Sarveshwar Dayal Saxena Poem: हिंदी के प्रसिद्ध कवि सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविता- खूंटी पर कोट की तरह, एक अरसे से मैं टंगा हूं
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना संवेदनशील कवि थे. अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ के कवि के रूप में सर्वेश्वर दयाल को अलग पहचान मिली. उन्होंने लेखन की शुरूआत कहानी से की फिर कविता में आए. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने पराग के संपादक के रूप में हिंदी बाल पत्रकारिता को एक नया शिल्प एवं आयाम दिया.
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (Sarveshwar Dayal Saxena) का जन्म 15 सितम्बर 1927 को और मृत्यु 23 सितम्बर 1983 को हुई थी। ये प्रसिद्ध कवि एवं साहित्यकार थे। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 'तीसरे सप्तक' के महत्वपूर्ण कवियों में से एक थे। कविता के अतिरिक्त उन्होंने कहानी, नाटक और बाल साहित्य भी रचा। उनकी रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुआ। आकाशवाणी में सहायक निर्माता दिनमान के उपसंपादक तथा पराग के संपादक रहे। यद्यपि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का साहित्यिक जीवन काव्य से प्रारंभ हुआ तथापि ‘चरचे और चरखे’ स्तम्भ में दिनमान में छपे आपके लेख विशेष लोकप्रिय रहे। सन 1983 में कविता संग्रह ‘खूँटियों पर टंगे लोग’ के लिए सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाजा गया, तो आईये आज आपको पढ़ाएं इसकी मशहूर कविता खूंटी पर कोट की तरह, एक अरसे से मैं टंगा हूं...
खूंटी पर कोट की तरह
एक अरसे से मैं टंगा हूं
कहां चला गया
मुझे पहन कर सार्थक करने वाला?धूल पर धूल
इस कदर जमती जा रही है
कि अब मैं खुद
अपना रंग भूल गया हूं.लटकी हैं बाहें
और सिकुड़ी है छाती
उनसे जुड़ा एक ताप
एक सम्पूर्ण तन होने का अहसास
मेरी रगों में अब नहीं है.खुली खिड़की से देखता रहता हूं मैं
बाहर एक पेड़
रंग बदलता
चिड़ियों से झनझनाता
और हवा में झूमता:
मैं भी हिलता हूं
बस हिलता हूं
दीवार से रगड़ खाते रहने के लिए.एक अरसा हुआ
हां, एक लम्बा अरसा
जब उसने चुपचाप दरवाजा बन्द किया
और बिना मेरी ओर देखे, कुछ बोले
बाहर भारी कदम रखता चला गया—‘अब तुम मुक्त हो
अकेले कमरे में मुक्त
किसी की शोभा या रक्षा
बनने से मुक्त
सर्दी, गर्मी, बरसात, बर्फ़,
झेलने से मुक्त
दूसरों के लिए की जाने वाली
हर यात्रा से मुक्त
अपनी जेब और अपनी बटन के
अपने कालर और अपनी आस्तीन के
आप मालिक
अब तुम मुक्त हो, आजाद—
पूरी तरह आजाद—अपने लिए.’खूंटी पर एक अरसे से टंगा
कमरे की खामोशी का यह गीत
मैं हर लम्हा सुनता हूं
और एक ऐसी कैद का अनुभव
करते—करते संज्ञाहीन होता जा रहा हूं
जो सलीब् अपनी कीलों से लिखती है.मुझे यह मुक्ति नहीं चाहिए
अपने लिए आजाद हो जाने से बेहतर है
अपनों के लिए गुलाम बने रहना.मुझे एक सीना चाहिए
दो सुडौल बांहें
जिनसे अपने सीने और बांहों को जोड़ कर
मैं सार्थक हो सकूं
बाहर निकल सकूं
अपनी और उसकी इच्छा को एक कर सकूं
एक ही लड़ाई लड़ सकूं
और पैबन्द और थिगलियों को अंगीकार करता
एक दिन जर्जर होकर
समाप्त हो सकूं.उसकी हर चोट मेरी हो
उसका हर घाव पहले मैं झेलूं
उसका हर संघर्ष मेरा हो
मैं उसके लिए होऊं
इतना ही मेरा होना हो.खूंटी पर एक अरसे से टंगे—टंगे
मैं कोट से
अपना कफ़न बनता जा रहा हूं.कहां हैं काली आंधियां?
सब कुछ तहस—नहस कर देने वाले
भूकम्प कहां हैं?
मैं इस दीवार, इस खूंटी से
मुक्त होना चाहता हूं
और तेज आंधियों में उड़ता हुआ
अपनी बांहें उठाये
सीना चौड़ा किये
उसे खिजना चाहता हूं—जो चुपचाप दरवाजा बन्द कर
बिना मेरी ओर देखे और कुच बोले
बाहर भारी कदम रखता हुआ चला गया.मैं जानता हूं
उसे कोई बुला रहा था
उसे कुछ चाहिए था
उसे एक बड़ी आंधी और भूकम्प
लाने वाली ताकतों की खोज करनी थी
उसे यहां से जाना ही था
लेकिन कहां?मैं उसके साथ जाना चाहता था.
एक अरसे से खूंटी पर टंगे—टंगे
मैं भी
एक काली आंधी
एक बड़े भूकम्प की ज़रूरत
महसूस करने लगा हूं.क्या वह भी
मेरी तरह
किसी खूंटी पर टंगे—टंगे थक गया था?कोट था?

