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Munir Niazi Shayari: 'शायरी का एक ऐसा गुलदस्ता जिसमें हर रंग के फूल हैं ' पढ़ें मुनीर नियाज़ी की चुनिंदा शायरी 

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साहित्य डेस्क, उर्दू शायरी में मुनीर नियाज़ी, फैज़ अहमद फैज़ के बाद आने वाला नाम है। उनका लहजा बेहद नर्म और ख़्याल मख़मल की तरह मुलायम थे। न उनकी आवाज़ में कभी तल्ख़ी सुनी गई न उनकी शायरी में। बड़ी से बड़ी बात को बिना हंगामे के आसानी से कहने के लिए पहचाने जाने वाले मुनीर नियाज़ी की शायरी में एक नयापन है। उनकी शायरी में ज़बान की ऐसी रिवायत है कि जिसमें मुल्क और ग़ैरमुल्की ज़बानों की विरासत मिलती है।

वास्वत में मुनीर नियाज़ी की शायरी अपने समय से काफी आगे जाकर भविष्य की नब्ज़ पर हाथ रख कर उसे संवारने का संदेश देती है। नियाज़ी की सोच और कलाम का फलक इतना विस्तृत है कि आप उनकी ग़ज़लों में आने वाले समय की धड़कनों को साफ़ सुन सकते हैं - 

तोड़ना टूटे हुए दिल का बुरा होता है,
जिस का कोई नहीं उस का तो ख़ुदा होता है। 

माँग कर तुम से ख़ुशी लूँ मुझे मंज़ूर नहीं,
किस का माँगी हुई दौलत से भला होता है। 

लोग नाहक किसी मजबूर को कहते हैं बुरा,
आदमी अच्छे हैं पर वक़्त बुरा होता है। 

क्यों "मुनीर" अपनी तबाही का ये कैसा शिकवा,
जितना तक़दीर में लिखा है अदा होता है। 

साल 1928 में 9 अप्रैल को जन्में पंजाब के होशियारपुर में जन्मे मुनीर की शायरी का केन्द्रीय विषय इश्क-ओ-हुस्न (प्रेम और सौंदर्य) अवश्य है, लेकिन इन पर भी नज़र उनकी अपनी है और इसके साथ-साथ वे अपने इर्द-गिर्द से बेख़बर भी नहीं हैं! ग़ज़ल के रिवायती अल्फाज़ और प्रचलित तरकीबों के बल पर ही उन्होंने अपना रचना - संसार खड़ा किया है, लेकिन ज़मीन बिलकुल नई और खुद अपनी तलाश है - 

बेचैन बहुत फिरना, घबराए हुए रहना
इक आग सी जज़्बों की दहकाए हुए रहना

इक शाम सी कर रखना, काजल के करिश्मे से
इक चांद सा आंखों में चमकाए हुए रखना

आदत ही बना ली है तुमने तो 'मुनीर' अपनी
जिस शहर में भी रहना उकताए हुए रहना 

मुनीर नियाज़ी की शायरी सूफ़ीवाद से एकदम अलग तरह की शायरी है। मुनीर की शायरी में बनावट और बुनावट नहीं, सीधे-सीधे एहसास को अल्फाज़ और जज़्बे को ज़बान देने का अमल है। उनकी शायरी का ग्राफ़ बाहर से अन्दर और अन्दर से अन्दर की तरफ़ बढ़ता चला जाता है। एक ऐसी तलाश, जो परेशान भी करती है और प्राप्य भी पर हैरान भी - 

ज़रूरी बात कहनी हो ,
कोई वादा निभाना हो ,
उसे वापस बुलाना हो ,
हमेशा देर कर देता हूं मैं..

मदद करनी हो उसकी ,
यार की ढांढस बंधना हो ,
बहुत देरी ना रास्तों पर ,
किसे से मिलने जाना हो ,
हमेशा देर कर देता हूं मैं ... 

मुनीर के अकेलेपन को समझते-समझते आप अकेले हो जाओगे। उनके अकेलेपन के नए अंदाज को समझने का लोगों में धैर्य नहीं था और इस तरह मुनीर को लोग 'अजनबी' समझ बैठे। मैंने मुनीर को जितना पढ़ा है उसके बाद मैं उन्हें 'अजनबी' नहीं बल्कि चाह के बगैर गहरे एहसास में डूबे रहने वाला शायर मानता हूं। मुनीर की शायरी मेरे मन के अंदर के तारों को खोलती है। मुझे उनका अजनबीपन अच्छा लगा। 
 
मुनीर की शायरी एक ऐसा गुलदस्ता है, जिसमें ज़ाहिराना तौर पर रंग-बिरंगे फूल हैं, तो कटु यथार्थ रूपी कांटों से भी नहीं बचा गया है। उनकी रचना में लोक, इर्द-गिर्द के बिम्ब और यथार्थ मुखर हैं, लेकिन उनका अपना मुहावरा और बात करने का अपना अलग ढंग उर्दू अदब में उन्हें जुदा मुकाम अता करता है - 

अपने घर को वापस जाओ रो रो कर समझाता है 
जहाँ भी जाऊँ मेरा साया पीछे पीछे आता है 

उस को भी तो जा कर देखो उस का हाल भी मुझ सा है 
चुप चुप रह कर दुख सहने से तो इंसां मर जाता है 

मुनीर का ज़्यादातर कलाम पढ़ कर इस कथन पर सहज विश्वास कर लेने को जी चाहता है कि 'शायरी पैगम्बरी का हिस्सा होती है'। मुनीर की शायरी में आने वाले कल की आहटें साफ़ सुनाई देती हैं। दरअसल वे अपने समय की बात करते हुए भी अपनी नज़र बहुत आगे तक रखते हैं, इसीलिए वे अब भी प्रासंगिक हैं और हमेशा रहेंगे। 

अपना तो ये काम है भाई दिल का ख़ून बहाते रहना 
जाग जाग कर इन रातों में शेर की आग जलाते रहना 

अपने घरों से दूर वनों में फिरते हुए आवारा लोगों 
कभी कभी जब वक़्त मिले तो अपने घर भी जाते रहना 

रात के दश्त में फूल खिले हैं भूली-बिसरी यादों के 
ग़म की तेज़ शराब से उनके तीखे नक़्श मिटाते रहना 

ख़ुश्बू की दीवार के पीछे कैसे कैसे रंग जमे हैं 
जब तक दिन का सूरज आए उस का खोज लगाते रहना 


उर्दू में प्रकाशित उनकी प्रमुख कृतियां हैं तेज हवा और ठंडा फूल, पहली बात ही आखिरी थी, जंगल में धनक, दुश्मनों के दरमियान शाम, एक दुआ जो मैं भूल गया था और माहे मुनीर। उनकी इस नज्म से तो उनका 'अजबनी' इश्क साफ झलकता है। 

आ गयी याद शाम ढलते ही 
बुझ गया दिल चिराग जलते ही 

खुल गए शहरे-गम के दरवाजे 
इक जरा सी हवा के चलते ही 

कौन था तू कि फिर न देखा तुझे
मिट गया ख्वाब आंख मलते ही 

खौफ आता है अपने ही घर से 
माह शबताब के निकलते ही 

तू भी जैसे बदल सा जाता है 
अक्से दीवार के बदलते ही 

खून सा लग गया है हाथों में 
चढ़ गया जहर गुल मसलते ही 

मुनीर का अकेलापन उनकी नज्मों में साफ देखा जा सकता है। समय की धड़कनों के इस शायर की कुछ ग़ज़लें तो दर्शन का गहरा एहसास अपने में समेटे हुए हैं।

इतने खामोश भी रहा न करो 
गम जुदाई में यूं किया न करो 

ख्वाब होते हैं देखने के लिए 
उनमें जा कर मगर रहा न करो 

कुछ न होगा गिला भी करने से 
जालिमों से गिला किया न करो 

उन से निकलें हिकायतें शायद
हर्फ लिख कर मिटा दिया न करो 

अपने रुत्बे का कुछ लिहाज मुनीर 
यार सब को बना लिया न करो 

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