Majrooh Sultanpuri Shayari: पढ़ें मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी के चुनिंदा शेर
मजरूह सुल्तानपुरी (Majrooh Sultanpuri) बॉलीवुड में गीतकार के रूप में मशहूर हुए. मजरूह सुलतानपुरी 1919 में उत्तर प्रदेश के ज़िला सुलतानपुर में पैदा हुए. उनका असल नाम इसरार हसन ख़ान था. उनके वालिद ने ख़िलाफ़त आंदोलन के प्रभाव के कारण बेटे को अंग्रेज़ी शिक्षा नहीं दिलाई और उनका दाख़िला एक मदरसे में करा दिया गया जहां उन्होंने उर्दू के अलावा अरबी और फ़ारसी पढ़ी. मजरूह ने 1935 में शायरी शुरू की और अपनी पहली ग़ज़ल सुलतानपुर के एक मुशायरे में पढ़ी. मजरूह सुल्तानपुरी को 1994 में फिल्म जगत के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया. इससे पहले उन्हें 1980 में ग़ालिब एवार्ड और 1992 में इकबाल एवार्ड मिले थे.....
ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं
ऐसे हंस हंस के न देखा करो सब की जानिब
लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं
जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए
तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए
हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते
अब सोचते हैं लाएँगे तुझ सा कहाँ से हम
उठने को उठ तो आए तिरे आस्ताँ से हम
बचा लिया मुझे तूफ़ाँ की मौज ने वर्ना
किनारे वाले सफ़ीना मिरा डुबो देते
तिरे सिवा भी कहीं थी पनाह भूल गए
निकल के हम तिरी महफ़िल से राह भूल गए
अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर
अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे
हम हैं का'बा हम हैं बुत-ख़ाना हमीं हैं काएनात
हो सके तो ख़ुद को भी इक बार सज्दा कीजिए
बढ़ाई मय जो मोहब्बत से आज साक़ी ने
ये काँपे हाथ कि साग़र भी हम उठा न सके
गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की
फिर आई फ़स्ल कि मानिंद बर्ग-ए-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासलात चले
फिर आई फ़स्ल कि मानिंद बर्ग-ए-आवारा
हमारे नाम गुलों के मुरासलात चले
गुलों से भी न हुआ जो मिरा पता देते
सबा उड़ाती फिरी ख़ाक आशियाने की
सुनते हैं कि काँटे से गुल तक हैं राह में लाखों वीराने
कहता है मगर ये अज़्म-ए-जुनूँ सहरा से गुलिस्ताँ दूर नहीं

