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Asrar ul Haq Majaz Lakhnawi Shayari: देश के सबसे ज्यादा पसंद किये जाने वाले शायर मजाज़ लखनवी के सबसे मशहूर शेर 

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मजाज़ उस दौर के शायर हैं जब उर्दू में तरक्कीपसंद शायराना अदब अपना आकार ले रहा था। मजाज़ के कलाम में जगह-जगह रूमानियत भी दिखाई देती है। उनके व्यक्तित्व में संकल्पशीलता और अति संवेदनशीलता का एक अजीब विरोधाभास था। संकल्पशीलता उभरकर सामने आती तो साम्राज्यवाद और फासीवाद के खिलाफ बयान जारी करते, लेकिन जब अति संवेदनशीलता उभरती तो हुस्न, इश्क़ और शराब की गहराइयों में डूब जाते, तो आईये पेश करते हैं उनके ऐसे ही कुछ जज़्बाती शेर,,,,,,

बताऊँ क्या तुझे ऐ हम-नशीं किस से मोहब्बत है
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो इस दुनिया की औरत है

दफ़्न कर सकता हूँ सीने में तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूँ मैं

ये महताब नहीं है...

ये महताब नहीं है कि आफ़ताब नहीं
सभी हैं हुस्न मगर इश्क़ का जवाब नहीं

ख़ुद दिल में रहके आंख से पर्दा करे कोई
हां लुत्फ जब है पा के ढूंढा करे कोई

हमेशा ख़ून पीकर हड्डियों के रथ में चलती है
ज़माना चीख़ उठता है ये जब पहलू बदलती है

तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत

कब किया था इस दिल पर हुस्न ने करम इतना
मेहरबाँ और इस दर्जा कब था आसमाँ अपना

तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही ख़ूब है लेकिन
तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था

नूर ही नूर है किस सम्त उठाऊं आंखें
हुस्न ही हुस्न है ता हद्दे नजर आज की रात

क्या-क्या हुआ है हमसे

आंख से आंख जब नहीं मिलती, दिल से दिल का कलाम होता है
हुस्न को शर्मसार करना ही इश्क़ का इन्तक़ाम होता है

वां इशारे में बहक जाना ही ऐने होश है
होश में रहना यक़ीनन सख़्त नादानी है आज

क्या-क्या हुआ है हमसे जुनूं में न पूछिए
उलझे कभी ज़मीं से, कभी आसमां से हम

उस मय का क्या कहना

छलकती है जो तेरे जाम से उस मय का क्या कहना
तेरे शादाब होठों की मगर कुछ और है साक़ी

तुम्हीं तो हो जिसे कहती है नाख़ुदा दुनिया
बचा सको तो बचा लो कि डूबता हूँ मैं

ये आना कोई आना है कि बस रस्मन चले आए
ये मिलना ख़ाक मिलना है कि दिल से दिल नहीं मिलता

जिगर और दिल को बचाना भी है

जिगर और दिल को बचाना भी है
नज़र आप ही से मिलाना भी है

मोहब्बत का हर भेद पाना भी है
मगर अपना दामन बचाना भी है

हुस्न का ग़म भी हसीं फ़िक्र हसीं दर्द हसीं
उन को हर रंग में हर तौर सँवर जाना था


ख़ुद अपनी ही हर आहट पर

दिल धड़क उठता है ख़ुद अपनी ही हर आहट पर
अब क़दम मंज़िल-ए-जानाँ से बहुत दूर नहीं

दफ़्न कर सकता हूं सीने में तुम्हारे राज़ को
और तुम चाहो तो अफ़्साना बना सकता हूं मैं

वो मुझको चाहती है, और मुझ तक आ नहीं सकती
मैं उसको पूजता हूं, और उसको पा नहीं सकता

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