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Ramdhari Singh Dinkar Poems: राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सबसे मशहूर और पढ़ी गयी कवितायेँ 

Ramdhari Singh Dinkar Poems: राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की सबसे मशहूर और पढ़ी गयी कवितायेँ

आज इस लेख में आपको रामधारी सिंह दिनकर के प्रसिद्ध कवितायेँ पढेंगे अगर आपको पढाई से रूचि है तो आपने अपने हिंदी के पुस्तकों में रामधारी से दिनकर का कविता जरुर पढ़ा होगा, दिनकर जी के द्वारा लिखे गए हर कविता के पीछे कुछ रहस्य छुपा होता होता है रामधारी सिंह दिनकर भारत के प्रसिद्ध कवियों में से एक थे। रामधारी सिंह दिनकर का जन्म सन 1908 ई० में बिहार राज्य के मुंगेर जिले के सिमरिया ग्राम में एक साधारण किसान परिवार के घर हुआ था और इनका मृत्यु सन 1974 ई० में हुआ था दिनकर जी हिंदी भाषा के एक प्रमुख लेखक, कवि, निबंधकार और स्वतंत्रता सेनानी थे थे वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में एक महान कवि माना जाता है। 

शरद

 
औ शरत अभी क्या गम है
तू ही वसंत से क्या कम है
है बिछी दूर तक दूब हरी
हरियाली ओढ़े लता खड़ी
 
कासों के हिलते श्वेत फूल
फूली छतरी ताने बबूल
 
अब भी लजवंती झीनी है
मंजरी बेर रस भीनी है
 
कोयल न (रात वह भी कूकी, तुझ पर रीझी, बंसी फूंकी)
कोयल न कीर तो बोले हैं कुररी मैना रस घोले हैं
कवियों की उपम की आंखें
खंजन फड़काती है पांखें
 
रजनी बरसाती ओस ढेर
देती भू पर मोती बिखेर
नभ नील स्वच्छ सुंदर तड़ाग
न शरत् न, शुचिता का सुहाग
 
औ। शरत् गंग लेखनी, आह! शुचिता का यह निर्मल प्रवाह
पल भर निमग्न इसमें हो ले
वरदान मांग, किल्वष धो ले।

-रामधारी सिंह दिनकर

चांद 

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चांद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फंसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।
 
जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूं?
मैं चुका हूं देख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चांदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।
 
आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किन्तु, फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।
 
मैं न बोला किन्तु मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से चांद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?
 
मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाता हूं,
और उस पर नींव रखता हूं नए घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हूं।
 
मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।
 
स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे-
रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिए, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे

-रामधारी सिंह दिनकर

 ‘तांडव’


नाचो, हे नाचो, नटवर !
चन्द्रचूड़ ! त्रिनयन ! गंगाधर ! आदि-प्रलय ! अवढर ! शंकर!
नाचो, हे नाचो, नटवर !

आदि लास, अविगत, अनादि स्वन,
अमर नृत्य – गति, ताल चिरन्तन,
अंगभंग, हुंकृति-झंकृति कर थिरको हे विश्वम्भर !
नाचो, हे नाचो, नटवर !

सुन शृंगी-निर्घोष पुरातन,
उठे सृष्टि-हृद में नव-स्पन्दन,
विस्फारित लख काल-नेत्र फिर
काँपे त्रस्त अतनु मन-ही-मन । 

स्वर-खरभर संसार, ध्वनित हो नगपति का कैलास-शिखर ।
नाचो, हे नाचो, नटवर !

नचे तीव्रगति भूमि कील पर,
अट्टहास कर उठें धराधर,
उपटे अनल, फटे ज्वालामुख,
गरजे उथल-पुथल कर सागर ।
गिरे दुर्ग जड़ता का, ऐसा प्रलय बुला दो प्रलयंकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

घहरें प्रलय-पयोद गगन में,
अन्ध-धूम्र हो व्याप्त भुवन में,
बरसे आग, बहे झंझानिल,
मचे त्राहि जग के आँगन में,
फटे अतल पाताल, धँसे जग, उछल-उछल कूदें भूधर।
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

प्रभु ! तब पावन नील गगन-तल,
विदलित अमित निरीह-निबल-दल,
मिटे राष्ट्र, उजड़े दरिद्र-जन
आह ! सभ्यता आज कर रही
असहायों का शोणित-शोषण।
पूछो, साक्ष्य भरेंगे निश्चय, नभ के ग्रह-नक्षत्र-निकर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

नाचो, अग्निखंड भर स्वर में,
फूंक-फूंक ज्वाला अम्बर में,
अनिल-कोष, द्रुम-दल, जल-थल में,
अभय विश्व के उर-अन्तर में,

गिरे विभव का दर्प चूर्ण हो,
लगे आग इस आडम्बर में,
वैभव के उच्चाभिमान में,
अहंकार के उच्च शिखर में,

स्वामिन्‌, अन्धड़-आग बुला दो,
जले पाप जग का क्षण-भर में।
डिम-डिम डमरु बजा निज कर में
नाचो, नयन तृतीय तरेरे!
ओर-छोर तक सृष्टि भस्म हो
चिता-भूमि बन जाय अरेरे !

रच दो फिर से इसे विधाता, तुम शिव, सत्य और सुन्दर !
नाचो, हे नाचो, नटवर  !

-रामधारी सिंह दिनकर

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