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Ram Sharan Sharma Birthday: मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए जानें इनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू     

Ram Sharan Sharma Birthday: मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए जानें इनके जीवन के कुछ अनछुए पहलू

साहित्य डेस्क, राम शरण शर्मा (Ram Sharan Sharma) का जन्म 26 नवम्बर 1919 को बेगुसराय बिहार और मृत्यु 20 अगस्त 2011 को पटना में हुई थी। ये  भारत के प्रसिद्ध इतिहासकार और शिक्षाविद थे। वे समाज को हकीकत से रु-ब-रु कराने वाले, अन्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त भारतीय इतिहासकारों में से एक थे। राम शरण शर्मा 'भारतीय इतिहास' को वंशवादी कथाओं से मुक्त कर सामाजिक और आर्थिक इतिहास लेखन की प्रक्रिया की शुरुआत करने वालों में गिने जाते थे। वर्ष 1970 के दशक में 'दिल्ली विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के डीन के रूप में प्रोफेसर आर. एस. शर्मा के कार्यकाल के दौरान विभाग का व्यापक विस्तार किया गया था। विभाग में अधिकांश पदों की रचना का श्रेय भी प्रोफेसर शर्मा के प्रयासों को ही दिया जाता है। आज मशहूर इतिहासकार रामशरण शर्मा के जन्मदिन पर उन्हें याद करते हुए इतिहासकार इरफान हबीब की ये बातें याद आ रही हैं....

“डी. डी. कोसंबी और आर.एस. शर्मा ने डैनियल थॉर्नर के साथ मिलकर पहली बार किसानों को भारतीय इतिहास के अध्ययन में सही मक़ाम दिया।”

बाकी इतिहास में उपेक्षित शूद्रों का विस्तृत इतिहास इन्होंने ही लिखा है।

पूरा नाम राम शरण शर्मा
जन्म 26 नवम्बर, 1919
जन्म भूमि बेगुसराय, बिहार
मृत्यु 20 अगस्त, 2011
मृत्यु स्थान पटना
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र इतिहास और शिक्षा
भाषा हिन्दी, अंग्रेज़ी
विद्यालय 'पटना कॉलेज', बिहार; 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज', लन्दन
शिक्षा एम.ए., पीएचडी
पुरस्कार-उपाधि 'केम्प्वेल मेमोरियल गोल्ड मेडल सम्मान', 'हेमचंद रायचौधरी जन्मशताब्दी स्वर्ण पदक सम्मान', 'डी लिट'
प्रसिद्धि इतिहासकार
विशेष योगदान शर्माजी ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं।
नागरिकता भारतीय

राम शरण शर्मा का जन्म तथा शिक्षा

राम शरण शर्मा का जन्म 26 नवम्बर, 1919 ई. को बिहार (ब्रिटिश भारत) के बेगुसराय ज़िले के बरौनी फ्लैग गाँव के एक निर्धन परिवार में हुआ था। यह इलाका समृद्ध खेती के साथ-साथ 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' के नेतृत्व में सामंतवाद विरोधी संघर्ष के लिए भी जाना जाता था। इसे लोग "बिहार का लेनिनग्राद" कहते थे। इनके घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। राम शरण शर्मा के दादा और पिता बरौनी ड्योडी वाले के यहाँ चाकरी करते थे। इनके पिता को अपनी रोजी-रोटी के लिए काफ़ी संघर्ष करना पड़ा था। पिता ने बड़ी मुश्किल से अपने पुत्र की मैट्रिक तक की शिक्षा की व्यवस्था की थी। राम शरण शर्मा प्रारम्भ से ही मेधावी छात्र रहे थे और अपनी बुद्धिमत्ता से वे लगातार छात्रवृत्ति प्राप्त करते रहे। यहाँ तक कि अपनी शिक्षा में सहयोग के लिए उन्होंने निजी ट्यूशन भी पढ़ाई। उन्होंने 1937 में अपनी मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की और 'पटना कॉलेज' में दाखिला लिया। यहाँ उन्होंने इंटरमीडिएट से लेकर स्नातकोत्तर कक्षाओं में छ: वर्षों तक अध्ययन किया और वर्ष 1943 में इतिहास में एम.ए. की डिग्री प्राप्त की। राम शरण शर्मा ने पीएचडी की उपाधि 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज' से प्रोफेसर आर्थर लेवेलिन बैशम के अधीन पूर्ण की थी।

राम शरण शर्मा का इतिहास लेखन

'पटना विश्वविद्यालय' में पढ़ाते हुए राम शरण शर्मा ने अपनी पहली किताब 'विश्व साहित्य की भूमिका' हिन्दी में लिखी। एक नयी दृष्टि के बावजूद यह पुस्तक छात्रोपयोगी ही अधिक थी। वास्तविक याति और इतिहासकार के रूप में मान्यता उन्हें तब मिली, जब वे सन 1954-1956 के दौरान अध्ययन अवकाश लेकर लंदन के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल ऐंड अफ्रीकन स्टडीज़' में गये और लंदन विश्वविद्यालय से ही 1956 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। इतिहास के जाने-माने लेखक राम शरण शर्मा ने पंद्रह भाषाओं में सौ से भी अधिक किताबें लिखीं। उनकी लिखी गयी प्राचीन इतिहास की किताबें देश की उच्च शिक्षा में काफ़ी अहमियत रखती हैं। प्राचीन इतिहास से जोड़कर हर सम-सामयिक घटनाओं को जोड़कर देखने में शर्मा जी को महारथ हासिल थी। रामशरण शर्मा के द्वारा लिखी गयी पुस्तक "प्राचीन भारत के इतिहास" को पढ़कर छात्र 'संघ लोक सेवा आयोग' जैसी प्रतिष्ठित परीक्षाओं की तैयारी करते हैं।

राम शरण शर्मा का करियर 

राम शरण शर्मा ऐसे पहले भारतीय इतिहासकार थे, जिन्होंने पुरातात्विक अनुसंधानों से प्राप्त साक्ष्यों को अपने लेखन का आधार बनाया और वैदिक और अन्य प्राचीन ग्रंथों और भाषा विज्ञान की स्थापनाओं से उसे यथा संभव संपुष्ट करने की कोशिश की। सन 1969 में उन्हें नेहरू फेलोशिप मिली थी। 'पटना विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के प्रमुख बनने के बाद राम शरण शर्मा ने 1970 के दशक में 'दिल्ली विश्वविद्यालय' के इतिहास विभाग के डीन के रूप काम किया। वे 1972 से 1977 तक 'भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद' के संस्थापक अध्यक्ष भी रहे थे। राम शरण शर्मा ने 'टोरंटो विश्वविद्यालय' में भी अध्यापन कार्य किया। वे 'लंदन विश्वविद्यालय' के 'स्कूल ऑफ़ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़' में एक सीनियर फेलो, विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नेशनल फेलो और 1975 में 'इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस' के अध्यक्ष भी रह चुके थे।

राम शरण शर्मा की रचनाएँ

राम शरण शर्मा ने इतिहास लेखन के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान देकर उसे समृद्ध बनाया। उनकी इतिहास की रचनाएँ उच्च स्तर की प्रतियोगी परीक्षाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। राम शरण शर्मा की कुछ प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं-

रचना वर्ष
'आर्य एवं हड़प्पा संस्कृतियों की भिन्नता'
'भारतीय सामंतवाद'
'शूद्रों का प्राचीन इतिहास'
'प्राचीन भारत में राजनीतिक विचार एवं संस्थाएँ
'भारत के प्राचीन नगरों का इतिहास'
'आर्यों की खोज'
'प्रारंभिक मध्यकालीन भारतीय समाज: सामंतीकरण का एक अध्ययन'
'कम्युनल हिस्ट्री एंड रामा'ज अयोध्या'
'विश्व इतिहास की भूमिका' 1951-52
'सम इकानामिकल एस्पेक्ट्स ऑफ़ द कास्ट सिस्टम इन एंशिएंट इंडिया' 1951
'रोल ऑफ़ प्रोपर्टी एंड कास्ट इन द ओरिजिन ऑफ़ द स्टेट इन एंशिएंट इंडिया' 1951-52
'शुद्राज इन एनसिएंट इंडिया एवं आस्पेक्ट्स ऑफ़ आइडियाज़ एंड इंस्टिट्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' 1958
'आस्पेक्ट्स ऑफ़ पोलिटिकल आइडियाज एंड इंस्टीच्यूशन इन एंशिएंट इंडिया' 1959
'इंडियन फयूडलीजम' 1965
'रोल ऑफ़ आयरन इन ओरिजिन ऑफ़ बुद्धिज्म' 1968
'प्राचीन भारत के पक्ष में' 1978
'मेटेरियल कल्चर एंड सोशल फार्मेशन इन एंशिएंट इंडिया' 1983
'पर्सपेक्टिव्स इन सोशल एंड इकोनौमिकल हिस्ट्री ऑफ़ अर्ली इंडिया' 1983
'अर्बन डीके इन इंडिया-300 एडी से 1000 एडी' 1987
'सांप्रदायिक इतिहास और राम की अयोध्या' 1990-91
'राष्ट्र के नाम इतिहासकारों की रपट' 1991
'लूकिंग फॉर द आर्यन्स' 1995
'एप्लायड साइंसेस एंड टेक्नोलाजी' 1996
'एडवेंट ऑफ़ द आर्यन्स इन इंडिया' 1999
'अर्ली मेडीएवल इंडियन सोसाइटी:ए स्टडी इन फ्यूडलाईजेशन' 2001

इतिहासकार रामशरण शर्मा

एक ऐसा नाम जिसके बिना प्राचीन भारत का इतिहास लेखन थोड़ा अधूरा सा लगता है। जिन्हें 1500 ई0पू0 से 500 ई0 तक के प्राचीन भारत का इतिहास जानना हो उन्हें प्रो. रामशरण शर्मा की किताबें जरूर पढ़नी चाहिए। शर्माजी अपनी किताब में साफ़ कहतें हैं कि अंधदेशभक्ति और परिमार्जित उपनिवेशवादी लेखन, ये दोनों ही अतीत के अध्ययन का इस्तेमाल भारत के प्रगति को रोकने के लिए करते हैं। इनकी सबसे बड़ी खूबी थी कि इन्होंने अपने कई मान्यताओं का जीते जी नई जानकारियों के साथ खण्डन भी किया। अपनी ही किताब में ये "भक्त" का अर्थ उबला हुआ चावल बताते हैं। 

अपने अंतिम दिनों के लेखन में ये बताते हैं कि पवित्र गाय का अर्थतंत्र भारत के आर्थिक विकास के लिए सहायक नहीं है। श्रम के सामाजिक विभाजन और अधिशेष उत्पादन पर विभिन्न सामाजिक वर्गों के असमान पहुँच ने वर्ण-व्यवस्था को जन्म दिया जो ब्राह्मण और क्षत्रीयों के लिए अधिक लाभदायक रही। इस वर्णव्यवस्था से शुरुआत में तो समाज को लाभ मिला पर प्रौद्योगिकी के विकास में यह बाधा बनी और शोषण को जन्म दिया। 

इन्होंने बताया,भारत में इतिहास लेखन का कार्य ब्रिटिश शासन के द्वारा ही शुरू हुआ लेकिन कैसे यूरोपीय इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीयों को केवल आध्यात्मिक चिंतन करने वाले लोग बताकर अंग्रेजों को भारत के लोगों के दैनिक वस्तुओं का ख्याल रखने वाला सिद्ध किया। इन औपनिवेशिक इतिहासकारों के अनुसार भारत के लोग निरंकुश शासन के आदी हैं इसलिए अंग्रेज वायसराय इस पुरानी परंपरा को कायम रखते हुए मनमाना शासन कर सकने के अधिकारी हैं। 

रामशरण शर्मा ने राष्ट्रवादी इतिहासकारों का इस मामले में खूब प्रशंसा की है कि कैसे राष्ट्रवाद और आजादी पाने की उत्तेजना तथा औपनिवेशिक शासन के खिलाफ क्रोध में इन लोगों ने उन स्रोतों को खोज निकाला जिससे अंग्रेज इतिहासकारों को करारा जवाब दिया जा सके। प्राचीन भारतीय शासन में जनतांत्रिक व्यवहार पर काशी प्रसाद जायसवाल के खोजों को वे बहुत महत्वपूर्ण स्थान देते हैं। अंग्रेज औपनिवेशिक इतिहास लेखकों ने यूरोप में तो प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक इतिहास करके तीन भाग किये लेकिन भारत में सांप्रदायिकता फैलाने के लिए हिन्दू, मुस्लिम और ब्रिटिश काल करके विभाजन किया। 

वे लिखते हैं, हालाँकि ब्रिटिश इतिहासकारों ने भारत के इतिहास की पुनःसंरचना में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों के कारण उसमें बहुत विकृतियां हैं। इनका पर्दाफ़ाश राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने किया लेकिन ऐसा करते समय वे तथाकथित प्राचीन स्वर्णकाल की ओर झुकने लगते हैं।  ब्रिटिश शासन खत्म होने पर उन्होंने ये भी रेखांकित किया कि कैसे कुछ खास वर्ग के लोगों ने स्रोतों, सत्ता और शिक्षा पर अपना एकाधिकार जमा लिया। 

उन्होंने अपने ऊपर लगाए गए आरोपों को जिसमें वेदों को कबीलाई, पशुपालक, अर्धघुमन्तू लोगों की रचना मानना, उनके जीवन-यापन का स्रोत "लूट" बताना, आर्यों को गोमांसभक्षी, बर्बर और विदेशी बताना आदि शामिल है। इसपे वो जवाब देते हैं कि मेरे पुस्तकों में वैदिकों को मुख्य रूप से पशुपालक समाज माना जा सकता है साथ ही मेरी पुस्तक में वैदिकों में मांसाहार के प्रचलन का उल्लेख है बाकी के जो शब्द मेरे आरोप में गढ़े गए हैं वो मेरे विरोधियों के शब्द हैं मेरे नहीं।

वो कहते हैं कि मेरा किसी भी व्यक्ति के धार्मिक विश्वासों और संवेदनाओं पर हमला करने का इरादा नहीं है लेकिन मैं इतिहास को नस्लवाद, अविश्वास और अंधविश्वास फैलाने का जरिया नहीं बनने दूँगा। इतिहास का वास्तविक उद्देश्य उन मंजिलों की खोज करना है जिससे होते हुए समाज आधुनिक मंजिलों को खोज सके। इस खोज में हमें कुछ विकृत और आपत्तिजनक चीजों का सामना करने के लिए भी तैयार रहना पड़ेगा और साथ पुरातनपंथी बातों को पकड़कर रखने की सोच को भी छोड़ना पड़ेगा। 

वे हमेशा किसी से भी मिल लेते थे। अंतिम वर्षों में वे बीमार होकर दिल्ली के “सर गंगाराम हॉस्पिटल” में कई महीने रहे। धीरे धीरे हॉस्पिटल के आस पास रहने वाले मज़दूर, रिक्शाचालक, चाय पानी की दुकान लगाने वाले, सभी को पता चल गया ‘सूदरों के इतिहास वाले साहब’ यहाँ एडमिट हैं। फिर क्या था, रोज दस बीस मिलने आते रहते थे। जल्द ठीक होने की दुआएँ देते रहते थे। एक समय था जब NCERT की उनकी किताब सिविल सेवा में प्राथमिक परीक्षा निकाल लेने के लिये काफ़ी समझी जाती थी। 

प्रो. रामशरण शर्मा की पीएचडी भारतीय इतिहास में अराजनैतिक मोड़ देने वाले ए_एल_बैशम के अंडर में हुई थी। चूँकि प्रो. शर्मा एक गरीब परिवार(बिहार, बेगूसराय) से थे इसलिए इनकी उच्च शिक्षा में छात्रवृत्तियों का बड़ा योगदान रहा। इन्होंने डी. डी. कोसांबी द्वारा शुरू किए गए किसानों, जनजातियों तथा निम्न वर्गों के इतिहास लेखन को आगे बढ़ाया और मार्क्सवादी इतिहास लेखन को एक नई ऊंचाई दी। इनका सबसे बड़ा योगदान धर्मनिरपेक्ष इतिहास लेखन का रहा है जिसके कायल इनके विरोधी भी थे। रामायण-महाभारत के ऐतिहासिकता पर इन्होंने जबरदस्त आक्षेप लगाया जिसके वजह से प्राचीन इतिहास में महाकाव्य युग जैसी मान्यता त्याग दी गयी। पत्रकार श्याम लाल उनके बारे में लिखते हैं "आर.एस. शर्मा प्राचीन भारत के एक बोधगम्य इतिहासकार हैं जिनके ह्रदय में 1500 ई.पू. से लेकर 500 ई. तक की दो हजार वर्षों की अवधि के दौरान भारत में घटित होने वाले सामाजिक विकास के प्रति असीम सम्मान की भावना है, अतः वे काल्पनिक दुनिया का सहारा कतई नहीं लेंगे।

प्राचीन भारत में सामंतवाद, शूद्रों का इतिहास, नगरीय जीवन, आर्य सभ्यता आदि इनके लेखन के प्रमुख विषय रहे हैं। इतिहास विषय पर इनकी 100 से अधिक किताबें आ चुकी हैं। ये ICHR के संस्थापक सदस्य/अध्यक्ष तथा भारतीय इतिहास कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं। ये यूनोस्को के डिप्टी चेयरपर्सन भी रहे हैं। "प्रारंभिक भारत का परिचय" इनकी ही लिखी किताब है जिसे मैं कई बार पढ़ चुका हूँ।

राम शरण शर्मा का निधन

एक इतिहासकार और शिक्षाविद के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले राम शरण शर्मा का निधन 20 अगस्त, 2011 को पटना, बिहार में हुआ। अपने तरह की सोच वाले इतिहासकारों को बढावा देने, वैदिक परम्पराओं को अनदेखा करने, हिन्दी के बजाय अंग्रेज़ी में अपने लेखन कार्य को अंजाम देने सहित कई आरोप शर्मा जी पर लगे थे, लेकिन इस सत्य से किसी का कोई इंकार नहीं हो सकता कि वे भारत के उन इतिहासकारों में से एक थे, जिन्होंने इतिहासकारों को खुद नए, तार्किक व वैज्ञानिक तरीके से सोचना सिखाया। साथ ही ये भी बताया कि इतिहास का अर्थ केवल बीती हुई कहानी कहना नहीं होता। इतिहास अथवा इतिहास लेखन का कर्म मात्र राजवंश, युद्ध और भारतीय साम्राज्य का इतिहास मात्र नहीं है। इतिहासकार यह एहसास करें कि इतिहास का विषय यह भी है कि इतिहास के वे सबक क्या हैं, जिनके सहारे आज की चुनौतियों का सामना कल्पनाशीलता और सूझबूझ के साथ किया जा सके।

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