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Akhtarul Iman Shayari: मशहूर उर्दू शायर अख़्तरुल ईमान की लिखी कुछ सबसे मशहूर नज़्में

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अख़तरुल ईमान ने ज़िंदगी में बहुत कुछ देखा और बहुत कुछ झेला। वो 12 नवंबर 1915 को पश्चिमी उतर प्रदेश के ज़िला बिजनौर की एक छोटी सी बस्ती क़िला पत्थरगढ़ में एक निर्धन घराने में पैदा हुए। वालिद का नाम हाफ़िज़ फ़तह मुहम्मद था जो पेशे से इमाम थे और मस्जिद में बच्चों को पढ़ाया भी करते थे। उस घराने में दो वक़्त की रोटी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मसला थी। वालिद की रंगीन मिज़ाजी की वजह से माँ-बाप के ताल्लुक़ात कशीदा रहते थे और माँ अक्सर झगड़ा कर के अपने मायके चली जाती थीं और अख़तर शिक्षा के विचार से बाप के पास रहते। वालिद ने उनको क़ुरआन हिफ़्ज़ करने पर लगा दिया लेकिन जल्द ही उनकी चची जो ख़ाला भी थीं उनको दिल्ली ले गईं और अपने पास रखने के बजाय उनको एक अनाथालय मोईद-उल-इस्लाम (दरियागंज स्थित मौजूदा बच्चों का घर) में दाख़िल करा दिया। 

यहां अख़तरुल ईमान ने आठवीं जमात तक शिक्षा प्राप्त की। मोईद-उल-इस्लाम के एक उस्ताद अब्दुल वाहिद ने अख़तरुल ईमान को लिखने-लिखाने और भाषण देने की तरफ़ ध्यान दिलाया और उन्हें एहसास दिलाया कि उनमें अदीब-ओ-शायर बनने की बहुत संभावनाएं हैं। उनकी हौसला-अफ़ज़ाई से अख़तर ने सत्रह-अठारह साल की उम्र में शायरी शुरू कर दी। यह स्कूल सिर्फ़ आठवीं जमात तक था, यहां से आठवीं जमात पास करने के बाद उन्होंने फ़तेहपुरी स्कूल में दाख़िला ले लिया जहां उनके हालात और शिक्षा के शौक़ को देखते हुए उनकी फ़ीस माफ़ कर दी गई और वो चचा का मकान छोड़कर अलग रहने लगे और ट्युशन से अपनी गुज़र बसर करने लगे। 1937 ई. में उन्होंने उसी स्कूल से मैट्रिक पास किया, तो आईये मिलाएं इनको मशहूर नज्में 

तब्दीली

इस भरे शहर में कोई ऐसा नहीं 
जो मुझे राह चलते को पहचान ले 
और आवाज़ दे ओ बे ओ सर-फिरे 
दोनों इक दूसरे से लिपट कर वहीं 
गिर्द-ओ-पेश और माहौल को भूल कर 
गालियाँ दें हँसें हाथा-पाई करें 
पास के पेड़ की छाँव में बैठ कर 
घंटों इक दूसरे की सुनें और कहें 
और इस नेक रूहों के बाज़ार में 
मेरी ये क़ीमती बे-बहा ज़िंदगी 
एक दिन के लिए अपना रुख़ मोड़ ले 

आख़िरी मुलाक़ात

आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम! 
आती नहीं कहीं से दिल-ए-ज़िंदा की सदा 
सूने पड़े हैं कूचा ओ बाज़ार इश्क़ के 
है शम-ए-अंजुमन का नया हुस्न जाँ-गुदाज़ 
शायद नहीं रहे वो पतिंगों के वलवले 
ताज़ा न रह सकेंगी रिवायात-ए-दश्त-ओ-दर 
वो फ़ित्ना-सर गए जिन्हें काँटे अज़ीज़ थे 
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएँ हम 
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम! 
सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी 
इक बार फिर मिले हैं, ज़रा मुस्कुरा तो लें! 
क्या जाने अब न उल्फ़त-ए-देरीना याद आए 
इस हुस्न-ए-इख़्तियार पे आँखें झुका तो लें 
बरसा लबों से फूल तिरी उम्र हो दराज़ 
सँभले हुए तो हैं प ज़रा डगमगा तो लें 
और अपना अपना अहद-ए-वफ़ा भूल जाएँ हम 
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम! 
बरसों की बात है कि मिरे जी में आई थी 
मैं सोचता था तुझ से कहूँ, छोड़ क्या कहूँ 
अब कौन उन शिकस्ता मज़ारों की बात लाए 
माज़ी पे अपने हाल को तरजीह क्यूँ न दूँ 
मातम ख़िज़ाँ का हो कि बहारों का, एक है 
शायद न फिर मिले तिरी आँखों का ये फ़ुसूँ 
जो शम्अ-ए-इंतिज़ार जली थी बुझाएँ हम 
आओ कि जश्न-ए-मर्ग-ए-मोहब्बत मनाएँ हम! 

 

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