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खलनायकी के 'मदन चोपड़ा' : सिल्वर स्क्रीन पर एक्टिंग से उड़ान भरता 'पायलट', हर किरदार में दमदार

नई दिल्ली, 29 अक्टूबर (आईएएनएस)। साल 1993, भारतीय सिनेमा का एक ऐसा मोड़ था, जब पारंपरिक नायक-खलनायक की परिभाषा हमेशा के लिए बदलने वाली थी। पर्दे पर एक युवा, जुनूनी नायक (शाहरुख खान) अपने ही दोस्त के पिता से बदला लेने की आग में जल रहा था। यह पिता कोई गली-मोहल्ले का गुंडा नहीं था, बल्कि एक सूट-बूट वाला, ताकतवर बिजनेसमैन, जिसकी आंखों में क्रूरता और चेहरे पर शालीनता का मुखौटा था। यह किरदार था मदन चोपड़ा का।
खलनायकी के 'मदन चोपड़ा' : सिल्वर स्क्रीन पर एक्टिंग से उड़ान भरता 'पायलट', हर किरदार में दमदार

नई दिल्ली, 29 अक्टूबर (आईएएनएस)। साल 1993, भारतीय सिनेमा का एक ऐसा मोड़ था, जब पारंपरिक नायक-खलनायक की परिभाषा हमेशा के लिए बदलने वाली थी। पर्दे पर एक युवा, जुनूनी नायक (शाहरुख खान) अपने ही दोस्त के पिता से बदला लेने की आग में जल रहा था। यह पिता कोई गली-मोहल्ले का गुंडा नहीं था, बल्कि एक सूट-बूट वाला, ताकतवर बिजनेसमैन, जिसकी आंखों में क्रूरता और चेहरे पर शालीनता का मुखौटा था। यह किरदार था मदन चोपड़ा का।

मदन चोपड़ा का वह अहंकार, जिसने एक जवान लड़के (अजय शर्मा) के पिता की विरासत छीन ली थी और जिसका अंत नायक के हाथों होता है, यह दृश्य आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे अहम दृश्यों में गिना जाता है और इस किरदार को अमर करने वाले कोई और नहीं बल्कि अभिनेता दिलीप ताहिल हैं।

दिलचस्प बात यह है कि 30 अक्टूबर 1952 को आगरा में जन्मे दिलीप ताहिल, फिल्मों में हीरो बनने का सपना लेकर आए थे, लेकिन यह मदन चोपड़ा का किरदार ही था, जिसने उन्हें नब्बे के दशक के सबसे भरोसेमंद और जरूरी कॉर्पोरेट खलनायकों के गलियारे में स्थापित कर दिया।

'बाजीगर' सिर्फ एक सुपरहिट फिल्म नहीं थी, यह दिलीप ताहिल के 40 साल से अधिक के अभिनय करियर का वह टर्निंग पॉइंट था, जिसने उन्हें खलनायक के सांचे में ढालकर हमेशा के लिए बॉलीवुड के इतिहास में दर्ज कर दिया।

दिलीप ताहिल का पूरा नाम दिलीप घनश्याम ताहिल रमानी है। उनके पिता, घनश्याम ताहिल रमानी, भारतीय वायु सेना में पायलट थे, इसलिए दिलीप का बचपन देश के अलग-अलग शहरों में बीता, लेकिन उनका पालन-पोषण मुख्य रूप से लखनऊ के माहौल में हुआ। पिता चाहते थे कि बेटा उनकी विरासत संभाले और पायलट बने, जिसके लिए दिलीप ने कुछ समय तक फ्लाइंग की ट्रेनिंग भी ली।

कॉलेज में पढ़ते हुए, दिलीप ने नाटकों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। उनके लिए मंच पर खड़े होना किसी हवाई जहाज को उड़ाने से कहीं अधिक रोमांचक था। स्कूल के बाद, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी और मुंबई के सेंट जेवियर कॉलेज से पढ़ाई के दौरान, वह मुंबई के थिएटर सर्किट से जुड़ गए। यहीं उनकी मुलाकात एलेक पदमसी और पर्ल पदमसी जैसे दिग्गज थिएटर कलाकारों से हुई, जिन्होंने उनकी प्रतिभा को निखारा।

जब दिलीप ताहिल ने बड़े पर्दे पर कदम रखा, तो वह किसी कमर्शियल फिल्म से नहीं, बल्कि कला सिनेमा के जनक श्याम बेनेगल की फिल्म 'अंकुर' से था। इस फिल्म में उनके छोटे मगर प्रभावशाली किरदार को समीक्षकों ने सराहा। दिलीप को लगा था कि सफलता अब बस दरवाजे पर दस्तक दे ही रही है, लेकिन नियति ने कुछ और ही तय किया था।

'अंकुर' के बाद उन्हें अगले छह सालों तक कोई बड़ा रोल नहीं मिला। यह उनके जीवन का सबसे कठिन दौर था, जहां एक प्रतिभाशाली कलाकार को संघर्ष के लिए मजबूर होना पड़ा। इन सालों में उन्होंने खर्च चलाने के लिए विज्ञापन और जिंगल्स में काम किया। यह वह दौर था जब हताशा किसी भी कलाकार का करियर निगल सकती थी, लेकिन दिलीप ने थिएटर नहीं छोड़ा और अपनी कला को मांजते रहे।

आखिरकार, 1980 में उन्हें रमेश सिप्पी की बड़ी फिल्म 'शान' में एक छोटा, लेकिन नकारात्मक रोल मिला, जिसने उन्हें वापस लाइमलाइट में ला खड़ा किया। इसके बाद 1982 में हॉलीवुड की ऑस्कर विजेता फिल्म 'गांधी' में भी उन्होंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

'शान' के बाद दिलीप ताहिल को खलनायक के रूप में पहचाना जाने लगा था, लेकिन 1988 में आई 'कयामत से कयामत तक' ने उनकी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया। इस फिल्म में उन्होंने जुही चावला के पिता धनराज सिंह की भूमिका निभाई। यह किरदार दर्शकों के दिल के करीब आया और उन्हें एक दमदार चरित्र अभिनेता के तौर पर पहचान मिली। इसी दौरान उन्होंने छोटे पर्दे पर भी अपनी छाप छोड़ी, खासकर रमेश सिप्पी के शो 'बुनियाद' और संजय खान के ऐतिहासिक शो 'द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान' में।

उनके करियर की दिशा 1993 में 'बाजीगर' से पूरी तरह बदल गई। मदन चोपड़ा का किरदार एक कॉर्पोरेट विलेन का ब्लू प्रिंट बन गया। 'बाजीगर' की अपार सफलता के बाद, दिलीप ताहिल नब्बे के दशक के हर बड़े बैनर की फिल्म में अनिवार्य हो गए। उन्होंने डर, इश्क, जुड़वा, राम लखन और कहो ना प्यार है जैसी 100 से अधिक फिल्मों में ऐसे ही प्रभावशाली किरदार निभाए।

दिलीप ताहिल की अभिनय यात्रा सिर्फ बॉलीवुड तक सीमित नहीं रही। वह उन चुनिंदा भारतीय कलाकारों में से हैं जिन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भी महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाईं। 2003 में, उन्होंने ब्रिटिश टेलीविजन के लोकप्रिय सोप ओपेरा 'ईस्टएंडर्स' में डैन फरेरा का किरदार निभाया, जिसने उन्हें वैश्विक पहचान दिलाई। इसके अलावा, उन्होंने बीबीसी की मिनी-सीरीज न्यूक्लियर सीक्रेट में भी काम किया।

भारत लौटने पर भी उन्होंने लीक से हटकर काम जारी रखा। 2013 में, उन्होंने फिल्म 'भाग मिल्खा भाग' में पंडित जवाहरलाल नेहरू की भूमिका निभाई, जिसे उन्होंने अपने करियर की सबसे चुनौतीपूर्ण और संतोषजनक भूमिकाओं में से एक माना।

दिलीप ताहिल आज भी सक्रिय हैं, थिएटर से उनका लगाव बरकरार है। जिस अभिनेता को उनके पिता पायलट बनाना चाहते थे, वह आज भी अभिनय की उड़ान भर रहा है।

--आईएएनएस

वीकेयू/एबीएम

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