Jaun Elia Shayari in Hindi: मशहूर उर्दू शायर जॉन एलिया की कुछ सबसे नायब गजल
सैयद हुसैन जौन असगर नकवी, जिन्हें आमतौर पर जौन एलिया के नाम से जाना जाता है, एक भारत-पाक उर्दू कवि, दार्शनिक, जीवनी लेखक और विद्वान थे। वह रईस अमरोहवी और सैयद मुहम्मद तकी के भाई थे, जो पत्रकार और मनोविश्लेषक थे। वह उर्दू, अरबी, अंग्रेजी, फारसी, संस्कृत और हिब्रू में धाराप्रवाह थे । उन्हें दर्द और दुःख के कवि के रूप में जाना जाता है। ऐसा माना जाता है कि उनका दुख अमरोहा की एक लड़की 'फरिया निगरीना' से अलग होनेकी वजह से था , जिसे वह प्यार करते थे।हालांकि, कई लोगों का मानना है कि कविता में 'फरिया' शब्द का अर्थ 'खुश' होना है। उनका जन्म 14 दिसंबर, 1931 को अमरोहा, भारत में हुआ था और उनकी मृत्यु 8 नवंबर, 2002 को कराची, पाकिस्तान में हुई थी। यह शायरी उनके लिए है जो जौन एलिया शायरी और उर्दू शायरी पढ़ना पसंद करते हैं। जोन एलिया,उर्दू शायरी की शीर्ष सूचियों में है,क्योंकि उर्दू शायरी सूची में जौन एलिया को शामिल किए बिना उर्दू कविता अधूरी है, आईये मिलाएं आपको इसकी सबसे मशहूर ग़ज़ल से....
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ
कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
वो किताब-ए-हुस्न वो इल्म ओ अदब की तालीबा
वो मोहज़्ज़ब वो मुअद्दब वो मुक़द्दस राहिबा
किस क़दर पैराया परवर और कितनी सादा-कार
किस क़दर संजीदा ओ ख़ामोश कितनी बा-वक़ार
गेसू-ए-पुर-ख़म सवाद-ए-दोश तक पहुँचे हुए
और कुछ बिखरे हुए उलझे हुए सिमटे हुए
रंग में उस के अज़ाब-ए-ख़ीरगी शामिल नहीं
कैफ़-ए-एहसासात की अफ़्सुर्दगी शामिल नहीं
वो मिरे आते ही उस की नुक्ता-परवर ख़ामुशी
जैसे कोई हूर बन जाए यकायक फ़लसफ़ी
मुझ पे क्या ख़ुद अपनी फ़ितरत पर भी वो खुलती नहीं
ऐसी पुर-असरार लड़की मैं ने देखी ही नहीं
दुख़तरान-ए-शहर की होती है जब महफ़िल कहीं
वो तआ'रुफ़ के लिए आगे कभी बढ़ती नहीं

