Samachar Nama
×

यादों में दुष्यंत : 'मसान' की गुजरती रेल, शब्दों में थरथराता 'दिल', तड़प और पीड़ा के रचनाकार की कहानी

नई दिल्ली, 29 दिसंबर (आईएएनएस)। साल 2015 में बॉलीवुड की फिल्म 'मसान' रिलीज हुई। बनारस, आज के युवाओं के लिए वाराणसी, के बैकड्रॉप पर सेट इस फिल्म के हर संवाद, सीन और गाने लोगों के कानों के रास्ते दिल तक पहुंच गए। एक गाना है, 'तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।' यह गाना दुष्यंत कुमार की गजल से लिया गया, जिसने हर उम्र को अपना दीवाना बना लिया।
यादों में दुष्यंत : 'मसान' की गुजरती रेल, शब्दों में थरथराता 'दिल', तड़प और पीड़ा के रचनाकार की कहानी

नई दिल्ली, 29 दिसंबर (आईएएनएस)। साल 2015 में बॉलीवुड की फिल्म 'मसान' रिलीज हुई। बनारस, आज के युवाओं के लिए वाराणसी, के बैकड्रॉप पर सेट इस फिल्म के हर संवाद, सीन और गाने लोगों के कानों के रास्ते दिल तक पहुंच गए। एक गाना है, 'तू किसी रेल सी गुजरती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं।' यह गाना दुष्यंत कुमार की गजल से लिया गया, जिसने हर उम्र को अपना दीवाना बना लिया।

दुष्यंत कुमार, जिन्होंने अंधेरे में रोशनी देखने की हिम्मत दी और एक पत्थर को तबीयत से आसमान में सुराख करने के लिए उछालने की फितरत भी दी।

आज हम बात कर रहे हैं, उसी कवि, लेखक और गजलख्वां दुष्यंत कुमार की, जिन्होंने अपनी लेखनी से हर उम्र की नब्ज टटोली और उसे जीने की एक वजह भी दी।

'हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।' ये पंक्तियां सिर्फ शब्द नहीं हैं, ये आवाज हैं, संघर्ष हैं और उम्मीद हैं। दुष्यंत कुमार की गजलों ने आम आदमी की तड़प और उसकी पीड़ा को इतनी सटीकता से व्यक्त किया कि पढ़ते ही लगता है, जैसे वह दर्द आपके सामने जीवंत हो उठा हो। हिंदी गजल की दुनिया में उन्होंने न केवल भाषा और लहजे में नयापन लाया, बल्कि समाज की समस्याओं और आम आदमी की भावनाओं को भी कविता में जगह दी।

पहले गजल की परंपरा फारसी और उर्दू में पनपी थी, लेकिन दुष्यंत कुमार ने 1970 के दशक के बाद इसे हिंदी और उर्दू के मिश्रित रंग में एक नई पहचान दी। उन्होंने गजल को केवल प्रेम और रोमांस तक सीमित नहीं रखा। उन्होंने उसमें समाज की हकीकत, आम आदमी की पीड़ा और विरोध को जगह दी।

दुष्यंत कुमार का जन्म 1 सितंबर, 1933 को बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव में हुआ। शुरुआती जीवन में वह अपने नाम के आगे 'परदेसी' उपनाम जोड़ते थे, लेकिन बाद में इसे छोड़ दिया। उनकी लेखनी ने कम उम्र से ही प्रभावित किया। 24 साल की उम्र में उनका पहला काव्य संग्रह 'सूर्य का स्वागत' प्रकाशित हुआ। इसके माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में अपनी मौजूदगी दर्ज कर दी। लेकिन, उनका असली योगदान हिंदी गजल में आया जब 1975 में उनका गजल संग्रह 'साए में धूप' प्रकाशित हुआ। यह संग्रह हिंदी गजल के इतिहास में मील का पत्थर बन गया।

दुष्यंत कुमार ने केवल 52 गजलें ही लिखीं। उनकी गजलों में जनसामान्य से जुड़े सरोकार, पीड़ा और संघर्ष इतनी छटपटाहट और सजीवता के साथ पेश किए गए कि वे आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं।

दुष्यंत कुमार ने साहित्य को केवल शब्दों तक सीमित नहीं रखा। वह सामाजिक और राजनीतिक चेतना के कवि भी थे। उन्होंने आपातकाल का पुरजोर विरोध किया। उनकी कविता 'एक बूढ़ा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अंधेरी कोठरी में एक रोशनदान है।'

उनका साहित्यिक दृष्टिकोण गजल की परंपरा से गहरा जुड़ा था। उनके शब्दों में हमेशा समाज की असमानता और शोषण के खिलाफ मुखरता थी। दुष्यंत ने दिखाया कि गजल केवल मोहब्बत की भाषा नहीं, बल्कि विरोध, पीड़ा और चेतना का माध्यम भी हो सकती है।

30 दिसंबर, 1975 को दुष्यंत कुमार केवल 44 साल की उम्र में इस दुनिया से चले गए, लेकिन उनकी कविताएं और गजल आज भी जिंदा हैं। उनकी गजलों में न केवल कला और भाषा की खूबसूरती है, बल्कि एक युग की पीड़ा, विरोध और आम आदमी की आवाज भी है। सड़कों से महफिलों और संसद तक, उनके शब्द आज भी गूंजते हैं।

--आईएएनएस

पीआईएम/एबीएम

Share this story

Tags