Harivansh Rai Bachchan के Birthday पर मिलें इनके जीवन के अनजाने और अनछुए पहलुओं से
साहित्य डेस्क, हरिवंश राय बच्चन एक भारतीय कवि थे जो 20 वीं सदी में भारत के सर्वाधिक प्रशंसित हिंदी भाषी कवियों में से एक थे. इनकी 1935 में प्रकाशित हुई लंबे लिरिक वाली कविता ‘मधुशाला’ (द हाउस ऑफ वाइन) ने उन्हें प्रशंसकों की फ़ौज दी थी. उनकी दिल को छू जाने वाली काव्यशैली वर्तमान समय में भी हर उम्र के लोगों पर अपना प्रभाव छोड़ती है. डॉ. हरिवंश राय बच्चन जी ने हिंदी साहित्य में अविस्मर्णीय योगदान दिया है, तो चलिए इस कुशल साहित्यकार कवि के जीवन के बारे में विस्तार से जानते है......
हरिवंश राय बच्चन |
|
|---|---|
| पूरा नाम | हरिवंश राय बच्चन |
| जन्म | 27 नवंबर, 1907 ई. |
| जन्म भूमि | इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
| मृत्यु | 18 जनवरी, 2003 ई. |
| मृत्यु स्थान | मुंबई, महाराष्ट्र |
| अभिभावक | प्रताप नारायण श्रीवास्तव, सरस्वती देवी |
| पति/पत्नी | श्यामा बच्चन, तेज़ीसूरी |
| संतान | अमिताभ बच्चन, अजिताभ बच्चन |
| कर्म भूमि | इलाहाबाद |
| कर्म-क्षेत्र | अध्यापक, लेखक, कवि |
| मुख्य रचनाएँ | मधुशाला, मधुबाला, मधुकलश, तेरा हार, निशा निमंत्रण, मैकबेथ, जनगीता, दो चट्टाने |
| विषय | कविता, कहानी, आत्मकथा/रचनावली |
| भाषा | हिन्दी |
| विद्यालय | इलाहाबाद विश्वविद्यालय, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय |
| शिक्षा | एम. ए. (अंग्रेज़ी), पी. एच. डी. |
| पुरस्कार-उपाधि | साहित्य अकादमी पुरस्कार (1968), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, पद्म भूषण (1976) |
| नागरिकता | भारतीय |
| अन्य जानकारी | हरिवंशराय बच्चन ने महू और सागर में फ़ौजी प्रशिक्षण लिया था और लेफ्टिनेंट बनकर कंधे पर दो सितारे लगाने का अधिकार पाया था। |
हरिवंश राय बच्चन का जीवन परिचय | Harivansh Rai Bachchan Jivan Parichay
हालावादी काव्य के प्रवर्त्तक डॉ० हरिवंशराय बच्चन का 27 नवम्बर 1907 ई० में प्रयाग (इलाहाबाद) के एक सम्मानित कायस्थ परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव था और माता का नाम सरस्वती देवी था। माता – पिता की धार्मिक रुचियों व संस्कारों का इन पर गहरा प्रभाव पड़ा | इन्होने काशी और प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की | कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से इन्होंने पी-एच० डी० की उपाधि ग्रहण की |
हरिवंशराय बच्चन जी अनेक वर्षो तक प्रयाग विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्राध्यापक रहे | बच्चन जी कुछ समय तक आकाशवाणी के साहित्यिक कार्यक्रमों से भी जुड़े रहे | सन् 1944 ई० में विदेश मंत्रालय में हिंदी – विशेषज्ञ होकर दिल्ली चले गए | सन् 1966 ई० में इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया | आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण इनकी पत्नी असाध्य रोग से पीड़ित होकर चल बसी। आरम्भ में इन पर उमर – खैयाम के जीवन – दर्शन का अत्यधिक प्रभाव पड़ा | पहली पत्नी के वियोग ने इन्हें निराशा व दुःख से भर दिया किन्तु कवि ने कुछ समय के बाद ही नए सुख और सम्पन्नता के युग में प्रवेश किया | 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुंबई में हरिवंश राय बच्चन जी की मृत्यु हो गयी।
हरिवंशराय बच्चन का जीवन परिचय | Biography
हरिवंशराय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को उत्तरप्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के एक छोटे से गांव बापू पट्टी में हुआ था।इनके पिता का नाम प्रताप नारायण श्रीवास्तव था व इनके माता का नाम सरस्वती देवी था।बचपन में इन्हे बच्चन नाम से पुकारते थे जिसका अर्थ था बच्चा। हरिवंशराय बच्चन का मूल नाम हरिवंशराय श्रीवास्तव था पर उनको बचपन में बच्चन पुकारे जाने के कारण उन्होंने अपना सरनेम हरिवंशराय बच्चन रख लिया और श्रोताओं ने भी उन्हें हरिवंशराय बच्चन के नाम से जाना।
हरिवंशराय बच्चन की शिक्षा | Education
हरिवंशराय बच्चन की प्रारंभिक शिक्षा अपने जिले के प्राथमिक स्कूल से हुई।इसके बाद उर्दू सीखने के लिए कायस्थ स्कूल चले गए यहां इन्होंने उर्दू सीखी ।उसके बाद 1929 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी (महाविद्यालय) से इन्होंने बी ए किया ।1938 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य से एम ए की पढ़ाई पूरी की।उसके बाद अंग्रेजी साहित्य में पी एच डी (Phd) करने के लिए केंब्रिज(इंग्लैंड)गए। यहां उन्होंने डब्लू बी यीट्स की कविताओं पर रिसर्च की। ये दूसरे भारतीय थे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी से अंग्रेजी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त हुई थी।
हरिवंशराय बच्चन का विवाह | Marriage of Harivansh Rai Bachchan
जब हरिवंशराय बच्चन बी ए की प्रथम वर्ष में थे तब उनकी मुलाकात श्यामा देवी से हुई और उन दोनो के बीच प्यार हो गया ।उसके बाद उनके परिवार की रजामंदी से उनकी शादी हो गई।जब हरिवंशराय बच्चन की शादी हुई तब तब उनकी उम्र 19 वर्ष थी व उनकी पत्नी श्यामा देवी की उम्र 14 वर्ष थी। श्यामा देवी को 24 साल की आयु में उन्हें बीमारियों ने घेर लिया जिस वजह से उनकी अकाल मृत्यु हो गई।उनकी मृत्यु के बाद हरिवंशराय बच्चन अकेले व उदास रहने लगे।
हरिवंशराय बच्चन की दूसरी शादी पांच वर्ष बाद 1941 में पंजाबन तेज सुरी से हुई जो रंगमंच तथा गायन से जुड़ी हुई थी। शादी के कुछ दिन बाद इनको दो पुत्र(बेटे)हुए ।इनके एक बेटे का नाम अमिताभ बच्चन व दूसरे बेटे का नाम अजिताभ है।अमिताभ बच्चन भारतीय अभिनेता के रूप में काम करते हैं। व अजिताभ बच्चन एक बिजनेस मैन बने। यह माना जाता है कि तेजी बच्चन भारत के पूर्व प्रधान मंत्री इंद्रा गांधी की करीबी दोस्त थी।
हरिवंशराय बच्चन की काव्य शैली | Poetry style of Harivansh Rai Bachchan
हरिवंशराय बच्चन हालावादी काव्य के अग्रणी कवि थे।ये उतर छायावाद के प्रमुख कवि भी रहे।हरवंशराय जी फारसी कवि उमर खय्याम से बहुत प्रभावित रहे। उमर खय्याम की रूबाइयों से प्रेरित होकर उन्होंने “मधुशाला” नामक रचना लिखी जिसे कवि मंच पर पर बहुत लोकप्रियता मिली।हरिवंशराय बच्चन को “मधुशाला”ने एक अलग प्रसिद्धि दिलाई।हरिवंशराय बच्चन की मुख्य रचनाएं – मधुशाला,मधुबाला, मधुकलश,निशा निमंत्रण, सतरंगिणी,आरती और अंगारे,एकांत संगीत,टूटी फुटी कड़ियां,नए पुराने झरोखे,आत्म-परिचय,मिलनयामिनी इनकी प्रमुख काव्य रचनाएं हैं। हिंदी साहित्य के महान कवि हरिवंशराय बच्चन ने बहुत सी रचनाएं लिखी लेकिन उनको सबसे ज्यादा “मधुशाला” रचना से प्रसिद्धि मिली।
हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथाएं | Biographies of Harivansh Rai Bachchan
हरिवंश राय बच्चन द्वारा बच्चन की आत्मकथा चार खंड़ो में लिखी हुई है। जैसे-
- क्या भूलूं क्या याद करूं
- नीड़ का निर्माण फिर
- बसेरे से दूर
- दशद्वार से सोपान तक
हरिवंश राय बच्चन की आत्मकथा
- प्रवास की डायरी
- क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
- नीड़ का निर्माण फिर (1970)
- बसेरे से दूर (1977)
- दशद्वार से सोपान तक (1985)
हरिवंश राय बच्चन कविता संग्रह
- तेरा हार (1932)
- मधुशाला (1935)
- मधुबाला (1936)
- मधुकलश (1937)
- आत्म परिचय (1937)
- निशा निमंत्रण (1938)
- एकांत संगीत (1939)
- आकुल अंतर (1943)
- सतरंगिनी (1945)
- हलाहल (1946)
- बंगाल का काल (1946)
- खादी के फूल (1948)
- सूत की माला (1948)
- मिलन यामिनी (1950)
- प्रणय पत्रिका (1955)
- धार के इधर-उधर (1957)
- आरती और अंगारे (1958)
- बुद्ध और नाचघर (1958)
- त्रिभंगिमा (1961)
- चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
- दो चट्टानें (1965)
- बहुत दिन बीते (1967)
- कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
- उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
- जाल समेटा (1973)
- नई से नई-पुरानी से पुरानी (1985)
हरिवंश राय बच्चन विविध
- बच्चन के साथ क्षण भर (1934)
- खय्याम की मधुशाला (1938)
- सोपान (1953)
- मैकबेथ (1957)
- जनगीता (1958)
- ओथेलो (1959)
- उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
- कवियों में सौम्य संत: पंत (1960)
- आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
- आधुनिक कवि (1961)
- नेहरू: राजनैतिक जीवनचरित (1961)
- नये पुराने झरोखे (1962)
- अभिनव सोपान (1964)
- चौंसठ रूसी कविताएँ (1964)
- नागर गीता (1966)
- बच्चन के लोकप्रिय गीत (1967)
- डब्लू बी यीट्स एंड अकल्टिज़म (1968)
- मरकत द्वीप का स्वर (1968)
- हैमलेट (1969)
- भाषा अपनी भाव पराये (1970)
- पंत के सौ पत्र (1970)
- प्रवास की डायरी (1971)
- किंग लियर (1972)
- टूटी छूटी कड़ियाँ (1973)
लोकप्रियता
'बच्चन' की कविता की लोकप्रियता का प्रधान कारण उसकी सहजता और संवेदनशील सरलता है और यह सहजता और सरल संवेदना उसकी अनुभूतिमूलक सत्यता के कारण उपलब्ध हो सकी। 'बच्चन' ने आगे चलकर जो भी किया हो, आरम्भ में उन्होंने केवल आत्मानुभूति, आत्मसाक्षात्कार और आत्माभिव्यक्ति के बल पर काव्य की रचना की। कवि के अहं की स्फीति ही काव्य की असाधारणता और व्यापकता बन गई। समाज की अभावग्रस्त व्यथा, परिवेश का चमकता हुआ खोखलापन, नियति और व्यवस्था के आगे व्यक्ति की असहायता और बेबसी 'बच्चन' के लिए सहज, व्यक्तिगत अनुभूति पर आधारित काव्य विषय थे। उन्होंने साहस और सत्यता के साथ सीधी-सादी भाषा और शैली में सहज ही कल्पनाशीलता और सामान्य बिम्बों से सजा-सँवार कर अपने नये गीत हिन्दी जगत को भेंट किये। हिन्दी जगत ने उत्साह से उनका स्वागत किया।
रोचक प्रसंग
उमर ख़य्याम की रुबाइयों का हरिवंशराय बच्चन द्वारा किया गया अनुवाद एक भावभूमि, एक दर्शन और एक मानवीय संवेदना का परिचय देता है। बच्चनजी ने इस अनुवाद के साथ एक महत्त्वपूर्ण लम्बी भूमिका भी लिखी थी, उसके कुछ अंश इस प्रकार से हैं-
उमर ख़य्याम के नाम से मेरी पहली जान-पहचान की एक बड़ी मज़ेदार कहानी है। उमर ख़य्याम का नाम मैंने आज से लगभग 25 बरस हुए जब जाना था, उस समय मैं वर्नाक्यूलर अपर प्राइमरी के तीसरे या चौथे दरजे में रहा हूँगा। हमारे पिताजी 'सरस्वती' मंगाया करते थे। पत्रिका के आने पर मेरा और मेरे छोटे भाई का पहला काम यह होता था कि उसे खोलकर उसकी तस्वीरों को देख डालें। उन दिनों रंगीन तस्वीर एक ही छपा करती थी, पर सादे चित्र, फ़ोटो इत्यादि कई रहते थे। तस्वीरों को देखकर हम बड़ी उत्सुकता से उस दिन की बाट देखने लगते थे, जब पिताजी और उनकी मित्र-मंडली इसे पढ़कर अलग रख दें। ऐसा होते-होते दूसरे महीने की 'सरस्वती' आने का समय आ जाता था। उन लोगों के पढ़ चुकने पर हम दोनों भाई अपनी कैंची और चाकू लेकर 'सरस्वती' के साथ इस तरह जुट जाते थे, जैसे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी मुर्दों के साथ। एक-एक करके सारी तस्वीरें काट लेते थे। तस्वीरें काट लेने के बाद पत्रिका का मोल हमको दो कौड़ी भी अधिक जान पड़ता। चित्रों के काटने में जल्दबाजी करने के लिए, अब तक याद है, पिताजी ने कई बार 'गोशमाली' भी की थी।
उन्हीं दिनों की बात है, किसी महीने की 'सरस्वती' में एक रंगीन चित्र छपा था-एक बूढ़े मुस्लिम की तस्वीर थी, चेहरे से शोक टपकता था; नीचे छपा था-उमर ख़य्याम। रुबाइयात के किस भाव को दिखाने के लिए यह चित्र बनाया गया था, इसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, इस समय चित्र की कोई बात याद नहीं है, सिवा इसके कि एक बूढ़ा मुस्लिम बैठा है और उसके चेहरे पर शोक की छाया है। हम दोनों भाइयों ने चित्र को साथ-ही-साथ देखा और नीचे पढ़ा 'उमर ख़य्याम'। मेरे छोटे भाई मुझसे पूछ पड़े, "भाई, उमर ख़य्याम क्या है?" अब मुझे भी नहीं मालूम था कि उमर ख़य्याम के क्या माने हैं। लेकिन मैं बड़ा ठहरा, मुझे अधिक जानना चाहिए। जो बात उसे नहीं मालूम है, वह मुझे मालूम है, यही दिखाकर तो मैं अपने बड़े होने की धाक उस पर जमा सकता था। मैं चूकने वाला नहीं था। मेरे गुरुजी ने यह मुझे बहुत पहले सिखा रखा था कि चुप बैठने से ग़लत जवाब देना अच्छा है।
मैंने अपनी अक्ल दौड़ायी और चित्र देखते ही देखते बोल उठा, "देखो यह बूढ़ा कह रहा है-उमर ख़य्याम, जिसका अर्थ है 'उमर ख़त्याम', अर्थात उमर ख़तम होती है, यह सोचकर बूढ़ा अफ़सोस कर रहा है।" उन दिनों संस्कृत भी पढ़ा करता था। 'ख़य्याम' में कुछ 'क्षय' का आभास मिला होगा और उसी से कुछ ऐसा भाव मेरे मन में आया होगा। बात टली, मैंने मन में अपनी पीठ ठोंकी, हम और तस्वीरों को देखने में लग गये। पर छोटे भाई को आगे चलकर जीवन का ऐसा क्षेत्र चुनना था, जहाँ हर बात को केवल ठीक ही ठीक जानने की ज़रूरत होती है। जहाँ कल्पना, अनुमान या कयास के लिए सुई की नोक के बराबर भी जगह नहीं है। लड़कपन से ही उनकी आदत हर बात को ठीक-ठीक जानने की ओर रहा करती थी। उन्हें कुछ ऐसा आभास हुआ कि मैं बेपर उड़ा रहा हूँ। शाम को पिताजी से पूछ बैठे। पिताजी ने जो कुछ बतलाया उसे सुनकर मैं झेंप गया। मेरी झेंप को और अधिक बढ़ाने के लिए छोटे भाई बोल उठे, "पर भाई तो कहते हैं कि यह बूढ़ा कहता है कि उमर ख़तम होती है-उमर ख़य्याम यानी उमर ख़त्याम।" पिताजी पहले तो हँसे, पर फिर गम्भीर हो गये; मुझसे बोले, "तुम ठीक कहते हो, बूढ़ा सचमुच यही कहता है।" उस दिन मैंने यही समझा कि पिताजी ने मेरा मन रखने के लिए ऐसा कह दिया है, वास्तव में मेरी सूझ ग़लत थी।
उमर ख़य्याम की वह तस्वीर बहुत दिनों तक मेरे कमरे की दीवार पर टंगी रही। जिस दुनिया में न जाने कितनी सजीव तस्वीरें दो दिन चमककर ख़ाक में मिल जाती हैं, उसमें उमर ख़य्याम की निर्जीव तस्वीर कितने दिनों तक अपनी हस्ती बनाये रख सकती थी! उमर ख़य्याम की तस्वीर तो मिट गयी पर मेरे हृदय पर एक अमिट छाप छोड़ गयी। उमर ख़य्याम और उमर ख़तम होती है, यह दोनों बात मेरे मन में एक साथ जुड़ गयीं। तब से जब कभी भी मैंने 'उमर ख़य्याम' का नाम सुना या लिया, मेरे हृदय में वही टुकड़ा, 'उमर ख़तम होती है' गूज उठा। यह तो मैंने बाद में जाना कि अपनी ग़लत सूझ में भी मैंने इन दो बातों में एक बिल्कुल ठीक सम्बन्ध बना लिया था।
काव्य भाषा की गरिमा
सामान्य बोलचाल की भाषा को काव्य भाषा की गरिमा प्रदान करने का श्रेय निश्चय ही सर्वाधिक 'बच्चन' का ही है। इसके अतिरिक्त उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनका काव्य पाठ भी रहा है। हिन्दी में कवि सम्मेलन की परम्परा को सुदृढ़ और जनप्रिय बनाने में 'बच्चन' का असाधारण योग है। इस माध्यम से वे अपने पाठकों-श्रोताओं के और भी निकट आ गये। कविता के अतिरिक्त 'बच्चन' ने कुछ समीक्षात्मक निबन्ध भी लिखे हैं, जो गम्भीर अध्ययन और सुलझे हुए विचार प्रतिपादन के लिए पठनीय हैं। उनके शेक्सपीयर के नाटकों के अनुवाद और 'जनगीता' के नाम से प्रकाशित दोहे-चौपाइयों में 'भगवद गीता' का उल्था 'बच्चन' के साहित्यिक कृतित्व के विशेषतया उल्लेखनीय या स्मरणीय अंग माने जायेंगे या नहीं, इसमें संदेह है।
हरिवंशराय द्वारा प्राप्त पुरस्कार | Awards
- 1968 में “दो चट्टाने”कविता के लिए अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया।
- 1976 में उनके हिंदी साहित्य के विकास में योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया।
- हरिवंशराय जी को सरस्वती सम्मान, नेहरु अवार्ड, लोटस अवार्ड,कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था.हरवंशराय बच्चन ने अंतिम रचना 1 नवम्बर 1984 को लिखी
हरिवंशराय बच्चन का निधन | Death of Harivansh Rai Bachchan
हिंदी साहित्य में विशेष भूमिका देने वाले श्री हरिवंश राय जी का 18 जनवरी 2003 में 95 वर्ष की आयु में बम्बई में निधन हो गया।हरिवंशराय बच्चन जी अपनी कृतियों के जरिए आज भी जीवित हैं और हमेशा रहेंगे और याद किए जायेंगे।
हरिवंश राय बच्चन की ख़ास बातें | Harivansh Rai Bachchan Facts
- बच्चन साहब कैम्ब्रिज से English literature में डॉक्टरेट करने वाले वे दुसरे भारतीय हैं.
- उन्होंने लोकधुनों पर आधारित भी कई गीत लिखें हैं, सहजता और संवेदनशीलता उनकी कविता का एक विशेष गुण है.
- हरिवंश राय जी की शैली उस ज़माने के कवियों से काफी अलग थी इसलिए उन्हें नवीन युग के प्रारम्भ के रूप में जाना जाता हैं.
- बच्चन व्यक्तिवादी गीत कविता या हालावादी काव्य के अग्रणी कवि हैं.
- बच्चन अपने बड़े बेटे अमिताभ बच्चन के फिल्मजगत में जाने पर ज़्यादा खुश नहीं थे. उनकी ईच्छा थी कि अमित जी नौकरी करें.
- फिल्मो में भी हरिवंश राय बच्चन साहब की रचनाओं का प्रयोग किया गया है, जिसमे सिलसिला फिल्म का गाना ‘रंग बरसे’, अग्निपथ फिल्म में बार बार कहीं गई पंक्ति “अग्निपथ..अग्निपथ”, फिल्म अलाप में गाना “कोई गाता मैं सो जाता” भी बच्चन साहब की लिखी कविताओं में शामिल है.
- 1970 के दशक में, बच्चन ने एक चार-भाग की आत्मकथा प्रकाशित की, जिसने साहित्य जगत में भी हलचल मचा दी थी. इस कविता का संक्षिप्त अंग्रेजी अनुवाद 1998 में Afternoon of Times में छपा था.
- विषय और शैली की दृष्टि से स्वाभाविकता बच्चन की कविताओं का उल्लेखनीय गुण है. उनकी भाषा बोलचाल की भाषा होते हुए भी प्रभावशाली है.
FAQs
Sns- हालावाद’
Ans-मधुबाला, मधुकलश, सतरंगीनी , एकांत संगीत , निशा निमंत्रण, विकल विश्व, खादी के फूल , सूत की माला, मिलन दो चट्टानें भारती और अंगारे इत्यादि हरिवंश राय बच्चन की मुख्य क्रुतियाँ है।
Ans- उनकी भाषा शुद्ध साहित्यिक खड़ी बोली है।
Ans- उल्लास एवं आनन्द

