भारत के जाने माने हिंदी साहित्य के 'उपन्यास सम्राट' मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय
प्रेमचंद को हिंदी और उर्दू के महानतम लेखकों में शुमार किया जाता है। प्रेमचंद की रचनाओं को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें 'उपन्यास सम्राट' की उपाधि दी थी। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास में एक नई परंपरा की शुरुआत की जिसने आने वाली पीढ़ियों के साहित्यकारों का मार्गदर्शन किया। प्रेमचंद ने साहित्य में यथार्थवाद की नींव रखी। प्रेमचंद की रचनाएं हिंदी साहित्य की धरोहर हैं, तो आईये जाने इनके बारे में विस्तार से..............
यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंज़िलों से गुज़रा। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।
हिन्दी, बहुत खुबसूरत भाषाओं मे से एक है . हिन्दी एक ऐसा विषय है जो, हर किसी को अपना लेती है अर्थात्, सरल के लिये बहुत सरल और, कठिन के लिये बहुत कठिन बन जाती है . हिन्दी को हर दिन ,एक नया रूप, एक नई पहचान देने वाले थे, उसके साहित्यकार उसके लेखक . उन्ही मे से, एक महान छवि थी मुंशी प्रेमचंद की , वे एक ऐसी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे, जिसने हिन्दी विषय की काया पलट दी . वे एक ऐसे लेखक थे जो, समय के साथ बदलते गये और , हिन्दी साहित्य को आधुनिक रूप प्रदान किया . मुंशी प्रेमचंद ने सरल सहज हिन्दी को, ऐसा साहित्य प्रदान किया जिसे लोग, कभी नही भूल सकते . बड़ी कठिन परिस्थियों का सामना करते हुए हिन्दी जैसे, खुबसूरत विषय मे, अपनी अमिट छाप छोड़ी . मुंशी प्रेमचंद हिन्दी के लेखक ही नही बल्कि, एक महान साहित्यकार, नाटककार, उपन्यासकार जैसी, बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे।
उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय (Munshi Premchand biography in hindi)
प्रेमचंद |
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|---|---|
| पूरा नाम | मुंशी प्रेमचंद |
| अन्य नाम | नवाब राय |
| जन्म | 31 जुलाई, 1880 |
| जन्म भूमि | लमही गाँव, वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
| मृत्यु | 8 अक्तूबर 1936 |
| मृत्यु स्थान | वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
| अभिभावक | मुंशी अजायब लाल और आनन्दी देवी |
| पति/पत्नी | शिवरानी देवी |
| संतान | श्रीपत राय और अमृत राय (पुत्र) |
| कर्म भूमि | गोरखपुर |
| कर्म-क्षेत्र | अध्यापक, लेखक, उपन्यासकार |
| मुख्य रचनाएँ | ग़बन, गोदान, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोग़ा आदि |
| विषय | सामजिक |
| भाषा | हिन्दी |
| विद्यालय | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
| शिक्षा | स्नातक |
| प्रसिद्धि | उपन्यास सम्राट |
| नागरिकता | भारतीय |
| साहित्यिक | आदर्शोन्मुख यथार्थवाद |
| आन्दोलन | प्रगतिशील लेखक आन्दोलन |
| अन्य जानकारी | प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। |
मुंशी प्रेमचंद जी की जीवनी (Munshi Premchand Jeevani)
प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन गाँव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।
मुंशी प्रेमचंद जी का परिवार (Munshi Premchand Family)
उनके दादाजी गुर सहाय राय पटवारी थे और पिता अजायब राय डाक विभाग में पोस्ट मास्टर थे। बचपन से ही उनका जीवन बहुत ही, संघर्षो से गुजरा था। गरीब परिवार में जन्म लेने तथा 7 बर्ष की अल्पायु में ही मुंशी प्रेमचंद की माता आनंदी देवी की मृत्यु एवं 9 वर्ष की उम्र में सन् 1897 में उनके पिताजी का निधन हो जाने के कारण, उनका बचपन अत्यधिक कष्टमय रहा। किन्तु जिस साहस और परिश्रम से उन्होंने अपना अध्ययन जारी रखा, वह साधनहीन एवं कुशाग्रबुद्धि और परिश्रमी छात्रों के लिए प्रेरणाप्रद है। प्रेमचंद का पहला विवाह पन्द्रह वर्ष की अल्पायु में उनके पिताजी ने करा दिया। उस समय मुंशी प्रेमचंद कक्षा 9 के छात्र थे। पहली पत्नी को छोड़ने के बाद उन्होंने दूसरा विवाह 1906 में शिवारानी देवी से किया जो एक महान साहित्यकार थीं। प्रेमचंद की मृत्यु के बाद उन्होंने प्रेमचंद घर में नाम से एक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी।
मुंशी प्रेमचंद की शिक्षा (Munshi Premchand Education)
प्रेमचंद जी की प्रारम्भिक शिक्षा, सात साल की उम्र से, अपने ही गाँव लमही के, एक छोटे से मदरसा से शुरू हुई थी . मदरसा मे रह कर, उन्होंने हिन्दी के साथ उर्दू व थोडा बहुत अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त किया .ऐसे करते हुए धीरे-धीरे स्वयं के, बल-बूते पर उन्होंने अपनी शिक्षा को आगे बढाया, और आगे स्नातक की पढ़ाई के लिये , बनारस के एक कालेज मे दाखिला लिया . पैसो की तंगी के चलते अपनी पढ़ाई बीच मे ही छोड़नी पड़ी . बड़ी कठिनाईयों से जैसे-तैसे मैट्रिक पास की थी . परन्तु उन्होंने जीवन के किसी पढ़ाव पर हार नही मानी, और 1919 मे फिर से अध्ययन कर बी.ए की डिग्री प्राप्त करी .
मुंशी प्रेमचंद का विवाह (Munshi Premchand Marriage)
प्रेमचंद जी बचपन से, किस्मत की लड़ाई से लड़ रहे थे . कभी परिवार का लाड-प्यार और सुख ठीक से प्राप्त नही हुआ . पुराने रिवाजो के चलते, पिताजी के दबाव मे आकर , बहुत ही कम उम्र मे पन्द्रह वर्ष की उम्र मे उनका विवाह हो गया . प्रेमचंद जी का यह विवाह उनकी मर्जी के बिना , उनसे बिना पूछे एक ऐसी कन्या से हुआ जोकि, स्वभाव मे बहुत ही झगड़ालू प्रवति की और, बदसूरत सी थी . पिताजी ने सिर्फ अमीर परिवार की कन्या को देख कर, विवाह कर दिया .
थोड़े समय मे, पिताजी की भी मृत्यु हो गयी, पूरा भार प्रेमचंद जी पर आ गया . एक समय ऐसा आया कि, उनको नौकरी के बाद भी जरुरत के समय अपनी बहुमूल्य वास्तुओ को बेच कर, घर चलाना पड़ा . बहुत कम उम्र मे ग्रहस्थी का पूरा बोझ अकेले पर आ गया . उसके चलते प्रेमचंद की प्रथम पत्नी से, उनकी बिल्कुल नही जमती थी जिसके चलते उन्होंने उसे तलाक दे दिया. और कुछ समय गुजर जाने के बाद, अपनी पसंद से दूसरा विवाह , लगभग पच्चीस साल की उम्र मे एक विधवा स्त्री से किया . प्रेमचंद जी का दूसरा विवाह बहुत ही संपन्न रहा उन्हें इसके बाद, दिनों दिन तरक्की मिलती गई .
मुंशी प्रेमचंद की कार्यशैली
- प्रेमचंद जी अपने कार्यो को लेकर, बचपन से ही सक्रीय थे . बहुत कठिनाईयों के बावजूद भी उन्होंने, आखरी समय तक हार नही मानी . और अंतिम क्षण तक कुछ ना कुछ करते रहे, और हिन्दी ही नही उर्दू मे भी, अपनी अमूल्य लेखन छोड़ कर गये .
- लमही गाँव छोड़ देने के बाद, कम से कम चार साल वह कानपुर मे रहे, और वही रह कर एक पत्रिका के संपादक से मुलाकात करी, और कई लेख और कहानियों को प्रकाशित कराया . इस बीच स्वतंत्रता आदोलन के लिये भी कई कविताएँ लिखी .
- धीरे-धीरे उनकी कहानियों,कविताओं, लेख आदि को लोगो की तरफ से, बहुत सरहाना मिलने लगी . जिसके चलते उनकी पदोन्नति हुई, और गौरखपुर तबादला हो गया . यहा भी लगातार एक के बाद एक प्रकाशन आते रहे, इस बीच उन्होंने महात्मा गाँधी के आदोलनो मे भी, उनका साथ देकर अपनी सक्रीय भागीदारी रखी . उनके कुछ उपन्यास हिन्दी मे तो, कुछ उर्दू मे प्रकाशित हुए .
- उन्नीस सौ इक्कीस मे अपनी पत्नी से, सलाह करने के बाद उन्होंने, बनारस आकर सरकारी नौकरी छोड़ने का निर्णय ले लिया . और अपनी रूचि के अनुसार लेखन पर ध्यान दिया . एक समय के बाद अपनी लेखन रूचि मे, नया बदलाव लाने के लिये उन्होंने सिनेमा जगत मे, अपनी किस्मत अजमाने पर जोर दिया, और वह मुंबई पहुच गये और, कुछ फिल्मो की स्क्रिप्ट भी लिखी परन्तु , किस्मत ने साथ नही दिया और, वह फ़िल्म पूरी नही बन पाई . जिससे प्रेमचंद जी को नुकसानी उठानी पड़ी और, आख़िरकार उन्होंने मुंबई छोड़ने का निर्णय लिया और, पुनः बनारस आगये . इस तरह जीवन मे, हर एक प्रयास और मेहनत कर उन्होंने आखरी सास तक प्रयत्न किये।
साहित्यिक परिचय
मुंशी प्रेमचंद्र जी ने लगभग एक दर्जन उपन्यासों और 300 कहानियों की रचना की है, उन्होंने माधुरी एवं मर्यादा नाम की पत्रिकाओं का संपादन किया. तथा हंस एवं जागरण नाम के पत्र भी लिखे. उनकी रचनाएं आदर्शों मुख्य यथार्थवादी थी, जिनमें सामान्य जीवन की वास्तविकता से संबंधित चित्रण किया गया था. समाज सुधार एवं राष्ट्रीयता उनकी रचनाओं के प्रमुख विषय रहे हैं.
मुंशी प्रेमचंद जी की प्रमुख रचनाएं
मुंशी प्रेमचंद जी के प्रसिद्ध उपन्यास जैसे ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’, ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’, ‘गगन’, ‘गोदान’ आदि थे. उनकी कहानियों का विशाल संग्रह आठ भागों में ‘मानसरोवर’ नाम से प्रकाशित है, जिसमें लगभग 300 से अधिक कहानियां संकलित की गई है. ‘करबला’, ‘संग्राम’ और ‘प्रेम की विधि’ उनके नाटक हैं. साहित्यिक निबंध कुछ विचार नाम से प्रकाशित है.उनकी कहानियों का अनुवाद संसार की अनेक भाषाओं में हुआ. जिनमें से ‘गोदान’ हिंदी का एक प्रसिद्ध उपन्यास है जिसकी रचना मुंशी प्रेमचंद्र जी ने की थी.
मुंशी प्रेमचंद जी का कार्यक्षेत्र
प्रेमचंद आधुनिक हिंदी कहानी के पितामह माने जाते हैं। वैसे तो उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ 1901 से हो चुका था, पर उनकी पहली हिंदी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर 1915 में, ‘सौत’ नाम से प्रकाशित हुई, और 1936 में अंतिम कहानी ‘कफन’ नाम से प्रकाशित हुई। साथ ही बीस वर्षों की इस अवधि में उनकी कहानियों के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। उनसे पहले हिंदी में काल्पनिक, एप्यारी और पौराणिक धार्मिक रचनाएँ ही की जाती थी। प्रेमचंद ने हिंदी में यथार्थवाद की शुरूआत की। भारतीय साहित्य का बहुत-सा विमर्श जो बाद में प्रमुखता से उभरा, चाहे वह दलित साहित्य हो या नारी साहित्य, उसकी जड़ें कहीं गहरे प्रेमचंद के साहित्य में दिखाई देती हैं। प्रेमचंद नाम से उनकी पहली कहानी ‘बड़े घर की बेटी’, ‘जमाना’ पत्रिका के दिसंबर 1910 में प्रकाशित हुई। मरणोपरांत उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशित हुई। कथा सम्राट प्रेमचंद का कहना था, कि साहित्यकार देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई को नहीं बल्कि उसके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है. यह बात उनके साहित्य में प्रकाशित की गई। 1921 में उन्होंने महात्मा गाँधी के आह्वान पर अपनी नौकरी छोड़ दी। कुछ महीने ‘मर्यादा’ पत्रिका का संपादन भार सँभाला, छह साल तक ‘माधुरी’ नामक पत्रिका का संपादन किया, 1930 में बनारस से अपना मासिक पत्र ‘हंस’ शुरू किया, और 1932 के आरंभ में ‘जागरण’ नामक एक साप्ताहिक पत्र निकाला। और उन्होंने लखनऊ में 1936 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन की अध्यक्षता की।
मुंशी प्रेमचंद्र जी की समालोचना
प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे. और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर बैठाया। मुंशी प्रेमचंद्र जी पहले अपने हिंदी साहित्य में राजा रानी के किस्से में अटके हुए थे, उन्होंने रहस्य और रोमांस में अपना कार्य उलझा लिया था. और प्रेमचंद्र जी ने साहित्य की सच्चाई को धरातल पर उतारने का निर्णय लिया, उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्न पर लिखा, और संप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, जमीदारी, खर्चखोरी, गरीबी, उपनिवेशवाद और आजीवनपर लेख लिखते ही रहे. मुंशी प्रेमचंद की अधिकतर रचनाएं उनकी ही गरीबी और दैन्यता की कहानी पर लिखी है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वह नायक बने, उन्होंने सरल सहज और आम बोलचाल की भाषा का उपयोग किया. और अपने प्रगतिशील विचारों से दृढ़ता से देते हुए समाज के सामने उसे प्रकाशित किया। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए. उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरा शुरू की।
मुंशी प्रेमचंद्र की भाषा शैली
महान लेखक मुंशी प्रेमचंद्र जी की भाषा अत्यंत ही सहज, स्वाभाविक, व्यवहारिक एवं प्रभावशाली है. मुंशी प्रेमचंद्र जी पहले उर्दू के लेखक हुआ करते थे, और उर्दू से हिंदी भाषा में आने के कारण उनकी भाषा में तत्सम शब्दों की बहुलता मिलती है. मुंशी प्रेमचंद्र जी की रचनाओं में लोकोक्तियां, मुहावरे एवं सुक्तियों के प्रयोग की बहुमूल्यता मिलती है.
साहित्य में स्थान
मुंशी प्रेमचंद्र जी का साहित्य के क्षेत्र में बहुमूल्य योगदान है, मुंशी प्रेमचंद्र जी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से लोगों को साहित्य से जोड़ने का कार्य किया है. मुंशी प्रेमचंद्र जी ने हिंदी कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया. और साथ ही आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया. मुंशी प्रेमचंद्र अपनी रचनाओं में नायक हुए, और भारतीय समाज और अछूत को समझा.
मुंशी प्रेमचंद्र जी ने अपने प्रगतिशील विचारों को तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया. उपन्यास के क्षेत्र में मुंशी प्रेमचंद्र जी ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया जीत के लिए बंगाल के उपन्यासकार शरदचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट के नाम से संबोधित किया. साथ ही मुंशी प्रेमचंद्र जी को रंगभूमि नामक उपन्यास के लिए मंगल प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित किया गया.
मुंशी प्रेमचंद्र को प्राप्त सम्मान
- महान लेखक मुंशी प्रेमचंद्र जी के याद में भारतीय डाक तार विभाग द्वारा 30 पैसे मूल्य पर डाक टिकट जारी किया गया.
- महान लेखक मुंशी प्रेमचंद्र गोरखपुर की जिस स्कूल में पढ़ते थे, उस स्थान पर प्रेमचंद्र साहित्य संस्थान स्थापित किया गया.
- महान लेखक मुंशी प्रेमचंद्र की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर के नाम से उनकी जीवनी लिखी.
मुंशी प्रेमचंद्र के उपन्यास
मुंशी प्रेमचंद्र जी के कई उपन्यास हैं, जिनमें से कुछ के नाम नीचे निम्नलिखित रुप में दिए गए हैं:-
- सेवासदन
- प्रेमाश्रम
- रंगभूमि
- निर्मला
- कायाकल्प
- गबन
- कर्मभूमि
- गोदान
- मंगलसूत्र
मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियां
मुंशी प्रेमचंद द्वारा 118 कहानियों की रचना की गई आता है, जिनमें से उनकी प्रमुख रचनाओं के नाम नीचे निम्नलिखित रुप में दिए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:-
- दो बैलों की कथा
- आत्माराम
- आखिरी मंजिल
- आखरी तोहफा
- इज्जत का खून
- ईदगाह
- इस्तीफा
- क्रिकेट मैच
- कर्मों का फल
- दूसरी शादी
- दिल की रानी
- नाग पूजा
- निर्वाचन
- पंच परमेश्वर
साहित्य की विशेषताएँ
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है।
प्रेमचंद के पत्र
प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हज़ारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय उर्दू मासिक पत्रिका ‘ज़माना’ के यशस्वी सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘ज़माना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है।
प्रेमचंद का स्वर्णिम युग
प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन् 1931 के आरम्भ में ग़बन प्रकाशित हुआ था। 16 अप्रैल, 1931 को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान् रचना, कर्मभूमि शुरू की। यह अगस्त, 1932 में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन् 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान् उपन्यास, गोदान लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, 1936 में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘मंगलसूत्र’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है।
प्रेमचंद और सिनेमा
प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के. सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बुलक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे सत्यजित राय की फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी[4] प्रेमचंद ने मज़दूर शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने कहानी की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर भारत सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने सिनेमा की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं:
आलोचना
प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छह महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि "क+ख+ग / द = प+फ+ब / घ" यानी प्रेमचंद की 1/3 सोफ़िया थैकरे की ¼ अमीलिया का स्मरण दिलाती है। एक और असफल कथाकार ने आलोचक का बाना धारण करते हुए प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा था।
मुंशी प्रेमचंद्र की मृत्यु
अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर (सन् 1934-35 जो मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में बीता), उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुज़रा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।[4] इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
FAQ
Ans- मुंशी प्रेमचंद आधुनिक हिन्दुस्तानी साहित्य के लिए प्रसिद्ध है।
Ans- मुंशी प्रेमचंद की गोदान, ईदगाह, कफन, निर्मला, दो बेलों की कथा है।
Ans- मुंशी प्रेमचंद 300 रचनाएं हैं।
Ans- मुंशी प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई 1880 को लमती वाराणसी में हुआ था।
Ans- मुंशी प्रेमचंद की मृत्यृ 8 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में हुआ।

