Sohrab Modi Death Anniversary: राज कपूर नहीं मोदी साहब थे सिनेमा के पहले 'शोमैन', इन कालजयी फिल्मों से पढ़ाया फिल्ममेकिंग का पाठ
मनोरंजन न्यूज़ डेस्क - एक तो हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जिनकी तारीफ़ इस समय आधी दुनिया कर रही है और दूसरे हैं सिनेमा जगत के सोहराब मोदी, जिनके काम की तारीफ़ करने से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी खुद को रोक नहीं पाए थे। बचपन से ही कला के शौकीन सोहराब ने बड़े होने पर बेहतरीन फ़िल्में बनाकर अपना शौक पूरा किया और आज लोग अपने शौक को करियर बनाकर आगे बढ़ते हैं। आज के सिनेमा में संजय लीला भंसाली और आशुतोष गोवारिकर बड़े-बड़े सेट बनाकर फ़िल्में बनाते हैं, सोहराब ने ये काम 30, 40 और 50 के दशक में ही कर दिया था। आइये, सोहराब मोदी के स्मृति दिवस पर आज उनकी कालजयी फ़िल्मों को याद करते हैं।
मीठा ज़हर (1938)
स्कूल के बाद सोहराब मोदी अपने भाई केकी मोदी के साथ ग्वालियर में ट्रैवलिंग गाइड बन गए। जब वे 26 साल के हुए तो उन्होंने आर्य सुबोध थियेट्रिकल कंपनी शुरू की। जैसे ही मंच पर पर्दा गिरता तो जनता खूब तालियाँ बजाती लेकिन वो नाटक खामोश होते। 1931 में जब बोलती फिल्में आने लगीं तो सिनेमाघरों में जाने वालों की संख्या कम हो गई, लेकिन सोहराब ने अपनी कला को मरने नहीं दिया और 1935 में उन्होंने स्टेज फिल्म कंपनी शुरू की। इसके तहत उन्होंने 'खून का खून' और 'सईद ए हवस' नाम की दो फिल्में बनाईं। फिल्में फ्लॉप रहीं, लेकिन सोहराब को लोगों की पसंद का पता चल गया। 1936 में सोहराब ने मिनर्वा मूवीटोन फिल्म कंपनी शुरू की और सबसे पहले 'मीठा जहर' फिल्म बनाई। इस फिल्म में नशे की लत जैसे सामाजिक मुद्दे को उठाया गया। सोहराब ने इस फिल्म का निर्देशन किया और नसीम बानो और गजानन जागीरदार के साथ फिल्म में अभिनय भी किया। लोगों को यह फिल्म खूब पसंद आई। और यहीं से सोहराब मोदी का कारवां शुरू हुआ।

पुकार (1939)
सोहराब मोदी ने 1939 में मुगल बादशाह जहांगीर के न्यायप्रिय स्वभाव की एक घटना पर आधारित फिल्म 'पुकार' का निर्माण किया। यह फिल्म काल्पनिक थी, लेकिन सोहराब ने फिल्म के ज्यादातर दृश्य मुगलों द्वारा बनाए गए वास्तविक स्थानों पर फिल्माए। इससे फिल्म में काफी वास्तविकता आ गई जो वह स्टूडियो में फिल्माकर हासिल नहीं कर सकते थे। फिल्म की कहानी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही ने लिखी थी और इसमें सोहराब के साथ चंद्र मोहन और नसीम बानो ने अभिनय किया था। दर्शकों को फिल्म की वास्तविकता काफी पसंद आई और फिल्म ने कमाल कर दिया।

सिकंदर (1941)
सोहराब ने अपनी फिल्म निर्माण कंपनी मिनर्वा मूवीटोन के बैनर तले लगातार भव्य फिल्मों का निर्माण किया। इसमें अगली भव्य फिल्म वर्ष 1941 की 'सिकंदर' थी। इस फिल्म में अभिनेता पृथ्वीराज कपूर ने सिकंदर महान की भूमिका निभाई थी। सोहराब ने इस फिल्म के लिए विशाल सेट बनवाए थे। उन्होंने फिल्म में दिखाया कि सिकंदर ने फारस के रास्ते काबुल घाटी पर विजय प्राप्त की लेकिन जब उसकी सेना भारत की ओर बढ़ी तो वहां पोरस ने उनका रास्ता रोक दिया। सोहराब ने इस फिल्म में युद्ध के दृश्यों को हॉलीवुड फिल्मकारों की मदद से फिल्माया। इस फिल्म की देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी काफी प्रशंसा हुई। इस फिल्म की रिलीज का समय ऐसा था जब एक तरफ द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और दूसरी तरफ गांधी जी देश में स्वतंत्रता संग्राम शुरू करने के लिए तैयार थे। ऐसे में सोहराब की इस फिल्म ने देशभक्ति की भावना पैदा की।

पृथ्वी वल्लभ (1943)
सोहराब ने 'पुकार', 'सिकंदर' और 'पृथ्वी वल्लभ' जैसी फिल्मों की त्रयी बनाई जो ऐतिहासिक कहानियों पर आधारित थीं। साल 1943 में आई फिल्म 'पृथ्वी वल्लभ' की कहानी केएम मुंशी द्वारा लिखे गए इसी नाम के उपन्यास पर आधारित थी। फिल्म में मुख्य रूप से सोहराब मोदी और दुर्गा खोटे के किरदारों के बीच संघर्ष को दिखाया गया था। सोहराब ने इस फिल्म में मुंज की भूमिका निभाई थी और दुर्गा खोटे ने मृणालवती की भूमिका निभाई थी। मृणालवती एक घमंडी रानी है जो सार्वजनिक रूप से मुंज को नीचा दिखाने की कोशिश करती है लेकिन कुछ कारणों से वह उससे प्यार करने लगती है। सोहराब मोदी की यह फिल्म दर्शकों को खूब पसंद आई।

शीश महल (1950)
सोहराब मोदी बड़े-बड़े सेट बनाकर फ़िल्म बनाने के लिए जाने जाते थे। जब उन्होंने साल 1950 में अपनी फ़िल्म 'शीश महल' बनाई तो इसके लिए भी उन्होंने एक भव्य सेट बनवाया। आलोचकों ने सोहराब के काम की खूब तारीफ़ की। हालाँकि, फ़िल्म को ज़्यादा पसंद नहीं किया गया। जब मुंबई के मिनर्वा थिएटर में इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग हुई तो सोहराब ने देखा कि पहली पंक्ति में एक व्यक्ति आँखें बंद करके बैठा हुआ है। उन्हें दर्शकों से ऐसी प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं थी। उन्होंने अपने लोगों से कहा कि सभी लोगों के पैसे वापस कर दें और सबको बाहर निकाल दें। सोहराब का आदेश पाकर उनके कर्मचारी गए लेकिन उतनी ही जल्दी वापस भी आ गए। उन्होंने सोहराब को बताया कि वह व्यक्ति आँखें बंद करके नहीं बैठा है, बल्कि अंधा है। वह फ़िल्म देखने नहीं, बल्कि फ़िल्म की लाइनें सुनने आया था। तब सोहराब को थोड़ी राहत महसूस हुई। फिर भी, यह फ़िल्म दर्शकों के लिए काफ़ी अच्छी साबित हुई। इस फिल्म में सोहराब के अलावा नसीम बानो, निगार सुल्ताना, प्राण, लीला मिश्रा जैसे कलाकारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी।

झांसी की रानी (1953)
सोहराब ने नसीम बानो के साथ कई फिल्मों में काम किया, इसलिए उनके बीच गहरे प्रेम संबंध विकसित हुए, लेकिन सोहराब को 1944 की फिल्म 'परख' में काम करने वाली एक युवा अभिनेत्री मेहताब से प्यार हो गया। उस समय मेहताब की उम्र महज 20 साल थी, जबकि सोहराब की उम्र 48 साल थी। दोनों ने शादी कर ली। 1953 में जब सोहराब ने अपनी फिल्म 'झांसी की रानी' बनाई, तो इस फिल्म में मेहताब ने झांसी की रानी की भूमिका निभाई। यह फिल्म देश की पहली टेक्नीकलर फिल्म थी। सोहराब ने हॉलीवुड तकनीशियनों की मदद से यह रंगीन फिल्म बनाई थी। इस फिल्म में उन्होंने खुद राजगुरु की भूमिका निभाई थी। सब कुछ बेहतरीन होने के बावजूद यह फिल्म दर्शकों को आकर्षित करने में सफल नहीं हुई।

मिर्ज़ा ग़ालिब (1954)
एक बड़ी फ़िल्म के फ्लॉप होने के बाद भी सोहराब मोदी रुके नहीं और 1954 में उन्होंने देश के महान शायर मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन पर फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' बनाई। इस फ़िल्म को राष्ट्रपति से सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का गोल्ड अवार्ड मिला. सोहराब ने फ़िल्म में उस समय के सभी दृश्य बहुत ही खूबसूरती से सेट किए जब देश पर अंतिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र का शासन था। उन्होंने बादशाह के दरबार और अपने समय के शायरों को अपनी फ़िल्म में बेहतरीन तरीके से दिखाया।फ़िल्म में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार भारत भूषण ने निभाया था जबकि मिर्ज़ा ग़ालिब एक वेश्या से प्यार करते थे जिसका किरदार फ़िल्म में अभिनेत्री सुरैया ने निभाया था। फ़िल्म में सुरैया के काम की काफ़ी तारीफ़ हुई थी। जब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यह फ़िल्म देखी तो उन्होंने इस फ़िल्म की तारीफ़ करते हुए कहा था, 'आपने मिर्ज़ा ग़ालिब की आत्मा को ज़िंदा कर दिया है।

कुंदन (1955)
1955 में सोहराब ने अपनी कंपनी के बैनर तले फिल्म 'कुंदन' का निर्माण और निर्देशन किया जिसमें उन्होंने निम्मी, सुनील दत्त, उल्हास, प्राण, मुराद, ओम प्रकाश, बेबी नाज़ जैसे कलाकारों के साथ मुख्य भूमिका निभाई थी। यह फिल्म विक्टर ह्यूगो के 1862 के उपन्यास 'लेस मिजरेबल्स' पर आधारित थी। फिल्म में सोहराब ने गरीबी से जूझ रहे एक युवक की भूमिका निभाई थी जो रोटी का एक टुकड़ा चुराने के आरोप में पुलिस के चंगुल में फंस जाता है। यह एक सामाजिक मुद्दे को उठाने वाली ड्रामा फिल्म थी।

