आखिर गणेश जी को क्यों इतना प्रिय है दूर्वांकुर ? 2 मिनट के वीडियो में जाने जानिए इससे जुड़ी पौराणिक कथा और पूजा में इसका विशेष महत्त्व

क्या आप जानते हैं कि प्रथम पूज्य श्री गणेश जी को दूर्वाकुर चढ़ाना क्यों जरूरी माना जाता है? या फिर यह परंपरा कैसे शुरू हुई? इस विषय पर गणेश पुराण में अलग-अलग कथाएं मिलती हैं। जिसके अनुसार विघ्नहर्ता को दूर्वाकुर बहुत प्रिय है। इतना ही नहीं, अगर श्री गणेश जी को सभी भोगों की जगह दूर्वाकुर चढ़ाया जाए तो वे प्रसन्न होकर भक्त की सभी मनोकामनाएं पूरी करते हैं।
गणेश पुराण में दूर्वाकुर के बारे में यह कथा मिलती है
कहते हैं कि भगवान भक्त की थोड़ी सी भक्ति से भी प्रसन्न हो जाते हैं। जरूरी नहीं है कि आप भगवान को प्रसन्न करने के लिए 56 भोग लगाएं या तरह-तरह की चीजें भेंट करें। सच्चे मन से चढ़ाया गया जल भी आपको भगवान की कृपा का पात्र बना सकता है। दूर्वाकुर के बारे में भी ऐसी ही कथा मिलती है। गणेश पुराण के अनुसार एक बार एक चांडाली और एक गधा गणेश मंदिर जाते हैं और वे कुछ ऐसा करते हैं कि उनके हाथों से दूर्वा घास श्री गणेश पर गिर जाती है। इससे गणपति जी बहुत प्रसन्न होते हैं और दोनों को अपने लोक में स्थान देते हैं।
गणेश पुराण में दूर्वा घास की एक और कथा
श्री विघ्नहर्ता को प्रिय दूर्वा घास के बारे में गणेश पुराण में एक और कथा मिलती है। इसके अनुसार एक बार बचपन में गणेश महाराज ने अनलासुर राक्षस को अपने गले में धारण कर लिया था। इसके बाद उनके गले में तकलीफ होने लगी तो उस गर्मी को शांत करने के लिए ऋषियों ने गणेश जी को 21 दूर्वा घास चढ़ाई। इससे श्री गणपति महाराज की गर्मी शांत हो गई। इसके बाद मान्यता है कि दूर्वा घास चढ़ाने से गणेश जी प्रसन्न होते हैं। यही वजह है कि भक्त दूर्वा घास चढ़ाकर विघ्नहर्ता को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं।
जब दूर्वा घास से मिट गई श्री गणेश जी की भूख
इसके अलावा गणेश पुराण में एक और कथा मिलती है कि एक बार श्री नारद मुनि गणपति जी को मिथिला नरेश जनक जी महाराज के अहंकार की कथा सुनाते हैं। वे बताते हैं कि जनक जी खुद को तीनों लोकों का स्वामी और रक्षक मानते हैं। इतना ही नहीं, इस रूप में वह स्वयं की प्रशंसा भी करते हैं। तब गणपति जी महाराज मिथिला नरेश के अहंकार को चूर करने के लिए पहुंचे। उन्होंने ब्राह्मण का वेश धारण किया और जनक जी महाराज के द्वार पर पहुंचे और कहा कि वह उनकी महिमा सुनकर आए हैं और बहुत दिनों से भूखे हैं। इसके बाद श्री जनक जी महाराज ने अपने सेवकों को आदेश दिया कि ब्राह्मण भगवान को जी भरकर भोजन कराएं। गणेश जी ने पूरे नगर का सारा भोजन खा लिया लेकिन उनकी भूख शांत नहीं हुई। तब महाराज जनक जी का अहंकार चूर हो गया। इसके बाद श्री गणेश जी ब्राह्मण का वेश धारण कर मिथिला के एक गरीब ब्राह्मण त्रिशिरस के द्वार पर पहुंचते हैं। जहां वह कहते हैं कि वह बहुत भूखा है, उसे भोजन कराएं ताकि उसकी भूख शांत हो जाए। इस पर ब्राह्मण त्रिशिरस की पत्नी विरोचना ने श्री गणेश जी महाराज को दूर्वा के अंकुर अर्पित किए। यही कारण है कि तभी से श्री गणेश जी महाराज को दूर्वा अवश्य अर्पित की जाती है। कहा जाता है कि इससे पार्वती पुत्र प्रसन्न होते हैं और भक्त पर सदैव अपनी कृपा बनाए रखते हैं।
कुबेर के खजाने से भी भारी है एक दूर्वा
गणेश जी को अर्पित की गई दूर्वा का महत्व इतना अधिक है कि कुबेर का खजाना भी इसके सामने कुछ नहीं कर सकता। ऐसा वर्णन गणेश पुराण की एक कथा में मिलता है। कथा के अनुसार जब कौंडिन्य की पत्नी आश्रया ने श्री गणेश जी को एक दूर्वा अर्पित की तो कुबेर का पूरा खजाना भी उसकी बराबरी नहीं कर सका। ऐसी है दूर्वा की अद्भुत महिमा। यही कारण है कि विघ्नहर्ता को प्रसन्न करने और उनकी कृपा पाने के लिए दूर्वा अर्पित करने की सदियों पुरानी परंपरा आज भी निभाई जाती है।