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यूएनएससी ने पाकिस्तान के सुझावों को नजरअंदाज किया, फिर भी गाजा के लिए चुना गया! फंसे आसिम मुनीर

नई दिल्ली, 17 दिसंबर (आईएएनएस)। पाकिस्तान की सत्ता-राजनीति में शायद ही कोई दौर ऐसा आया हो जब सेना प्रमुख की शक्ति इतनी केंद्रित और निर्विवाद रही हो। सीडीएफ आसिम मुनीर आज न केवल सुरक्षा नीति, बल्कि आंतरिक राजनीति और विदेश नीति के निर्णायक चेहरा बन चुके हैं। लेकिन यही अभूतपूर्व शक्ति अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां एक गलत कदम पूरे तंत्र को हिला सकता है, और ये है गाजा के लिए प्रस्तावित 'इंटरनेशनल स्टैबिलाइजेशन फोर्स' की डिमांड।
यूएनएससी ने पाकिस्तान के सुझावों को नजरअंदाज किया, फिर भी गाजा के लिए चुना गया! फंसे आसिम मुनीर

नई दिल्ली, 17 दिसंबर (आईएएनएस)। पाकिस्तान की सत्ता-राजनीति में शायद ही कोई दौर ऐसा आया हो जब सेना प्रमुख की शक्ति इतनी केंद्रित और निर्विवाद रही हो। सीडीएफ आसिम मुनीर आज न केवल सुरक्षा नीति, बल्कि आंतरिक राजनीति और विदेश नीति के निर्णायक चेहरा बन चुके हैं। लेकिन यही अभूतपूर्व शक्ति अब एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां एक गलत कदम पूरे तंत्र को हिला सकता है, और ये है गाजा के लिए प्रस्तावित 'इंटरनेशनल स्टैबिलाइजेशन फोर्स' की डिमांड।

ये चर्चा में इसलिए है क्योंकि ये वही पाकिस्तान है जहां लोग सड़कों पर और मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म्स पर इजरायल और अमेरिका के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहे हैं और अब उन्हें ही गाजा में अहम भूमिका निभाने को कहा जा रहा है।

रॉयटर्स ने दो विश्वस्त सूत्रों से बताया कि फील्ड मार्शल आसिम मुनीर आने वाले हफ्तों में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से मिलने के लिए वाशिंगटन जा सकते हैं। छह महीनों में यह उनकी तीसरी मुलाकात होगी, जिसमें शायद गाजा फोर्स पर फोकस किया जाएगा। दावा है कि इन सूत्रों में से एक जनरल की आर्थिक कूटनीति में एक अहम भूमिका निभाता है।

कूटनीतिक हलकों में यह चर्चा कई दिनों से है कि वॉशिंगटन इस बहुराष्ट्रीय बल के लिए मुस्लिम-बहुल देशों से योगदान चाहता है—ताकि अभियान को वैधता मिले। इस सूची में पाकिस्तान स्वाभाविक रूप से शामिल दिखता है। सवाल यह नहीं कि पाकिस्तान सक्षम है या नहीं; सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान राजनीतिक और सामाजिक रूप से तैयार है? वो भी तब जब यूएन तक ने उसकी नहीं सुनी!

ट्रंप का ये फरमान पाकिस्तान पर तगड़ा दबाव डालने की कोशिश है। ऐसा इसलिए क्योंकि, जब नवंबर 2025 में यूनाइटेड नेशंस सिक्योरिटी काउंसिल ने अमेरिका के प्रस्ताव (ट्रंप की कॉम्प्रिहेंसिव प्लान टू एंड द गाजा कॉन्फ्लिक्ट) को पास किया तो पाकिस्तान—जो उस समय काउंसिल की अध्यक्षता कर रहा था – का जवाब विरोधाभासी था।

संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान के स्थायी प्रतिनिधि आसिम इफ्तिखार अहमद ने प्रस्ताव पेश करने के लिए अमेरिका को धन्यवाद दिया और इसके पक्ष में वोट दिया। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान नतीजे से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है और निराशा जताई कि पाकिस्तान के "कुछ महत्वपूर्ण सुझाव" (जैसे गाजा में कोई डेमोग्राफिक या टेरिटोरियल चेंज न हो, फिलिस्तीनियों को बायपास न किया जाए, इजरायली कब्जे का अंत और टू-स्टेट सॉल्यूशन का स्पष्ट जिक्र) अंतिम टेक्स्ट में शामिल नहीं किए गए हैं। हालांकि विश्लेषकों और खुद पाकिस्तानी मीडिया ने इसे मजबूरी और दिखावे का नाम दिया क्योंकि पाकिस्तान ने एक तरफ फिलिस्तीन के समर्थन का दावा किया तो दूसरी तरफ अमेरिकी प्लान को सपोर्ट करने का दिखावा भी किया!

अब आते हैं पाकिस्तान की घरेलू समस्याओं पर। इस देश के लिए गाजा महज एक अंतरराष्ट्रीय संकट नहीं, बल्कि वैचारिक पहचान से जुड़ा मुद्दा है। दशकों से फिलिस्तीन समर्थक रुख ने राजनीति, धर्म और जनभावना—तीनों को आकार दिया है। ऐसे में किसी भी सैन्य तैनाती को अगर अमेरिका-इजरायल एजेंडा से जोड़ा गया, तो वह सीधे घरेलू विस्फोट का कारण बन सकती है।

सैनिक भेजने का फैसला सैन्य-तकनीकी नहीं, राजनीतिक-भावनात्मक होगा—और यही सबसे खतरनाक संयोजन है।

आसिम मुनीर की ताकत का स्रोत राजनीति पर नियंत्रण, विपक्ष की कमजोरी, और संस्थानों का केंद्रीकरण—अब जोखिम में बदलता दिखता है। यदि फैसला लिया गया और विरोध भड़का, तो जिम्मेदारी किसी निर्वाचित सरकार पर नहीं, सीधे सेना प्रमुख पर आएगी। यह पाकिस्तान के लिए असामान्य स्थिति होगी, जहां सेना अक्सर परदे के पीछे रहकर निर्णयों का बोझ साझा करती रही है।

पाकिस्तान का अतीत बताता है कि विदेशी युद्धों में हिस्सेदारी—खासकर अमेरिकी रणनीतियों के साथ—अक्सर आंतरिक कट्टरता, हिंसा और संस्थागत क्षरण लेकर आई है। अफगानिस्तान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गाजा जैसे भावनात्मक मुद्दे पर वही गलती दोहराने का अर्थ होगा सार्वजनिक भरोसे को दांव पर लगाना।

अगर सेना का फ़ैसला जनता की भावना के विपरीत गया, तो क्या पहली बार टकराव ‘सड़क बनाम बैरक’ बन सकता है?

धार्मिक दल, विपक्ष और नागरिक समाज—तीनों इसे “पाकिस्तानी सैनिकों की कुर्बानी विदेशी दबाव में” बताने से नहीं चूकेंगे। सोशल मीडिया के युग में यह नैरेटिव तेजी से फैल सकता है।

--आईएएनएस

केआर/

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