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Harishankar Parsai Writings: हिंदी साहित्य के विख्यात व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की मशहूर आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ में मसहूस करें  ‘प्लेग’ का कहर

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श्री हरिशंकर परसाई हिन्दी के श्रेष्ठ व्यंग्य लेखक हैं। व्यंग्य लेखन में उन्हें प्रवीणता प्राप्त है। समाज, राजनीति, धर्म आदि सभी क्षेत्रों में व्याप्त विसंगतियों को उन्होंने अपने व्यंग्य लेखन से व्यक्त किया है। उनके व्यंग्य अत्यन्त चुटीले एवं प्रभावकारी होते हैं तथा उनका उद्देश्य व्यवस्था में सुधार लाना है। सामयिक विषयों पर लिखी गई हरिशंकर परसाई की व्यंग्य रचनाओं ने पाठकों को बहुत कुछ सोचने-विचारने का अवसर प्रदान किया है। परसाईजी ने यद्यपि कहानियां, उपन्यास भी लिखे हैं किन्तु इन्हें सर्वाधिक प्रसिद्धि व्यंग्य रचनाओं से ही मिली है। 

जीवन के तामाम उतार-चढ़ावों को देखते-जूझते हुए हरिशंकर परसाई ने व्यवस्था, पाखण्ड, दिखावा, राजनीति पर तीखे प्रहार किए हैं. वे खुद कहा करते थे कि व्यंग्य जीवन से साक्षात्कार करता है, जीवन की आलोचना करता है, विसंगतियों, अत्याचारों, मिथ्याचारों और पाखंडों का पर्दाफाश करता है. व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जीवन आसान नहीं रहा. मध्यवर्गीय परिवार में जन्में परसाई ने अल्पायु में ही अपनी माता को खो दिया. पिता लंबे समय तक बीमार रहे और अंत में वे भी उनका साथ छोड़कर चले गए. परिवार में चार छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी हरिशंकर परसाई के ऊपर ही थी।  जिस तरह आप-हमने कोरोना महामारी को झेला है, उसी तरह हरिशंकर परसाई ने ‘प्लेग’ को झेला था, तो आईये पढ़ें इनकी अपनी आत्मकथा ‘गर्दिश के दिन’ का दर्द 

संयोग कि बचपन की सबसे तीखी याद ‘प्लेग’ की है. 1936 या 37 होगा. मैं शायद आठवीं का छात्र था. कस्बे में प्लेग पड़ी थी. आबादी घर छोड़ जंगल में टपरे बना कर रहने चली गयी थी. हम नहीं गये थे. मां सख्त बीमार थी. उन्हें लेकर जंगल नहीं जाया जा सकता था. भांय-भांय करते पूरे आस-पास में हमारे घर ही चहल-पहल थी. काली रातें. इनमें हमारे घर जलने वाले कंदील. मुझे इन कंदीलों से डर लगता था. कुत्ते तक बस्ती छोड़ गये थे, रात के सन्नाटे में हमारी आवाजें हमें ही डरावनी लगती थीं. रात को मरणासन्न मां के सामने हम लोग आरती गाते-जय जगदीश हरे, भक्त जनों के संकट पल में दूर करे.

गाते गाते पिताजी सिसकने लगते, मां बिलख कर हम बच्चों को हृदय से चिपटा लेती और हम भी रोने लगते. रोज का यह नियम था. फिर रात को पिताजी, चाचा और दो एक रिश्तेदार लाठी-बल्लम लेकर घर के चारों तरफ घूम-घूम कर पहरा देते. ऐसे भयकारी, त्रासदायक वातावरण में एक रात तीसरे पहर मां की मृत्यु हो गयी. कोलाहल और विलाप शुरू हो गया. कुछ कुत्ते भी सिमट कर आ गये और योग देने लगे.

पांच भाई-बहनों में मां की मृत्यु का अर्थ मैं ही समझाता था-सबसे बड़ा था.

प्लेग की वे रातें मेरे मन में गहरे उतरी हैं. जिस, आंतक, अनिश्चय निराशा और भय के बीच हम जी रहे थे, उसके सही अकंन के लिए बहुत पन्ने चाहिए. यह भी कि पिता के सिवा हम कोई टूटे नहीं थे. वह टूट गये थे. वह इसके बाद भी 5-6 साल जिये, लेकिन लगातार बीमार, हताश, निष्क्रिय और अपने से ही डरते हुए. धंधा ठप्प. जमा-पूंजी खाने लगे. मेरे मैट्रिक पास होने की राह देखी जाने लगी. समझने लगा था कि पिताजी भी अब जाते ही हैं. बीमारी की हालत में उन्होंने एक बहन की शादी कर ही दी थी-बहुत मनहूस उत्सव था वह. मैं बराबर समझ रहा था कि मेरा बोझ कम किया जा रहा है. फिर अभी दो छोटी बहनें और एक भाई थे.

मैं तैयार होने लगा. खूब पढ़ने वाला, खूब खेलने वाला और खूब खाने वाला मैं शुरू से था. पढ़ने और खेलने में मैं सब भूल जाता. मैट्रिक हुआ, जंगल विभाग में नौकरी मिली. जंगल में सरकारी टपरे में रहता. ईंटें रखकर, उन पर पटिये जमा कर बिस्तार लगाता, नीचे जमीन चूहों ने पोली कर दी थी. रात भर नीचे चूहे धमाचौकड़ी करते रहते और मैं सोता रहता. कभी चूहे ऊपर आ जाते तो नींद टूट जाती पर मैं फिर सो जाता. छह महीने धमाचौकड़ी करते चूहों पर मैं सोया. बेचारा परसाई?

नहीं, नहीं, मैं खूब मस्त था. दिन भर काम. शाम को जंगल में घुमाई फिर हाथ से बना कर खाया गया भरपेट भोजन-शुद्ध घी और दूध. और चूहों ने बड़ा उपकार किया. ऐसी आदत डाली कि आगे की जिन्दगी में भी तरह-तरह के चूहे मेरे नीचे ऊधम करते रहे हैं, सांप तक सर्राते रहे हैं, मगर मैं पटिया बिछा कर पटिये पर सोता रहा हूं. चूहों ने ही नहीं, मनुष्यनुमा बिच्छुओं और सांपों ने भी मुझे बहुत काटा है-पर ‘जहर मोहरा’ मुझे शुरू में ही मिल गया. इसलिए ‘बेचारा परसाई’ का मौका ही नहीं आने दिया. उसी उम्र से दिखाऊ सहानुभूति से मुझे बेहद नफरत है. अभी भी दिखाऊ सहानुभूति वाले को चांटा मार देने की इच्छा होती है जब्त कर जाता हूं वरना कई शुभचिंतक पिट जाते.

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