Goswami Tulsidas Biography In Hindi: हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र कहलाने वाले महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का जीवन परिचय
गोस्वामी तुलसीदास (Goswami Tulsidas) का जन्म 1532 ई. और मृत्यु- 1623 ई. में हुई थी। ये हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि थे। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है। श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ 'श्रीरामचरितमानस' 'वाल्मीकि रामायण' का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है, जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है, तो आईये आज आपको मिलाएं इनके जीवन से करीब से....
| तुलसीदास |
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| पूरा नाम | गोस्वामी तुलसीदास |
| जन्म | सन 1532 (संवत- 1589) |
| जन्म भूमि | राजापुर, उत्तर प्रदेश |
| मृत्यु | सन 1623 (संवत- 1680) |
| मृत्यु स्थान | काशी |
| अभिभावक | आत्माराम दुबे और हुलसी |
| पति/पत्नी | रत्नावली |
| कर्म भूमि | बनारस |
| कर्म-क्षेत्र | कवि, समाज सुधारक |
| मुख्य रचनाएँ | रामचरितमानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा आदि। |
| विषय | सगुण भक्ति |
| भाषा | अवधी, हिन्दी |
| नागरिकता | भारतीय |
| संबंधित लेख | तुलसीदास जयंती |
| गुरु | आचार्य रामानन्द |
| अन्य जानकारी | तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे। |
तुलसीदासजी का जन्म | Goswami Tulsidas Birth
लोकनायक गोस्वामी तुलसीदास जी के जीवन-चरित्र से सम्बन्धित प्रामाणिक सामग्री अभी तक नहीं प्राप्त हो सकी है। डॉ० नगेन्द्र द्वारा लिखित ‘हिन्दी-साहित्य का इतिहास’ में इनके सन्दर्भ में जो प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं, वे इस प्रकार हैं- बेनीमाधव प्रणीत ‘मूल गोसाईंचरित’ तथा महात्मा रघुबरदास रचित ‘तुलसीचरित’ में तुलसीदास जी का जन्म संवत् 1554 वि० (सन् 1497 ई०) दिया गया है। बेनीमाधवदास की रचना में गोस्वामीजी की जन्म-तिथि श्रावण शुक्ला सप्तमी का भी उल्लेख है। शिवसिंह सरोज’ में इनका जन्म संवत् 1583 वि० (सन् 1526 ई०) बताया गया है। पं० रामगुलाम द्विवेदी ने इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532 ई०) स्वीकार किया है। सर जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा भी इसी जन्म संवत् को मान्यता दी गई है। निष्कर्ष रूप में जनश्रुतियों एवं सर्वमान्य तथ्यों के अनुसार इनका जन्म संवत् 1589 वि० (सन् 1532 ई०) माना जाता है।
तुलसीदासजी का जन्म स्थान | Goswami Tulsidas Birth Palace
इनके जन्म स्थान के सम्बन्ध में भी पर्याप्त मतभेद हैं। ‘तुलसीचरित’ में इनका जन्मस्थान राजापुर बताया गया है, जो उत्तर प्रदेश के बाँदा जिले का एक गाँव है। कुछ विद्वान् तुलसीदास द्वारा रचित पंक्ति “मैं पुनि निज गुरु सन सुनि, कथा सो सूकरखेत” के आधार पर इनका जन्मस्थल एटा जिले के ‘सोरो’ नामक स्थान को मानते हैं, जबकि कुछ विद्वानों का मत है कि ‘सूकरखेत’ को ‘भ्रमवश ‘सोरो’ मान लिया गया है। वस्तुतः यह स्थान आजमगढ़ जिले में स्थित है। इन तीनों मतों में इनके जन्मस्थान को ‘राजापुर’ माननेवाला मत ही सर्वाधिक उपयुक्त समझा जाता है।
तुलसीदासजी का परिवार | Goswami Tulsidas Family
जनश्रुतियों के आधार पर यह माना जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास के पिता का नाम आत्माराम दुबे एवं माता का नाम हुलसी था। इनका बचपन का नाम ‘तुलाराम’ था। कहा जाता है कि जब इनका जन्म हुआ तब ये पांच वर्ष के बालक मालूम होते थे, दांत सब मौजूद थे और जन्मते ही इनके मुख से ‘राम’ शब्द निकला। इसलिए इन्हें ‘रामबोला’ भी कहा जाता है। आश्चर्यचकित होकर, इन्हें राक्षस समझकर इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था।
| पिता का नाम (Father) | आत्माराम शुक्ल दुबे |
|---|---|
| माँ का नाम (Mother) | हुलसी दुबे |
| पत्नी का नाम (Wife) | बुद्धिमती (रत्नावली) |
| बच्चो के नाम (Children) | बेटा – तारक शैशवावस्था में ही निधन |
तुलसीदासजी का बचपन | Goswami Tulsidas Early Life
तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता, कहा जाता है कि जब इनका जन्म हुआ तब ये पांच वर्ष के बालक मालूम होते थे, दांत सब मौजूद थे और जन्मते ही इनके मुख से ‘राम’ शब्द निकला। इसलिए इन्हें ‘रामबोला’ भी कहा जाता है। आश्चर्यचकित होकर, इन्हें राक्षस समझकर इनके माता-पिता ने इन्हें बाल्यकाल में ही त्याग दिया था। ‘कवितावली’ के “मतु पिता जग जाइ तज्यौं बिधिहू न लिख्यो कछु भाल भला है” अथवा “बारे तै ललात बिललात द्वार-द्वार दीन, चाहत हो चारि फल चारि ही चनक को” आदि अन्तःसाक्ष्य यह स्पष्ट करते हैं कि तुलसीदास जी का बचपन अनेकानेक आपदाओं के बीच व्यतीत हुआ है। माता-पिता द्वारा त्याग दिए जाने के कारण इनका पालन-पोषण एक दासी ने तथा ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रसिद्ध सन्त बाबा नरहरिदास ने प्रदान की।
तुलसीदासजी का विवाह | Goswami Tulsidas Marrige
इनका विवाह पं० दीनबन्धु पाठक की पुत्री ‘रत्नावली’ से हुआ था। ऐसा प्रसिद्ध है कि रत्नावली की फटकार से ही इनके मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। कहा जाता है कि ये अपनी रूपवती पत्नी के प्रति अत्यधिक आसक्त थे, एक बार पत्नी द्वारा बिना बताए ही मायके चले जाने पर प्रेमातुर तुलसी अर्द्धरात्रि में आंधी-तूफान का सामना करते हुए अपनी ससुराल जा पहुंचे। पत्नी ने इसके लिए इन्हें फटकारा और इस पर इनकी पत्नी ने एक बार इनकी भर्त्सना करते हुए कहा—
लाज न लागत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक् धिक् ऐसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ॥
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामे ऐसी प्रीति।
ऐसी जो श्रीराम महँ, होत न तौ भवभीति॥
पत्नी की इस फटकार ने तुलसीदास जी को सांसारिक मोह-माया और भोगों से विरक्त कर दिया। इनके हृदय में राम-भक्ति जाग्रत हो उठी। घर को त्यागकर कुछ दिन ये काशी में रहे, इसके बाद अयोध्या चले गए। बहुत दिनों तक ये चित्रकूट में भी रहे। यहाँ पर इनकी भेंट अनेक सन्तों से हुई। संवत् 1631 (सन् 1574 ई०) में अयोध्या जाकर इन्होंने ‘श्रीरामचरितमानस’ की रचना की। यह रचना दो वर्ष सात मास में पूर्ण हुई। इसके बाद इनका अधिकांश समय काशी में ही व्यतीत हुआ तथा संवत् 1680 (सन् 1623 ई०) में श्रावण शुक्ल पक्ष सप्तमी को काशी के असीघाट पर तुलसीदास जी राम-राम कहते हुए इनकी मृत्यु हो गई। इनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है—
संवत् सोलह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर॥
तुलसीदासजी के गुरु और शिक्षा | Goswami Tulsidas Education And Teacher
इनका पालन-पोषण प्रसिद्ध संत नरहरी दास ने किया और इन्हें ज्ञान एवं भक्ति की शिक्षा प्रदान की। गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ व सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"
तुलसीदासजी एक कवि के रूप में
उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रंथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। तुलसीदासजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।
तुलसीदासजी का व्यक्तित्व
भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत् 1561 माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत् हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।
तुलसीदासजी की प्रसिद्धि
इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥
तुलसीदास का साहित्यिक परिचय
तुलसीदास जिस काल में उत्पन्न हुए, उस समय हिन्दू-जाति धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक अधोगति को पहुँच चुकी थी। हिन्दुओं का धर्म और आत्म-सम्मान यवनों के अत्याचारों से कुचला जा रहा था। सभी ओर निराशा का वातावरण व्याप्त था। ऐसे समय में अवतरित होकर गोस्वामी जी ने जनता के सामने भगवान राम का लोकरक्षक रूप प्रस्तुत किया, जिन्होंने यवन शासकों से कहीं अधिक शक्तिशाली रावण को केवल वानर-भालुओं के सहारे ही कुलसहित नष्ट कर दिया था। गोस्वामी जी का अकेला यही कार्य इतना महान् था कि इसके बल पर वे सदा भारतीय जनता के हृदय सम्राट् बने रहेंगे।
काव्य के उद्देश्य के सम्बन्ध में तुलसी का दृष्टिकोण सर्वथा सामाजिक था। इनके मत में वही कीर्ति, कविता और सम्पत्ति उत्तम है जो गंगा के समान सबका हित करने वाली हो— “कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सबकर हित होई ॥” जनमानस के समक्ष सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन का उच्चतम आदर्श रखना ही इनका काव्यादर्श था। जीवन के मार्मिक स्थलों की इनको अद्भुत पहचान थी। तुलसीदास ने राम के शक्ति, शील, सौन्दर्य समन्वित रूप की अवतारणा की है। इनका सम्पूर्ण काव्य समन्वय-भाव की विराट चेष्टा है। ज्ञान की अपेक्षा भक्ति का राजपथ ही इन्हें अधिक रुचिकर लगा है।
तुलसीदास जी की भाषा शैली | Goswami Tulsidas Literature Language
भाषा-शैली
ब्रज एवं अवधी दोनों ही भाषाओं पर तुलसी का समान अधिकार था। कवितावली, गीतावली, विनयपत्रिका आदि रचनाएं ब्रजभाषा में और रामचरितमानस अवधी भाषा में है। अवधी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों के प्रयोग के कारण इनकी रचनाओं में साहित्यिकता उच्चकोटि की है। यत्र-तत्र अरबी, फारसी, उर्दू तथा बुन्देलखण्डी भाषाओं के शब्द भी देखने को मिलते हैं। अपने समय में प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य-शैलियों में तुलसी ने पूर्ण सफलता के साथ काव्य रचना की है। दोहावली में दोहा पद्धति, रामचरितमानस में दोहा-चौपाई पद्धति, विनयपत्रिका में गीति पद्धति, कवितावली में कवित्त- सवैया पद्धति को इन्होंने अपनाया है। इन सभी शैलियों में इन्हें अद्भुत सफलता मिली है जो इनकी सर्वतोमुखी प्रतिभा तथा काव्यशास्त्र में इनकी गहन अंतर्दृष्टि की परिचायक है। इनके काव्य में भाव-पक्ष के साथ कला-पक्ष की भी पूर्णता है जिसको नीचे समझाया गया है।
तुलसीदास की काव्यगत विशेषताएँ | Goswami Tulsidas Literature
काव्यगत विशेषताएँ
तुलसी की कविता का भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों ही उच्चकोटि के हैं। इसीलिए तुलसी हिन्दी साहित्य के सर्वश्रेष्ठ कवि माने जाते हैं। इनकी काव्यगत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
भाव पक्ष
तुलसीदास जी की भक्ति दास्य-भाव की है। वे राम के अनन्य भक्त हैं। राम स्वामी हैं और तुलसी सेवक हैं। तुलसी का काव्य हिन्दू धर्म, संस्कृति और दर्शन का पवित्र संगम है। इनकी कविता में समन्वय की भावना सर्वत्र विद्यमान है। इन्होंने शैव और वैष्णव के भेद को समाप्त करके धार्मिक समन्वय का प्रयास किया। उनके राम कहते हैं-
शिव द्रोही मम दास कहावा।
सो नर मोहि सपनेहुं नहिं भावा॥
सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन का उच्चतम आदर्श ‘जन-मानस के सम्मुख रखना ही तुलसी के काव्य का आदर्श था।
कला पक्ष
तुलसी ने अवधी और ब्रज दोनों भाषाओं का समान रूप में प्रयोग किया है। इन्होंने अपने समय तक प्रचलित दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया, पद आदि काव्य शैलियों में पूर्ण सफलता के साथ ‘काव्य रचना’ की है। इसकी रचना में प्रायः सभी प्रकार के अलंकारों एवं रसों का बड़ा सुन्दर और स्वाभाविक समावेश हुआ है। उपमा, रूपक और उत्प्रेक्षा तुलसी के प्रिय अलंकार हैं। उत्पेक्षा, अनुप्रास और रूपक अलंकार का एक साथ प्रयोग देखिए-
अनुराग-तड़ाग में भानु उदै।
विगसी मनौ मंजुल कंज-कली॥
तुलसीदासजी की रचनाएँ | Goswami Tulsidas Creations And Writings
अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छह मध्यम श्रेणी में आती हैं। इन्हें संस्कृत विद्वान् होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।
- मैं केहि कहौ बिपति अति भारी
- सखि नीके कै निरखि कोऊ सुठि सुंदर बटोही
- ताहि ते आयो सरन सबेरे
- हरि को ललित बदन निहारु
- कलि नाम काम तरु रामको
- ऐसी मूढता या मन की
- धनुर्धर राम
- मनोहरताको मानो ऐन
- काहे ते हरि मोहिं बिसारो
- सखि! रघुनाथ-रूप निहारु
- जौ पै जिय धरिहौ अवगुन ज़नके
- हरि! तुम बहुत अनुग्रह किन्हों
- भज मन रामचरन सुखदाई
- केशव,कहि न जाइ
- श्री रामचँद्र कृपालु भजु मन
- जो मन लागै रामचरन अस
- माधव! मो समान जग माहीं
- कौन जतन बिनती करिये
- यह बिनती रहुबीर गुसाईं
- जो मोहि राम लागते मीठे
- दीन-हित बिरद पुराननि गायो
- जागिये कृपानिधान जानराय, रामचन्द्र
- मनोरथ मनको एकै भाँति
- मैं हरि, पतित पावन सुने
- जानकी जीवन की बलि जैहों
- तन की दुति स्याम सरोरुह
- लाभ कहा मानुष-तनु पाये
- अब लौं नसानी, अब न नसैहों
- मेरो मन हरिजू! हठ न तजै
- तऊ न मेरे अघ अवगुन गनिहैं
- मैं एक, अमित बटपारा
- मन माधवको नेकु निहारहि
- देव! दूसरो कौन दीनको दयालु
- राघौ गीध गोद करि लीन्हौ
- मन पछितैहै अवसर बीते
- यों मन कबहूँ तुमहिं न लाग्यो
- सुन मन मूढ
- और काहि माँगिये, को मागिबो निवारै
- लाज न आवत दास कहावत
- दूल्ह राम
- मेरे रावरिये गति रघुपति है बलि जाउँ
- हे हरि! कवन जतन भ्रम भागै
- कब देखौंगी नयन वह मधुर मूरति
- रघुपति! भक्ति करत कठिनाई
- बजरंग बाण
- भाई! हौं अवध कहा रहि लैहौं
- बिनती भरत करत कर जोरे
- कबहुंक हौं यहि रहनि रहौंगो
- माधवजू मोसम मंद न कोऊ
- भरोसो जाहि दूसरो सो करो
- राम राम रटु, राम राम रटु
- माधव, मोह-पास क्यों छूटै
- रामलला नहछू
- ममता तू न गई मेरे मन तें
- राम-पद-पदुम पराग परी
- नाहिन भजिबे जोग बियो
| रचना | सामान्य परिचय |
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| रामचरितमानस | “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान् काव्य रचना है। |
| दोहावली | दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है। इन दोहों में से अनेक दोहे तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है। |
| कवितावली | सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं। |
| गीतावली | गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है। सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है। मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं। |
| विनय पत्रिका | विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की। |
| कृष्ण गीतावली | कृष्ण गीतावली में श्रीकृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है। कृष्ण की बाल्यावस्था और 'गोपी - उद्धव संवाद' के प्रसंग कवित्व व शैली की दृष्टि से अत्यधिक सुंदर हैं। |
| रामलला नहछू | यह रचना सोहर छ्न्दों में है और राम के विवाह के अवसर के नहछू का वर्णन करती है। नहछू नख काटने एक रीति है, जो अवधी क्षेत्रों में विवाह और यज्ञोपवीत के पूर्व की जाती है। |
| वैराग्य संदीपनी | यह चौपाई - दोहों में रची हुई है। दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार वैराग्योपदेश है। |
| रामाज्ञा प्रश्न | रचना अवधी में है और तुलसीदास की प्रारम्भिक कृतियों में है। यह एक ऐसी रचना है, जो शुभाशुभ फल विचार के लिए रची गयी है किंतु यह फल-विचार तुलसीदास ने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है। |
| जानकी मंगल | इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है। |
| सतसई | दोहों का एक संग्रह ग्रंथ है। इन दोहों में से अनेक दोहे 'दोहावली' की विभिन्न प्रतियों में तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है। |
| पार्वती मंगल | इसका विषय शिव - पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी सोहर और हरिगीतिका छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति अवधी है। |
| बरवै रामायण | बरवै रामायण रचना के मुद्रित पाठ में स्फुट 69 बरवै हैं, जो 'कवितावली' की ही भांति सात काण्डों में विभाजित है। |
| हनुमान चालीसा | इसमें प्रभु राम के महान् भक्त हनुमान के गुणों एवं कार्यों का चालीस (40) चौपाइयों में वर्णन है। यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है। |
तुलसीदास की राम भक्ति | Goswami Tulsidas And Ram
गोस्वामी तुलसीदास राम के भक्त थे। इनकी भक्ति दास्य-भाव की थी। सम्वत् 1631 में इन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ की रचना आरम्भ की। इनके इस ग्रन्थ में विस्तार के साथ राम के चरित्र का वर्णन हुआ है। तुलसी के राम में शक्ति, शील और सौन्दर्य तीनों गुणों का अपूर्व सामंजस्य है। मानव-जीवन के सभी उच्चादर्शों का समावेश करके इन्होंने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम बना दिया है। अवधी भाषा में रचित रामचरितमानस बड़ा ही लोकप्रिय ग्रन्थ है। विश्व-साहित्य के प्रमुख ग्रन्थों में इसकी गणना की जाती है। रामचरितमानस के अतिरिक्त इन्होंने जानकी-मंगल, पार्वती-मंगल, रामलला-नहछू, रामाज्ञा-प्रश्न, बरवै-रामायण, वैराग्य-संदीपनी, कृष्ण-गीतावली, दोहावली, कवितावली, गीतावली तथा विनय-पत्रिका आदि ग्रन्थों की रचना की।
तुलसीदासजी का निधन | Goswami Tulsidas Death
तुलसीदास जी जब काशी के विख्यात् घाट असीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। संवत् 1680 में श्रावण कृष्ण सप्तमी शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। तुलसीदास के निधन के संबंध में निम्नलिखित दोहा बहुत प्रचलित है-
संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।।
तुलसीदास जी का जीवन के संबंध में प्रश्न एवं उत्तर | Goswami Tulsidas FAQs
Ans. तुलसीदास जी का जन्म 1511 ई० (सम्वत्- 1568 वि०) कासगंज , उत्तर प्रदेश (भारत) में हुआ था।
Ans. तुलसीदास जी के बचपन का नाम रामबोला था।
Ans. रामचरितमानस, कवितावली, संकट मोचन और वैराग्य संदीपनी आदि तुलसीदास की कुछ प्रमुख प्रसिद्ध रचनायें हैं।
Ans. आपकी जानकारी के लिए बता दें की तुलसीदास की धर्मपत्नी का नाम रत्नावली था।
Ans. तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना 1631 में चैत्र मास की रामनवमी से लेकर 1633 में मार्गशीर्ष के बीच की थी।
Ans. हनुमान चालीसा का जिक्र गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस में मिलता है।
Ans.
आनन्दकानने ह्यास्मिंजंगमस्तुलसीतरुः।
कवितामंजरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

