एक गीत जिसने रात को 'पवित्र' बना दिया, ‘साइलेंट नाइट’ का ऐतिहासिक सफर
नई दिल्ली, 23 दिसंबर (आईएएनएस)। 1818 की क्रिसमस ईव पर (24 दिसंबर) की जर्मनी और ऑस्ट्रिया की सीमा से लगे ओबरनडोर्फ नामक छोटे से कस्बे के सेंट निकोलस चर्च में कुछ ऐसा हुआ, जिसने क्रिसमस के इतिहास को हमेशा के लिए बदल दिया। इसी दिन पहली बार प्रसिद्ध क्रिसमस कैरल “साइलेंट नाइट” (स्टिले नाख्त) को सार्वजनिक तौर पर गाया गया। उस समय किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि यह सरल-सा गीत आने वाले दो सौ वर्षों में दुनिया के सबसे अधिक गाए जाने वाले धार्मिक गीतों में शामिल हो जाएगा।
इस गीत के शब्द युवा पादरी जोसेफ मोहर ने लिखे थे, जबकि इसकी मधुर धुन चर्च के ऑर्गनिस्ट और शिक्षक फ़्रांज़ ग्रुबर ने तैयार की थी। कहा जाता है कि उस वर्ष चर्च का ऑर्गन खराब हो गया था, इसलिए गीत को पहली बार गिटार की संगत में गाया गया। क्रिसमस ईव की उस रात चर्च में मौजूद साधारण लोगों के लिए यह कोई भव्य संगीत कार्यक्रम नहीं था, बल्कि ईसा मसीह के जन्म की शांति, करुणा और आशा को व्यक्त करने का एक सहज प्रयास था।
“साइलेंट नाइट” की खासियत इसकी सादगी में छिपी है। इसके बोल न तो जटिल धर्मशास्त्र की बातें करते हैं और न ही किसी विशेष संप्रदाय तक सीमित हैं। यही कारण है कि यह गीत जल्द ही स्थानीय चर्चों से निकलकर यूरोप के अलग-अलग हिस्सों में फैल गया। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यह कई भाषाओं में अनुवादित हो चुका था और मिशनरियों व गायन मंडलियों के माध्यम से अमेरिका, एशिया और अफ्रीका तक पहुँच गया।
इस गीत के ऐतिहासिक महत्व पर कई विद्वानों ने विस्तार से लिखा है। “साइलेंट नाइट: द स्टोरी ऑफ सॉन्ग” (लेखक: जॉन फ्रांसेस) और “स्टिले नाख्त :जिशेटे उंद बीदेतुंग आइनेस वाइख्तलाइडीस” जैसी पुस्तकों में बताया गया है कि कैसे एक छोटे से सीमावर्ती कस्बे में जन्मा यह गीत विश्व सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा बन गया। वहीं, संगीत इतिहास पर आधारित पुस्तक “ए हिस्ट्री ऑफ क्रिसमस म्यूजिक” में ‘साइलेंट नाइट’ को उस दौर का प्रतीक बताया गया है, जब धार्मिक संगीत आम लोगों की भावनाओं से सीधे जुड़ने लगा।
आज ‘साइलेंट नाइट’ 300 से अधिक भाषाओं और बोलियों में गाया जाता है। संयुक्त राष्ट्र की सांस्कृतिक संस्था यूनेस्को ने भी इसे अमूर्त सांस्कृतिक विरासत के रूप में मान्यता दी है। हर साल 24 दिसंबर की रात, जब दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में मोमबत्तियां जलती हैं और चर्चों में घंटियां बजती हैं, तो कहीं न कहीं यह गीत जरूर सुनाई देता है—मानो 1818 की वह शांत रात आज भी जीवित हो।
--आईएएनएस
केआर/

