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Maulana Hasrat Mohani Shayari: आजादी के 'गुमनाम' सिपाही शायर हसरत मोहानी की कुछ सबसे मशहूर शायरियाँ

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आजादी की लड़ाई में एक तरफ जहां क्रांतिकारियों ने अपने साहस और हौसले के साथ अंग्रेजी सरकार के दांत खट्टे किए, वहीं दूसरी तरफ कई सारे कवियों ने अपनी कलम की ताकत से ब्रिटिश हुकूमत को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया. ‘आजादी के गुमनाम सिपाही' सीरीज़ में आज कहानी एक ऐसे ही कवि की जिन्होंने ‘इंकलाब’ जिंदाबाद का नारा दिया. लेकिन आज वो इतिहास के पन्नों में कहीं गुम हैं. हम बात कर रहे हैं आजादी के बेखौफ और बेबाक सिपाही मौलाना हसरत मोहानी की.

उनका जन्म 1 जनवरी 1875 को उत्तर प्रदेश में उन्नाव जिले के कस्बा मोहान में हुआ. मौलाना हसरत मोहानी का वास्तविक नाम सैयद फजल-उल-हसन था. हसरत उनका तखल्लुस (कविता या ग़ज़ल के लिए इस्तेमाल होने वाला उपनाम ) था, जिसका इस्तेमाल उन्होंने अपनी कविता में भी किया. मोहान में पैदा होने की वजह से हसरत के साथ मोहानी जुड़ गया. आगे चलकर हसरत मोहानी के नाम से मशहूर हो गए, तो आईये आज आपको पढ़ाएं इनकी लिखी कुछ सबसे मशहूर शायरियों से ...

हम क्या करें अगर न तिरी आरज़ू करें
दुनिया में और भी कोई तेरे सिवा है क्या

शाम हो या कि सहर याद उन्हीं की रखनी
दिन हो या रात हमें ज़िक्र उन्हीं का करना

शेर दर-अस्ल हैं वही 'हसरत'
सुनते ही दिल में जो उतर जाएँ

वफ़ा तुझ से ऐ बेवफ़ा चाहता हूँ
मिरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

मालूम सब है पूछते हो फिर भी मुद्दआ'
अब तुम से दिल की बात कहें क्या ज़बाँ से हम

बरसात के आते ही तौबा न रही बाक़ी
बादल जो नज़र आए बदली मेरी नीयत भी

फिर और तग़ाफ़ुल का सबब क्या है ख़ुदाया
मैं याद न आऊँ उन्हें मुमकिन ही नहीं है

देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आई कई दौर हो गए

जो और कुछ हो तिरी दीद के सिवा मंज़ूर
तो मुझ पे ख़्वाहिश-ए-जन्नत हराम हो जाए

छुप नहीं सकती छुपाने से मोहब्बत की नज़र
पड़ ही जाती है रुख़-ए-यार पे हसरत की नज़र

देखा किए वो मस्त निगाहों से बार बार
जब तक शराब आई कई दौर हो गए

छुप नहीं सकती छुपाने से मोहब्बत की नज़र
पड़ ही जाती है रुख़-ए-यार पे हसरत की नज़र

उस ना-ख़ुदा के ज़ुल्म ओ सितम हाए क्या करूँ
कश्ती मिरी डुबोई है साहिल के आस-पास

इक़रार है कि दिल से तुम्हें चाहते हैं हम
कुछ इस गुनाह की भी सज़ा है तुम्हारे पास

चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है
हम को अब तक आशिक़ी का वो ज़माना याद है

चोरी चोरी हम से तुम आ कर मिले थे जिस जगह
मुद्दतें गुज़रीं पर अब तक वो ठिकाना याद है

ऐसे बिगड़े कि फिर जफ़ा भी न की
दुश्मनी का भी हक़ अदा न हुआ

आरज़ू तेरी बरक़रार रहे
दिल का क्या है रहा रहा न रहा

आप को आता रहा मेरे सताने का ख़याल
सुलह से अच्छी रही मुझ को लड़ाई आप की

आईने में वो देख रहे थे बहार-ए-हुस्न
आया मेरा ख़याल तो शर्मा के रह गए

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