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Subhadra Kumari Chauhan Poems: कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की मशहूर कवितायेँ जिनमें दिखते हैं जीवन के रंग 

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16 अगस्त 1904 के दिन उत्तर प्रदेश, इलाहाबाद के पास निहालपुर नामक गांव में सुभद्रा कुमारी का जन्म नाग पंचमी के दिन हुआ था। उनके पिता का नाम ठाकुर रामनाथ सिंह था, जो कि एक जमींदार थे। उन्होंने बचपन से ही समुद्रा को पढ़ाई लिखाई के लिए बेहद प्रोत्साहन दिया था। उनकी माता एक गृहणी थी। सुभद्रा कुमारी का बचपन बड़े ही स्वच्छ और उत्कृष्ट वातावरण में बीता। सुभद्रा कुमारी चौहान ने बेहद कम उम्र में ही अपनी प्रतिभा को उजागर करना शुरू कर दिया था। जब वह सिर्फ 9 वर्ष की थी, तब उन्होंने अपना पहला कविता नीम के पेड़ पर रचा था, जिसे उनके पिता ने पब्लिश भी करवाया। उनके पिता ने कम उम्र में अपनी बेटी से इतनी ज्यादा महत्वकांक्षा नहीं की थी, लेकिन बाल्यावस्था में सुभद्रा कुमारी की प्रतिभा को देखकर वे बहुत प्रसन्न होते थे। उनके पिता भले ही एक जमींदार थे और उन्होंने अधिक शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, लेकिन फिर भी शिक्षा के प्रति वे बेहद समर्पित थे। सुभद्रा कुमारी अपनी कुल चार बहने और दो भाई में से सबसे तेजस्वी और प्यारी थी। जिसकी वजह से उन्हें बहुत लाड़ प्यार मिलता था।

उस समय ‘मर्यादा’ नामक पत्रिका में सुभद्रा कुमारी चौहान का ‘नीम’ के पेड़ पर लिखी गई कविता छापी गई इसके बाद वे एकाएक अपने पूरे विद्यालय में प्रख्यात हो गई। वह पढ़ाई लिखाई में सबसे आगे रहती थी, जिसके कारण अपने सभी शिक्षकों की भी वे सबसे प्रिय छात्रा थी। कविताएं की रचना का शौक रखने वाली सुभद्रा कुमारी मजबूरी वश नवी कक्षा तक ही अपनी शिक्षा पूरी कर पाई थी। पढ़ाई लिखाई छुटने के बाद भी उन्होंने हमेशा  कविताएं लिखने का दौर चालू रखा, जिसका सिलसिला ताउम्र चला। हिंदी साहित्य में बेजोड़ पदवी रखने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएं उनके जीवन की तरह ही बेहद स्पष्ट है। कविताएं लिखने का दौर बहुत कम उम्र में ही प्रारंभ हो गया था। जब सुभद्रा कुमारी छोटी बच्ची थी, तब वे कविताओं की नई पंक्तियां किसी खेल की तरह झट से लिख देती। सुभद्रा जी की प्रतिभा से हर कोई भलीभांति परिचित है, तो आईये आज आपको मिलाएं इनकी लिखी कुछ सबसे मशहूर कविताओं से...

झिलमिल तारे – सुभद्रा कुमारी चौहान

कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं
 झिलमिल-झिलमिल तारे?
धीमे प्रकाश में कैसे तुम
 चमक रहे मन मारे।।

 अपलक आँखों से कह दो
 किस ओर निहारा करते?
किस प्रेयसि पर तुम अपनी
 मुक्तावलि वारा करते

करते हो अमिट प्रतीक्षा,
तुम कभी न विचलित होते।
 नीरव रजनी अंचल में
 तुम कभी न छिप कर सोते।।

 जब निशा प्रिया से मिलने,
दिनकर निवेश में जाते।
 नभ के सूने आँगन में
 तुम धीरे-धीरे आते।।

 विधुरा से कह दो मन की,
लज्जा की जाली खोलो।
 क्या तुम भी विरह विकल हो,
हे तारे कुछ तो बोलो।

 मैं भी वियोगिनी मुझसे
 फिर कैसी लज्जा प्यारे?
कह दो अपनी बीती को
 हे झिलमिल-झिलमिल तारे

परिचय – सुभद्रा कुमारी चौहान

क्या कहते हो कुछ लिख दूँ मैं
 ललित-कलित कविताएं।
 चाहो तो चित्रित कर दूँ
जीवन की करुण कथाएं॥

सूना कवि-हृदय पड़ा है,
इसमें साहित्य नहीं है।
 इस लुटे हुए जीवन में,
अब तो लालित्य नहीं है॥

 मेरे प्राणों का सौदा,
करती अंतर की ज्वाला।
 बेसुध-सी करती जाती,
क्षण-क्षण वियोग की हाला॥

 नीरस-सा होता जाता,
जाने क्यों मेरा जीवन।
 भूली-भूली सी फिरती,
लेकर यह खोया-सा मन॥

 कैसे जीवन की प्याली टूटी,
मधु रहा न बाकी?
कैसे छुट गया अचानक
मेरा मतवाला साकी??

सुध में मेरे आते ही
मेरा छिप गया सुनहला सपना।
 खो गया कहाँ पर जाने?
जीवन का वैभव अपना॥
 क्यों कहते हो लिखने को,

पढ़ लो आँखों में सहृदय।
 मेरी सब मौन व्यथाएं,
मेरी पीड़ा का परिचय॥

पानी और धूप – सुभद्रा कुमारी चौहान

अभी अभी थी धूप, बरसने
लगा कहाँ से यह पानी
 किसने फोड़ घड़े बादल के
 की है इतनी शैतानी।
 सूरज ने क्‍यों बंद कर लिया

 अपने घर का दरवाजा़
उसकी माँ ने भी क्‍या उसको
 बुला लिया कहकर आजा।
 ज़ोर-ज़ोर से गरज रहे हैं

 बादल हैं किसके काका
 किसको डाँट रहे हैं, किसने
 कहना नहीं सुना माँ का।
 बिजली के आँगन में अम्‍माँ

 चलती है कितनी तलवार
 कैसी चमक रही है फिर भी
क्‍यों ख़ाली जाते हैं वार।
 क्‍या अब तक तलवार चलाना

 माँ वे सीख नहीं पाए
 इसीलिए क्‍या आज सीखने
 आसमान पर हैं आए।
 एक बार भी माँ यदि मुझको

 बिजली के घर जाने दो
 उसके बच्‍चों को तलवार
 चलाना सिखला आने दो।
 खुश होकर तब बिजली देगी

 मुझे चमकती सी तलवार
 तब माँ कर न कोई सकेगा
 अपने ऊपर अत्‍याचार।
 पुलिसमैन अपने काका को

 फिर न पकड़ने आएँगे
 देखेंगे तलवार दूर से ही
 वे सब डर जाएँगे।
 अगर चाहती हो माँ काका

 जाएँ अब न जेलखाना
 तो फिर बिजली के घर मुझको
 तुम जल्‍दी से पहुँचाना।
काका जेल न जाएँगे अब

 तूझे मँगा दूँगी तलवार
 पर बिजली के घर जाने का
अब मत करना कभी विचार।

पूछो – सुभद्रा कुमारी चौहान

विफल प्रयत्न हुए सारे,
मैं हारी, निष्ठुरता जीती।
अरे न पूछो, कह न सकूँगी,
तुमसे मैं अपनी बीती॥

 नहीं मानते हो तो जा
 उन मुकुलित कलियों से पूछो।
अथवा विरह विकल घायल सी
 भ्रमरावलियों से पूछो॥

 जो माली के निठुर करों से
 असमय में दी गईं मरोड़।
 जिनका जर्जर हृदय विकल है,
प्रेमी मधुप-वृंद को छोड़॥

 सिंधु-प्रेयसी सरिता से तुम
 जाके पूछो मेरा हाल।
 जिसे मिलन-पथ पर रोका हो,
कहीं किसी ने बाधा डाल॥

नीम – सुभद्रा कुमारी चौहान

सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।
 तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥
ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।
निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥

 हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।
 उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥
 नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।
 कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥

 तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।
 तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥
 है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।
 ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥

 तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥
 तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।
इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥
 प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।

 जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥
 तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।
 निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥

प्रथम दर्शन – सुभद्रा कुमारी चौहान

प्रथम जब उनके दर्शन हुए,
हठीली आँखें अड़ ही गईं।
 बिना परिचय के एकाएक
 हृदय में उलझन पड़ ही गई॥

 मूँदने पर भी दोनों नेत्र,
खड़े दिखते सम्मुख साकार।
 पुतलियों में उनकी छवि श्याम
 मोहिनी, जीवित जड़ ही गई॥

 भूल जाने को उनकी याद,
किए कितने ही तो उपचार।
 किंतु उनकी वह मंजुल-मूर्ति
 छाप-सी दिल पर पड़ ही गई॥

प्रभु तुम मेरे मन की जानो – सुभद्रा कुमारी चौहान

मैं अछूत हूँ, मंदिर में आने का मुझको अधिकार नहीं है।
 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥
 प्यार असीम, अमिट है, फिर भी पास तुम्हारे आ न सकूँगी।
 यह अपनी छोटी सी पूजा, चरणों तक पहुँचा न सकूँगी॥

 इसीलिए इस अंधकार में, मैं छिपती-छिपती आई हूँ।
तेरे चरणों में खो जाऊँ, इतना व्याकुल मन लाई हूँ॥
तुम देखो पहिचान सको तो तुम मेरे मन को पहिचानो।
जग न भले ही समझे, मेरे प्रभु! मेरे मन की जानो॥

 मेरा भी मन होता है, मैं पूजूँ तुमको, फूल चढ़ाऊँ।
 और चरण-रज लेने को मैं चरणों के नीचे बिछ जाऊँ॥
 मुझको भी अधिकार मिले वह, जो सबको अधिकार मिला है।
मुझको प्यार मिले, जो सबको देव! तुम्हारा प्यार मिला है॥

 तुम सबके भगवान, कहो मंदिर में भेद-भाव कैसा?
हे मेरे पाषाण! पसीजो, बोलो क्यों होता ऐसा?
मैं गरीबिनी, किसी तरह से पूजा का सामान जुटाती।
 बड़ी साध से तुझे पूजने, मंदिर के द्वारे तक आती॥

 कह देता है किंतु पुजारी, यह तेरा भगवान नहीं है।
 दूर कहीं मंदिर अछूत का और दूर भगवान कहीं है॥
 मैं सुनती हूँ, जल उठती हूँ, मन में यह विद्रोही ज्वाला।
 यह कठोरता, ईश्वर को भी जिसने टूक-टूक कर डाला॥

यह निर्मम समाज का बंधन, और अधिक अब सह न सकूँगी।
यह झूठा विश्वास, प्रतिष्ठा झूठी, इसमें रह न सकूँगी॥
 ईश्वर भी दो हैं, यह मानूँ, मन मेरा तैयार नहीं है।
 किंतु देवता यह न समझना, तुम पर मेरा प्यार नहीं है॥

 मेरा भी मन है जिसमें अनुराग भरा है, प्यार भरा है।
जग में कहीं बरस जाने को स्नेह और सत्कार भरा है॥
 वही स्नेह, सत्कार, प्यार मैं आज तुम्हें देने आई हूँ।
 और इतना तुमसे आश्वासन, मेरे प्रभु! लेने आई हूँ॥

 तुम कह दो, तुमको उनकी इन बातों पर विश्वास नहीं है।
 छुत-अछूत, धनी-निर्धन का भेद तुम्हारे पास नहीं है॥

प्रतीक्षा – सुभद्रा कुमारी चौहान

बिछा प्रतीक्षा-पथ पर चिंतित
 नयनों के मदु मुक्ता-जाल।
 उनमें जाने कितनी ही
 अभिलाषाओं के पल्लव पाल॥

 बिता दिए मैंने कितने ही
 व्याकुल दिन, अकुलाई रात।
नीरस नैन हुए कब करके
उमड़े आँसू की बरसात॥

 मैं सुदूर पथ के कलरव में,
सुन लेने को प्रिय की बात।
 फिरती विकल बावली-सी
सहती अपवादों के आघात॥

 किंतु न देखा उन्हें अभी तक
 इन ललचाई आँखों ने।
 संकोचों में लुटा दिया
सब कुछ, सकुचाई आँखों ने॥

 अब मोती के जाल बिछाकर,
गिनतीं हैं नभ के तारे।
इनकी प्यास बुझाने को सखि!
आएंगे क्या फिर प्यारे?

प्रियतम से – सुभद्रा कुमारी चौहान

बहुत दिनों तक हुई परीक्षा
अब रूखा व्यवहार न हो।
अजी, बोल तो लिया करो तुम
 चाहे मुझ पर प्यार न हो॥

 जरा जरा सी बातों पर
मत रूठो मेरे अभिमानी।
 लो प्रसन्न हो जाओ
 ग़लती मैंने अपनी सब मानी॥

 मैं भूलों की भरी पिटारी
 और दया के तुम आगार।
सदा दिखाई दो तुम हँसते
चाहे मुझ से करो न प्यार॥

फूल के प्रति – सुभद्रा कुमारी चौहान

डाल पर के मुरझाए फूल!
हृदय में मत कर वृथा गुमान।
 नहीं है सुमन कुंज में अभी
 इसी से है तेरा सम्मान॥

 मधुप जो करते अनुनय विनय
बने तेरे चरणों के दास।
नई कलियों को खिलती देख
 नहीं आवेंगे तेरे पास॥

 सहेगा कैसे वह अपमान?
उठेगी वृथा हृदय में शूल।
 भुलावा है, मत करना गर्व
 डाल पर के मुरझाए फूल॥

मेरी टेक – सुभद्रा कुमारी चौहान

निर्धन हों धनवान, परिश्रम उनका धन हो।
निर्बल हों बलवान, सत्यमय उनका मन हो॥
हों स्वाधीन ग़ुलाम, हृदय में अपनापन हो।
 इसी आन पर कर्मवीर तेरा जीवन हो॥

 तो, स्वागत सौ बार
करूँ आदर से तेरा।
 आ, कर दे उद्धार,
मिटे अंधेर-अंधेरा॥

भ्रम – सुभद्रा कुमारी चौहान

देवता थे वे, हुए दर्शन, अलौकिक रूप था।
देवता थे, मधुर सम्मोहन स्वरूप अनूप था॥

 देवता थे, देखते ही बन गई थी भक्त मैं।
हो गई उस रूपलीला पर अटल आसक्त मैं॥

 देर क्या थी? यह मनोमंदिर यहाँ तैयार था।
 वे पधारे, यह अखिल जीवन बना त्यौहार था॥

झाँकियों की धूम थी, जगमग हुआ संसार था।
 सो गई सुख नींद में, आनंद अपरंपार था॥

 किंतु उठ कर देखती हूँ, अंत है जो पूर्ति थी।
 मैं जिसे समझे हुए थी देवता, वह मूर्ति थी॥

मुरझाया फूल – सुभद्रा कुमारी चौहान

यह मुरझाया हुआ फूल है,
इसका हृदय दुखाना मत।
 स्वयं बिखरने वाली इसकी
 पंखड़ियाँ बिखराना मत॥

 गुजरो अगर पास से इसके
 इसे चोट पहुँचाना मत।
जीवन की अंतिम घड़ियों में
 देखो, इसे रुलाना मत॥

 अगर हो सके तो ठंडी
 बूँदें टपका देना प्यारे!
जल न जाए संतप्त-हृदय
शीतलता ला देना प्यारे!!

मेरा गीत – सुभद्रा कुमारी चौहान

जब अंतस्तल रोता है,
कैसे कुछ तुम्हें सुनाऊँ?
इन टूटे से तारों पर,
मैं कौन तराना गाऊँ??

सुन लो संगीत सलोने,
मेरे हिय की धड़कन में।
कितना मधु-मिश्रित रस है,
देखो मेरी तड़पन में॥

 यदि एक बार सुन लोगे,
तुम मेरा करुण तराना।
हे रसिक! सुनोगे कैसे?
फिर और किसी का गाना॥

 कितना उन्माद भरा है,
कितना सुख इस रोने में?
उनकी तस्वीर छिपी है,
अंतस्तल के कोने में॥

 मैं आँसू की जयमाला,
प्रतिपल उनको पहनाती।
 जपती हूँ नाम निरंतर,
रोती हूँ अथवा गाती॥

मेरे पथिक – सुभद्रा कुमारी चौहान

हठीले मेरे भोले पथिक!
किधर जाते हो आकस्मात।
अरे क्षण भर रुक जाओ यहाँ,
सोच तो लो आगे की बात॥

 यहाँ के घात और प्रतिघात,
तुम्हारा सरस हृदय सुकुमार।
 सहेगा कैसे? बोलो पथिक!
सदा जिसने पाया है प्यार॥

 जहाँ पद-पद पर बाधा खड़ी,
निराशा का पहिरे परिधान।
 लांछना डरवाएगी वहाँ,
हाथ में लेकर कठिन कृपाण॥

 चलेगी अपवादों की लूह,
झुलस जावेगा कोमल गात।
 विकलता के पलने में झूल,
बिताओगे आँखों में रात॥

 विदा होगी जीवन की शांति,
मिलेगी चिर-सहचरी अशांति।
 भूल मत जाओ मेरे पथिक,
भुलावा देती तुमको भ्रांति॥

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