य राज्यों ने नया नैनो प्लांट लगाने का खुला निमंत्रण दे दिया था। ममता बनर्जी ने भी इसके अगले ही दिन फिर सिंगुर का रुख किया व आंदोलन को और तेज कर दिया। आगे जाकर और बदतर माहौल हो चुका था। आखिरकार रतन टाटा ने इस पृष्ठभूमि में 3 अक्टूबर के दिन, साल 2008 में नैनो का कारखाना सिंगुर से हटाने की घोषणा कर दी।
सिंगुर की जमीन टाटा नैनो के लिए बंजर लेकिन ममता बनर्जी के राजनीतिक करियर के लिए बड़ी उपजाऊ साबित हुई थी। वह अग्नि कन्या बन चुकी थीं। सिंगुर से टाटा के जाने के बाद सीपीएम की भी पश्चिम बंगाल से ऐसी विदाई हुई कि आज तक यह सरकार सत्ता में नहीं आई है। साल 2011 के चुनाव में सीपीएम को महज 11 सीटें मिली थी। तब बुद्धदेव भी मान चुके थे कि सिंगुर में उनसे गलती हुई थी।
--आईएएनएस
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