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तेजी से आ रहा बड़ा स्टेरॉयड, अगर पृथ्वी से टकराया तो होगा महाविनाश

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक नई स्टडी के जरिए बताया है कि शुक्र ग्रह के आसपास कई बड़े उल्कापिंड (Asteroids) छिपे हुए हैं, जो भविष्य में पृथ्वी के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं। ये उल्कापिंड इतने विशाल हैं कि यदि वे पृथ्वी से टकराए तो किसी बड़े शहर को....
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हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक नई स्टडी के जरिए बताया है कि शुक्र ग्रह के आसपास कई बड़े उल्कापिंड (Asteroids) छिपे हुए हैं, जो भविष्य में पृथ्वी के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं। ये उल्कापिंड इतने विशाल हैं कि यदि वे पृथ्वी से टकराए तो किसी बड़े शहर को पूरी तरह तबाह कर सकते हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक, ये उल्कापिंड सूरज की तेज चमक में छिपे होने के कारण धरती से देखना बेहद मुश्किल है।

शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंड क्या हैं?

शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंड वे अंतरिक्ष की चट्टानें हैं जो शुक्र ग्रह के साथ-साथ सूरज की परिक्रमा करती हैं, लेकिन शुक्र की कक्षा (ऑर्बिट) में नहीं घूमतीं। वर्तमान में वैज्ञानिकों को लगभग 20 ऐसे उल्कापिंड मिले हैं, जिनमें ट्रोजन उल्कापिंड (जो शुक्र के आगे या पीछे कक्षा में रहते हैं) और एक क्वासीमून (Quasi-moon) भी शामिल है। इनकी लंबाई 460 फीट यानी करीब 140 मीटर से ज्यादा है। यह उल्कापिंड मुख्यत: मंगल और बृहस्पति के बीच की मुख्य उल्कापिंड पट्टी से आए माने जाते हैं। पृथ्वी के भी पास ऐसे सह-कक्षीय उल्कापिंड मौजूद हैं, जिन पर वैज्ञानिक लगातार शोध कर रहे हैं।

पृथ्वी के लिए खतरा क्यों?

शुक्र ग्रह पृथ्वी का सबसे करीबी पड़ोसी ग्रह है, और इसकी नजदीकी दूरी लगभग 2.5 करोड़ मील (4 करोड़ किलोमीटर) होती है। शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंड आम तौर पर शुक्र के साथ रहते हैं, लेकिन यदि गुरुत्वाकर्षण बल के कारण उनकी कक्षा बदल जाती है, तो ये उल्कापिंड पृथ्वी के पास आ सकते हैं और यहां टकराने का खतरा पैदा कर सकते हैं। वैज्ञानिकों ने कंप्यूटर सिमुलेशन के जरिए 36,000 साल तक इन उल्कापिंडों की गति का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि कुछ उल्कापिंड कम विलक्षणता (low eccentricity) वाली कक्षा में हैं, जो उन्हें सूरज की चमक में छिपाए रखती है और इन्हें देखना मुश्किल बनाती है।

विलक्षणता क्या है?

विलक्षणता यह बताती है कि किसी उल्कापिंड या ग्रह की कक्षा कितनी गोल या लंबी है। यदि विलक्षणता 0 के करीब हो तो कक्षा पूरी तरह गोल होती है, और अधिक संख्या लंबी, अंडाकार कक्षा को दर्शाती है। शुक्र के ज्यादातर उल्कापिंड की विलक्षणता 0.38 से अधिक है, इसलिए वे पृथ्वी के करीब आते समय देखे जा सकते हैं। वहीं कम विलक्षणता वाले उल्कापिंड सूरज की चमक में छिपे रहते हैं।

क्या अभी तत्काल कोई खतरा है?

वैज्ञानिकों ने साफ किया है कि फिलहाल कोई भी ज्ञात शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंड जल्द ही पृथ्वी से टकराने वाला नहीं है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में “कुछ हफ्तों में टकराव” जैसा दावा गलत है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि इन उल्कापिंडों पर लगातार नजर रखना जरूरी है। उदाहरण के लिए, 2024 में 2024 YR4 नामक उल्कापिंड पर टकराव की 2.3% संभावना बताई गई थी, लेकिन बाद में यह संभावना पूरी तरह शून्य हो गई। इस प्रकार की निगरानी भविष्य में बहुत जरूरी है।

पृथ्वी को कैसे बचाया जा सकता है?

वैज्ञानिकों के मुताबिक, शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंडों को खोजने और ट्रैक करने के लिए हमें बेहतर तकनीक की जरूरत है। इसके लिए कुछ प्रस्तावित समाधान हैं:

  • नई वेधशालाएं: चिली में बनने वाली 'वेरा सी. रुबिन' वेधशाला, जो जुलाई 2025 में शुरू होगी, इन उल्कापिंडों को खोजने में मदद करेगी, हालांकि सूरज की चमक के कारण सभी उल्कापिंडों को देख पाना चुनौतीपूर्ण होगा।

  • शुक्र की कक्षा में टेलीस्कोप: वैज्ञानिक सुझाव दे रहे हैं कि शुक्र की कक्षा में एक विशेष टेलीस्कोप भेजा जाए, जो सूरज की चमक से दूर रहकर इन छिपे हुए उल्कापिंडों को बेहतर ढंग से देख सके।

  • उल्कापिंड डिफ्लेक्शन तकनीक: NASA का DART मिशन 2022 में सफल रहा, जिसमें एक मिशन ने उल्कापिंड डिमॉर्फोस से टकराकर उसकी कक्षा बदल दी। भविष्य में ऐसी तकनीकों से उल्कापिंडों को पृथ्वी से हटाया जा सकेगा।

  • स्वदेशी तकनीक: भारत के 'गगनयान' मिशन जैसी तकनीकें अंतरिक्ष निगरानी और उल्कापिंड खतरे से बचाव में मदद कर सकती हैं।

भारत पर गिरने पर क्या प्रभाव होगा?

यदि कोई बड़ा उल्कापिंड भारत के किसी घनी आबादी वाले क्षेत्र में गिरता है, तो भारी तबाही हो सकती है। वैज्ञानिक सिमुलेशन के अनुसार, 140 मीटर लंबा उल्कापिंड लगभग 2.2 से 3.4 किलोमीटर चौड़ा गड्ढा बना सकता है। इस टकराव से 410 मेगाटन TNT के बराबर ऊर्जा मुक्त होगी, जो हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम से लाखों गुना अधिक है। इसलिए वैज्ञानिक और सरकारी एजेंसियां इस तरह के खतरों की निगरानी और उनसे बचाव के लिए कदम उठा रही हैं।

निष्कर्ष

शुक्र के सह-कक्षीय उल्कापिंड भले ही अभी तत्काल खतरा न हों, लेकिन ये भविष्य में पृथ्वी के लिए गंभीर चुनौती बन सकते हैं। इसलिए समय रहते इन उल्कापिंडों की खोज, निगरानी और डिफ्लेक्शन तकनीकों का विकास जरूरी है। इसके लिए वैश्विक सहयोग और नई तकनीकें ही हमारी सुरक्षा की कुंजी होंगी।

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