जयपुर गोविंद देव जी मंदिर का अनोखा रहस्य आखिर क्यों नहीं दीखते राधारानी के पैर, वीडियो में कारण जान चौंक जाएंगे आप
राजस्थान की राजधानी जयपुर अपने ऐतिहासिक किलों, महलों और मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इनमें से सबसे प्रमुख और आस्था का केंद्र है गोविंद देव जी मंदिर, जो सिटी पैलेस परिसर में स्थित है। यह मंदिर न सिर्फ अपने स्थापत्य और भव्यता के कारण प्रसिद्ध है, बल्कि यहां से जुड़ी धार्मिक मान्यताएं और रहस्य भी इसे विशेष बनाते हैं। लाखों श्रद्धालु यहां दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन अक्सर हर किसी के मन में यह सवाल उठता है कि मंदिर की प्रतिमा में राधा रानी के पांव क्यों नहीं दिखाई देते? इस सवाल का जवाब मंदिर की प्राचीन परंपराओं, मान्यताओं और इतिहास में छिपा हुआ है।
गोविंद देव जी मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
गोविंद देव जी मंदिर का निर्माण जयपुर के संस्थापक महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने कराया था। माना जाता है कि यह मंदिर वृंदावन से लाई गई भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के लिए विशेष रूप से बनवाया गया। इस प्रतिमा को लेकर विश्वास है कि यह स्वयं ब्रज में स्थापित की गई थी और बाद में राजा द्वारा बड़े सम्मान से जयपुर लाया गया।यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत उदाहरण है। इसकी भव्यता, नक्काशी और धार्मिक वातावरण श्रद्धालुओं को भक्ति रस में डुबो देता है। गोविंद देव जी मंदिर की खास बात यह है कि यहां भगवान श्रीकृष्ण के साथ राधा रानी की भी प्रतिमा विराजमान है, लेकिन राधा रानी के पांव श्रद्धालुओं को दिखाई नहीं देते।
राधा रानी के पांव क्यों नहीं दिखाई देते?
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, राधा रानी को सृष्टि में सबसे पवित्र स्वरूप माना गया है। शास्त्रों में उल्लेख है कि राधा के चरण इतने पवित्र और दिव्य हैं कि उन पर किसी की सीधी दृष्टि पड़ना उचित नहीं माना जाता। यही कारण है कि जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में राधा रानी की प्रतिमा इस तरह स्थापित की गई है कि उनके पांव सीधे तौर पर दिखाई नहीं देते।एक अन्य मान्यता के अनुसार, राधा रानी के चरणों में ऐसा अलौकिक आकर्षण है कि यदि कोई भक्त उनकी सीधी झलक पा ले, तो वह संसार के मोह-माया से तुरंत विरक्त हो सकता है। चूंकि जीवन में कर्म करना आवश्यक है, इसलिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं नहीं चाहते कि भक्त इस तरह विरक्ति को तुरंत प्राप्त कर लें। इस कारण राधा रानी के चरणों को छिपा दिया गया।
शास्त्रों और परंपराओं से जुड़ा विश्वास
भागवत पुराण और अन्य वैष्णव ग्रंथों में राधा रानी के महत्व का वर्णन मिलता है। राधा को भक्ति की पराकाष्ठा और प्रेम की देवी कहा गया है। उनके चरणों को भगवान श्रीकृष्ण भी पूजते हैं। ऐसी मान्यता है कि राधा रानी के पांव केवल वही देख सकते हैं जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त हो चुकी हो। सामान्य मनुष्य के लिए उनके चरणों का दर्शन कठिन और दुर्लभ माना जाता है।जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में यह परंपरा सदियों से निभाई जा रही है। यहां आने वाले हर भक्त को भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी के दर्शन तो होते हैं, लेकिन उनके पांव देख पाना संभव नहीं होता। यह श्रद्धा और आस्था से जुड़ी गहन परंपरा है।
लोककथाओं में छिपा रहस्य
स्थानीय लोककथाओं में यह भी कहा जाता है कि जब राधा-कृष्ण की प्रतिमा वृंदावन से जयपुर लाई गई थी, तो राजा सवाई जयसिंह द्वितीय ने शास्त्रज्ञों और आचार्यों से पूजा पद्धति को लेकर सलाह ली थी। उसी समय यह निर्णय लिया गया कि राधा रानी के पांव श्रद्धालुओं को नहीं दिखाए जाएंगे।एक कथा यह भी प्रचलित है कि एक बार जब राधा रानी के चरणों के दर्शन भक्तों को करवाए गए, तो कई लोग समाधि जैसी अवस्था में चले गए और सांसारिक जीवन से पूरी तरह विरक्त हो गए। उस घटना के बाद से तय कर दिया गया कि प्रतिमा की स्थापना ऐसी हो कि राधा रानी के पांव हमेशा पर्दे में ही रहें।
मंदिर आने वाले श्रद्धालुओं की आस्था
हर दिन हजारों भक्त गोविंद देव जी मंदिर पहुंचते हैं। भोर से लेकर रात तक यहां विभिन्न झांकियां और आरतियां होती हैं। भक्त बड़ी आस्था और श्रद्धा से दर्शन करते हैं। जब उनसे राधा रानी के पांव न दिखने के बारे में पूछा जाता है, तो अधिकांश लोग यही कहते हैं कि यह भक्ति की परंपरा है और इसमें ईश्वर की कोई गहरी लीला छिपी है।श्रद्धालुओं का मानना है कि भगवान श्रीकृष्ण और राधा रानी के दर्शन केवल आंखों से नहीं, बल्कि मन और आत्मा से किए जाते हैं। उनके पांव न दिखाई देना इस बात का प्रतीक है कि भक्ति में हमेशा रहस्य छिपा होता है और ईश्वर को पूरी तरह समझ पाना संभव नहीं।
धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
जयपुर का गोविंद देव जी मंदिर न केवल धार्मिक स्थल है, बल्कि सांस्कृतिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है। मंदिर में होने वाले उत्सव, विशेषकर जन्माष्टमी और राधाष्टमी, बड़े धूमधाम से मनाए जाते हैं। उस समय मंदिर लाखों भक्तों से खचाखच भरा होता है।राधा रानी के पांव न दिखाई देने की परंपरा इस मंदिर को और भी विशेष बनाती है। यह भक्तों को यह संदेश देती है कि भक्ति का मार्ग रहस्यमय है और उसमें समर्पण, श्रद्धा और विश्वास की आवश्यकता होती है।

