Subhadra Kumari Chauhan Poems: मशहूर कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की लिखी कुछ सबसे बेहतरीन कवितायेँ
सुभद्रा कुमारी चौहान का जन्म 16 अगस्त 1904 को इलाहाबाद के पास निहालपुर गांव में हुआ था. सुभद्रा बचपन चंचल और कुशाग्र होने के साथ विद्रोही स्वभाव की थी. स्कूल के काम की कविताएं तो वह घर से आते-जाते तांगे में लिख लेती थी. इसी कविता की रचना करने के कारण से स्कूल में उसकी बड़ी प्रसिद्धि थी. 1913 में नौ वर्ष की आयु में नीम के पेड़ पर लिखी सुभद्रा की पहली कविता प्रयाग से निकलने वाली पत्रिका ‘मर्यादा’ में प्रकाशित हुई थी. यह कविता ‘सुभद्राकुंवरि’ के नाम से छपी.
1919 ई. में उनका विवाह ठाकुर लक्ष्मण सिंह से हुआ, विवाह के पश्चात वे जबलपुर में रहने लगीं. 1921 में गांधी जी के असहयोग आंदोलन में भाग लेने वाली वह प्रथम महिला थीं. उन्होंने जेलों में ही जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण वर्ष गुजारे. पहला काव्य-संग्रह ‘मुकुल’ 1930 में प्रकाशित हुआ. इनकी चुनी हुई कविताएं ‘त्रिधारा’ में प्रकाशित हुई हैं. ‘झांसी की रानी’ इनकी बहुचर्चित रचना है. राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और अनवरत जेल यात्रा के बावजूद उनके तीन कहानी संग्रह प्रकाशित हुए- ‘बिखरे मोती, उन्मादिनी, सीधे-सादे चित्र. इन कथा संग्रहों में कुल 38 कहानियां संग्रहित हैं, तो आईये आज आपको पढ़ाते है इनकी लिखी कुछ सबसे बेहतरीन कवितायेँ....
जब मैं आँगन में पहुँची,
पूजा का थाल सजाए।
शिव जी की तरह दिखे वे,
बैठे थे ध्यान लगाए॥जिन चरणों के पूजन को,
यह हृदय विकल हो जाता।
मैं समझ न पाई, वह भी,
है किसका ध्यान लगाता?
मैं सन्मुख ही जा बैठी,कुछ चिंतित सी घबराई।
यह किसके आराधक हैं,
मन में व्याकुलता छाई॥
मैं इन्हें पूजती निशि-दिन,
ये किसका ध्यान लगाते?हे विधि! कैसी छलना है,
हैं कैसे दृश्य दिखाते??
टूटी समाधि इतने ही में,
नेत्र उन्होंने खोले।
लख मुझे सामने हँस करमीठे स्वर में वे बोले॥
फल गई साधना मेरी,
तुम आईं आज यहाँ पर।
उनकी मंजुल-छाया में
भ्रम रहता भला कहाँ पर॥अपनी भूलों पर मन यह
जाने कितना पछताया।
संकोच सहित चरणों पर,
जो कुछ था वही चढ़ाया॥
शैशव के सुन्दर प्रभात का
मैंने नव विकास देखा।
यौवन की मादक लाली में
जीवन का हुलास देखा।।
जग-झंझा-झकोर मेंआशा-लतिका का विलास देखा।
आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का
क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।।
जीवन में न निराशा मुझको
कभी रुलाने को आयी।
जग झूठा है यह विरक्ति भी
नहीं सिखाने को आयी।।
अरिदल की पहिचान कराने
नहीं घृणा आने पायी।
नहीं अशान्ति हृदय तक अपनी
भीषणता लाने पायी।।
अपने बिखरे भावों का मैं,
गूँथ अटपटा सा यह हार।
चली चढ़ाने उन चरणों पर,
अपने हिय का संचित प्यार॥
डर था कहीं उपस्थिति मेरी,उनकी कुछ घड़ियाँ बहुमूल्य।
नष्ट न कर दे, फिर क्या होगा,
मेरे इन भावों का मूल्य?
संकोचों में डूबी मैं जब,
पहुँची उनके आँगन में।कहीं उपेक्षा करें न मेरी,
अकुलाई सी थी मन में।
किंतु अरे यह क्या,
इतना आदर, इतनी करुणा, सम्मान?
प्रथम दृष्टि में ही दे डाला,तुमने मुझे अहो मतिमान!
मैं अपने झीने आँचल में,
इस अपार करुणा का भार।
कैसे भला सँभाल सकूँगी,
उनका वह स्नेह अपार।लख महानता उनकी पल-पल,
देख रही हूँ अपनी ओर।
मेरे लिए बहुत थी केवल,
उनकी तो करुणा की कोर।
इस तरह उपेक्षा मेरी,
क्यों करते हो मतवाले!
आशा के कितने अंकुर,
मैंने हैं उर में पाले॥
विश्वास-वारि से उनको,मैंने है सींच बढ़ाए।
निर्मल निकुंज में मन के,
रहती हूँ सदा छिपाए॥
मेरी साँसों की लू से,
कुछ आँच न उनमें आए।मेरे अंतर की ज्वाला,
उनको न कभी झुलसाए॥
कितने प्रयत्न से उनको,
मैं हृदय-नीड़ में अपने,
बढ़ते लख खुश होती थी,देखा करती थी सपने॥
इस भांति उपेक्षा मेरी,
करके मेरी अवहेला,
तुमने आशा की कलियाँ
मसलीं खिलने की बेला॥
कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने।
पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥
तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने।
पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥
उन्हें सहसा निहारा सामने, संकोच हो आया।मुँदीं आँखें सहज ही लाज से नीचे झुकी थी मैं॥
कहूँ क्या प्राणधन से यह हृदय में सोच हो आया।
वही कुछ बोल दें पहले, प्रतीक्षा में रुकी थी मैं॥
अचानक ध्यान पूजा का हुआ, झट आँख जो खोली।
नहीं देखा उन्हें, बस सामने सूनी कुटी दीखी॥हृदयधन चल दिए, मैं लाज से उनसे नहीं बोली।
गया सर्वस्व, अपने आपको दूनी लुटी दीखी॥
तुम कहते हो – मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है।
मैं कहती हूँ – इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है॥
सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे।
बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे॥1॥ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो।
यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो॥
कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है।
छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है॥2॥हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है।
पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है॥
जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है।
छूटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है॥3॥मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है।
जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है॥
मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में।
जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में॥4॥मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ।
वह मेरी प्यारी बिटिया है, मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ॥
तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान।
जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान॥5॥
तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’?
मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो!
’जा…’ कहते रुकती है जबान,
किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!सेवा करना था, जहाँ मुझे
कुछ भक्ति-भाव दरसाना था।
उन कृपा-कटाक्षों का बदला,
बलि होकर जहाँ चुकाना था॥मैं सदा रूठती ही आई,
प्रिय! तुम्हें न मैंने पहचाना।
वह मान बाण-सा चुभता है,
अब देख तुम्हारा यह जाना॥

