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Japan ने किया सदी का सबसे बड़ा चमत्कार, साकार किया आर्टिफिशियल ब्लड बनाने का सपना

Japan ने किया सदी का सबसे बड़ा चमत्कार, साकार किया आर्टिफिशियल ब्लड बनाने का सपना

कल्पना कीजिए एक ऐसी दुनिया की, जहाँ हर अस्पताल, हर एम्बुलेंस और हर युद्ध के मैदान पर बिना रक्त समूह मिलाए, बिना ठंडे भंडारण की आवश्यकता के, तुरंत रक्त उपलब्ध हो सके। यह अब कोई साइंस फिक्शन नहीं है, बल्कि जापानी वैज्ञानिकों की ऐतिहासिक खोज ने इसे हकीकत के करीब पहुँचा दिया है। जापान के शोधकर्ताओं ने ऐसा कृत्रिम रक्त (Artificial Blood) विकसित कर लिया है जो किसी भी व्यक्ति को बिना रक्त समूह (Blood Group) मिलाए चढ़ाया जा सकता है। इस खोज से न केवल चिकित्सा जगत में क्रांति आ सकती है, बल्कि आपातकालीन स्थितियों में हजारों लोगों की जान बचाई जा सकती है।

वैश्विक समस्या का सार्वभौमिक समाधान

रक्त चढ़ाना आपातकालीन चिकित्सा, सर्जरी, दुर्घटना उपचार और सेना की आवश्यकताओं में जीवन रक्षक प्रक्रिया है। लेकिन इस प्रक्रिया के साथ कई सीमाएं जुड़ी हैं। रक्तदाता का रक्त समूह मरीज के रक्त समूह से मिलना चाहिए, रक्त को ठंडे तापमान पर सुरक्षित रखना होता है और इसकी उपयोगिता भी सीमित समय तक होती है। परंतु जापान के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित यह कृत्रिम रक्त इन सभी सीमाओं को समाप्त कर सकता है। इसका सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह सभी रक्त समूहों के लिए उपयुक्त है। यानी इसे किसी भी मरीज को, चाहे उसका रक्त समूह कोई भी हो, बिना किसी खतरे के चढ़ाया जा सकता है। आपातकालीन स्थितियों में जहाँ हर सेकंड महत्वपूर्ण होता है, वहाँ यह नवाचार अनगिनत जिंदगियों को बचा सकता है। इसके अतिरिक्त यह रक्त कमरे के तापमान पर दो वर्षों तक खराब नहीं होता, जबकि सामान्य रक्त 42 दिनों के भीतर खराब हो जाता है और इसे लगातार फ्रिज में रखना पड़ता है। इस वजह से यह कृत्रिम रक्त दूरदराज के इलाकों, आपदा प्रभावित क्षेत्रों और कमजोर स्वास्थ्य सुविधाओं वाले देशों के लिए अत्यंत उपयोगी साबित हो सकता है।

कैसे काम करता है यह  ?

इस कृत्रिम रक्त को जापान के नेशनल डिफेंस मेडिकल कॉलेज और अन्य संस्थानों के वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। इसे "हेमोग्लोबिन वेसीकल टेक्नोलॉजी" (Hemoglobin Vesicle Technology) के जरिए बनाया गया है।

इस प्रक्रिया में –

  1. समाप्त हो चुके डोनेटेड रक्त से हेमोग्लोबिन निकाला जाता है।

  2. इस हेमोग्लोबिन को सिंथेटिक लिपिड झिल्ली (Lipid Membrane) के भीतर बंद किया जाता है जिससे नैनो आकार के छोटे-छोटे कण बनते हैं जो असली लाल रक्त कोशिकाओं की तरह दिखते हैं।

  3. ये कण (Vesicles) शरीर में ऑक्सीजन पहुँचाने का वही कार्य करते हैं जैसा सामान्य लाल रक्त कोशिकाएँ करती हैं।

  4. इसके अलावा इसमें कुछ संस्करण ऐसे भी हैं जिनमें प्लेटलेट्स जैसे गुण मौजूद हैं, जिससे यह रक्त का थक्का जमाने में भी मदद कर सकता है।

इस तरह यह कृत्रिम रक्त शरीर में रक्त की दो सबसे महत्वपूर्ण क्रियाएँ – ऑक्सीजन परिवहन और रक्तस्राव रोकना – दोनों काम कर सकता है।

2030 तक व्यावसायिक शुरुआत का लक्ष्य

अब तक के प्रायोगिक परीक्षणों में यह कृत्रिम रक्त पूरी तरह सुरक्षित पाया गया है। 100 मिलीलीटर की छोटी मात्रा जानवरों और कुछ स्वस्थ मानव स्वयंसेवकों को दी गई, जिसमें कोई गंभीर दुष्प्रभाव नहीं देखा गया। 2025 में बड़े पैमाने पर मानव परीक्षण शुरू हो गए हैं जिनमें सुरक्षा, अवशोषण (Absorption) और समग्र प्रदर्शन की जाँच की जा रही है। यदि ये परीक्षण सफल रहते हैं तो 2030 तक इस तकनीक का व्यावसायिक उपयोग शुरू हो सकता है। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कृत्रिम रक्त आपातकालीन चिकित्सा, सैन्य अभियानों और मानवीय आपदा क्षेत्रों में बहुत अहम भूमिका निभाएगा।

सिर्फ इलाज नहीं

जापान में यह खोज ऐसे समय पर सामने आई है जब देश में बुजुर्गों की संख्या लगातार बढ़ रही है और रक्तदाताओं की संख्या घट रही है। विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले समय में कई अन्य देशों में भी यही स्थिति बन सकती है, जिससे रक्त की मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर पैदा होगा। प्राकृतिक आपदाओं, आतंकवादी हमलों या युद्ध जैसे संकट के समय यदि टाइप मैचिंग और रेफ्रिजरेशन की आवश्यकता न हो तो राहत कार्यों में बहुत तेजी लाई जा सकती है। यह कृत्रिम रक्त ऐसी स्थिति में बेहद कारगर साबित होगा क्योंकि इसे कहीं भी ले जाया जा सकता है और तुरंत उपयोग किया जा सकता है।

चुनौतियाँ अब भी शेष

हालांकि इस परियोजना के प्रति उत्साह बहुत है, फिर भी कई बड़ी चुनौतियाँ अभी बाकी हैं:

  1. बड़े पैमाने पर उत्पादन करना ताकि देश और दुनिया की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके।

  2. विभिन्न देशों के कठिन नियामक (Regulatory) स्वीकृति प्रक्रियाओं से गुजरना।

  3. लागत को इस स्तर पर लाना कि यह आम अस्पतालों और गरीब देशों तक भी पहुँचे।

  4. वास्तविक आपातकालीन परिस्थितियों में इसकी प्रभावशीलता को पूरी तरह सिद्ध करना।

अमेरिका और ब्रिटेन समेत कई देश भी अपनी-अपनी तकनीकों पर काम कर रहे हैं, जैसे लैब में विकसित लाल रक्त कोशिकाएँ या फ्रीज-ड्राई हेमोग्लोबिन पाउडर। लेकिन जापान की यह तकनीक अपनी स्थिरता और सर्वव्यापकता (Universality) के कारण सबसे प्रभावी मानी जा रही है।

प्रयोगशाला में बना भविष्य का खून  

यदि जापान का यह प्रयास पूरी तरह सफल हो जाता है तो यह वैश्विक स्वास्थ्य प्रणाली में क्रांति ला सकता है। रक्त की कमी, समूह मिलान और भंडारण जैसी समस्याएँ हमेशा के लिए समाप्त हो सकती हैं। यह खोज न केवल चिकित्सा क्षेत्र के लिए बल्कि मानवीय सहायता और युद्ध क्षेत्रों के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। 2030 के नजदीक आते-आते यह तय हो जाएगा कि क्या भविष्य की दवाइयाँ, सर्जरी और आपातकालीन चिकित्सा दान किए गए रक्त पर नहीं बल्कि प्रयोगशाला में बने इस रक्त पर निर्भर होंगी। जापानी वैज्ञानिकों ने जिस दिशा में यह कदम उठाया है, वह भविष्य की एक नई स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर संकेत करता है – जहाँ रक्त की कभी कमी नहीं होगी, न ही जीवन बचाने में देर होगी।

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