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Happy Birthday Gulzar: गुलजार साहब की लिखी वो मशहूर नज्में जिनसे 'गुलज़ार' है और रहेगी हमारी-आपकी जिंदगी

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गुलजार के ये शेर आपको एक हसीन सफर पर ले जाते हैं. वैसे तो गुलजार, एक ऐसा नाम है जो किसी पहचान का मोतहाज नहीं. उनके एक शेर से ही हम शुरूआत करते हैं.

शाम से आंख में नमी सी है, 
आज फिर आपकी कमी सी है, 
दफ़्न कर दो हमें कि सांस मिले, 
नब्ज़ कुछ देर से थमी सी है...

उन्होंने अपनी कलम के दम पर अपने लिए एक बड़ा मुकाम बनाया. मशहूर गीतकार, अफसाना निगार (शायर), पटकथा लेखक, फिल्म निर्देशक और नाटककार गुलजार 18 अगस्त को अपना 86वां जन्मदिन मना रहे हैं. उम्र के 86वें पड़ाव पर भी गुलजार की कलम ऐसे अफसाने लिख देती है जिन्हें पढ़कर शायद आप एक अलग ही दुनिया में खो जाते हैं , दशकों से अपने इसी हुनर से लोगों का दिल जीतने वाले इस शख्स ने मेकैनिक संपूर्ण सिंह कालरा से सिने जगत के गुलजार बनने का सफर बड़े संघर्षों से पूरा किया. बेहतरीन फिल्मों के साथ-साथ दिल को छूने वाली नज़्मों को लिखने वाले इस शख्स ने ऐसे गाने भी बनाए हैं, जिन्हें सुनकर आप कहीं खो से जाते हैं. आज गुलजार साहब के जन्मदिन पर आज आपको हम उनकी बेहतरीन शायरियां...

आँसू

अल्फाज जो उगते, मुरझाते, जलते, बुझते
रहते हैं मेरे चारों तरफ,
अल्फाज़ जो मेरे गिर्द पतंगों की सूरत उड़ते
रहते हैं रात और दिन
इन लफ़्ज़ों के किरदार हैं, इनकी शक्लें हैं,
रंग रूप भी हैं-- और उम्रें भी!

कुछ लफ्ज़ बहुत बीमार हैं, अब चल सकते नहीं,
कुछ लफ्ज़ तो बिस्तरेमर्ग पे हैं,
कुछ लफ्ज़ हैं जिनको चोटें लगती रहती हैं,
मैं पट्टियाँ करता रहता हूँ!

अल्फाज़ कई, हर चार तरफ बस यू हीं
थूकते रहते हैं,
गाली की तरह--
मतलब भी नहीं, मकसद भी नहीं--
कुछ लफ्ज़ हैं मुँह में रखे हुए
चुइंगगम की तरह हम जिनकी जुगाली करते हैं!
लफ़्ज़ों के दाँत नहीं होते, पर काटते हैं,
और काट लें तो फिर उनके जख्म नहीं भरते!
हर रोज मदरसों में 'टीचर' आते है गालें भर भर के,
छः छः घंटे अल्फाज लुटाते रहते हैं,
बरसों के घिसे, बेरंग से, बेआहंग से,
फीके लफ्ज़ कि जिनमे रस भी नहीं,
मानि भी नहीं!

एक भीगा हुआ, छ्ल्का छल्का, वह लफ्ज़ भी है,
जब दर्द छुए तो आँखों में भर आता है
कहने के लिये लब हिलते नहीं,
आँखों से अदा हो जाता है!!

किताबें


 

किताबें झांकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं,
अब अक्सर
गुज़र जाती हैं 'कम्प्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें..
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई हैं,
बड़ी हसरत से तकती हैं,

जो क़दरें वो सुनाती थीं।
कि जिनके 'सैल'कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला

ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो सफ़हे पलटने का
अब ऊँगली 'क्लिक'करने से अब
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था,कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने,गिरने,उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे!

आवारा रहूँगा


 

रोज़े-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बन्जारा रहूंगा

चांद पे रुकना आगे खला है
मार्स से पहले ठंडी फ़िज़ा है
इक जलता हुआ चलता हुआ सयारा रहूंगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बनजारा रहूंगा
रोजे-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा

उलकायों से बचके निकलना
कौमेट हो तो पंख पकड़ना
नूरी रफ़तार से मैं कायनात से मैं गुज़रा करूंगा
चांद तारों से गुज़रता हुआ बनजारा रहूंगा
रोजे-अव्वल ही से आवारा हूँ आवारा रहूँगा.

हनीमून


 

कल तुझे सैर करवाएंगे समन्दर से लगी गोल सड़क की
रात को हार सा लगता है समन्दर के गले में !

घोड़ा गाडी पे बहुत दूर तलक सैर करेंगे
धोडों की टापों से लगता है कि कुछ देर के राजा है हम !

गेटवे ऑफ इंडिया पे देखेंगे हम ताज महल होटल
जोड़े आते हैं विलायत से हनीमून मनाने ,
तो ठहरते हैं यही पर !

आज की रात तो फुटपाथ पे ईंट रख कर ,
गर्म कर लेते हैं बिरयानी जो ईरानी के होटल से मिली है
और इस रात मना लेंगे "हनीमून" यहीं जीने के नीचे !

उस रात


 

उस रात बहुत सन्नाटा था !
उस रात बहुत खामोशी थी !!
साया था कोई ना सरगोशी
आहट थी ना जुम्बिश थी कोई !!
आँख देर तलक उस रात मगर
बस इक मकान की दूसरी मंजिल पर
इक रोशन खिड़की और इक चाँद फलक पर
इक दूजे को टिकटिकी बांधे तकते रहे
रात ,चाँद और मैं तीनो ही बंजारे हैं ........
तेरी नम पलकों में शाम किया करते हैं
कुछ ऐसी एहतियात से निकला है चाँद फिर
जैसे अँधेरी रात में खिड़की पे आओ तुम !
क्या चाँद और ज़मीन में भी कोई खिंचाव है
रात ,चाँद और मैं मिलते हैं तो अक्सर हम
तेरे लहज़े में बात किया करते हैं !!
सितारे चाँद की कश्ती में रात लाती है
सहर में आने से पहले बिक भी जाते हैं !
बहुत ही अच्छा है व्यापार इन दिनों शब का
बस इक पानी की आवाज़ लपलपाती है
की घात छोड़ के माझी तमामा जा भी चुके हैं ....
चलो ना चाँद की कश्ती में झील पार करें
रात चाँद और मैं अक्सर ठंडी झीलों को
डूब कर ठंडे पानी में पार किया करते हैं !!

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