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हिंदी सिनेमा में संगीत का गिरता स्तर , कहीं ये ही बॉलीवुड को खोखला तो नहीं कर रहा 

हिंदी सिनेमा में संगीत का गिरता स्तर , कहीं ये ही बॉलीवुड को खोखला तो नहीं कर रहा 

मनोरंजन न्यूज़ डेस्क - हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम दौर 1945 से 1980 तक यूँ ही नहीं था. उसके साथ ही संगीत का भी सिनेमा के साथ स्वर्णिम दौर था. फिर फिल्म म्यूजिक इंडस्ट्री में क्या बदलाव आया है? और क्यों आया है? देखा जाए तो सिनेमा के कंटेट में भी अब विविधता आई है, इसको स्वीकार करना ही होगा.  थ्री इडियट्स, लंच बॉक्स, स्वदेश, जैसी फ़िल्में आज के दौर में ही बनी हैं. अब भी बन रहीं हैं. वहीँ हिन्दी सिनेमा के साथ कदमताल करता हुआ संगीत अब औपचारिकता बन कर रह क्यों रह गया है?? अब की पीढ़ी को लगता है, ग़र संगीत सुनना हैं, और आपको मंत्रमुग्ध होना है, तो आपको गोल्डन एरा के संगीत की ओर रुख करना होगा. वहीँ आज का संगीत डांस के हिसाब से ठीक है. कितनी बिडम्बना है, लेकिन सच तो कुछ और भी है. आज भी इतने अच्छे आईटम सोंग नहीं बनते, जो गोल्डन एरा में बनाए गए हैं. 'आइए मेहरबां' , 'ए मेरा दिल यार का दीवाना' , 'महबूबा ओ महबूबा' , 'बाबू जी धीरे चलना' , जैसे क्लासिकल आईटम सोंग आज भी मुँह जुबानी याद हैं. वहीँ गोल्डन एरा में हर मूड का गीत संगीत रचा गया है. ऐसा भी नहीं है कि अब की पीढ़ी को संगीत पसंद नहीं है, क्योंकि पुराना संगीत आज भी सुना जाता है. हज़ारों-हज़ार कर्णप्रिय गाने आज भी लोगों को मुँहजुबानी याद हैं. 

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बहुत से क्षेत्रों में अभूतपूर्व परिवर्तन आए हैं. कुछ नकारात्मक कुछ सकारात्मक, हिन्दी सिनेमा में भी यही है. हिन्दी सिनेमा में तकनीकी रूप से बदलाव तो आया ही है, साथ ही कन्टेन्ट में विविधता देखी जा सकती है. वहीँ हिन्दी सिनेमा का संगीत अब नेपथ्य की ओर है, क्योंकि अब हिंदी सिनेमा का संगीत सुनने के लिए नहीं नाचने के लिए रचा जा रहा है. सहगल साहब रफ़ी साहब, सुरैया जी, शमशाद बेगम, तलत महमूद, साहब, लता जी, किशोर दा, मुकेश जी, मन्ना दा, हेमंत दा आशा जी  जैसे महान गायब अब क्यों नहीं होते?? बर्मन दादा, शंकर - जय किशनजी, मदन मोहन जी, रोशन साहब, नौशाद साहब, नैय्यर साहब, पंचम दा, बप्पी दा, जयदेव जैसे महानतम संगीतकारों का युग समाप्त क्यों हो गया ? सवाल उठता है. साहिर, मजरुह सुल्तानपुरी, शकील बदायूंनी, कविराज शैलेन्द्र जी, आनन्द बक्शी, फ़िराक़, हसरत जयपुरी जैसा तिलिस्म अब के गीतकार क्यों नहीं रच पाते?? सवाल कई हैं? लेकिन व्यपारिक अंधे युग में सारे सवाल बेमानी है. 

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आज भी इनके कंठ से निकले  गीत आज भी विरासत बने हुए हैं.  हमेशा गुनगुनाए, गाए और याद किए जाने वाले ऐसे अमर गीत, जो आज के दौर में सिर्फ रीमेक, रीक्रिएट या दोहराए जा सकते हैं, रचे नहीं जा सकते.. यह भी एक कडवा सच है. यहां कुछ नया-पुराना नहीं होता, चलन में आता है फिर घूम कर आ जाता है. रफी साहब, एवं मुकेश जी मन्ना दा ने सुरैया जी गीतादत्त जी, शमशाद बेगम के साथ मिलकर सहगल साहब की विरासत को अपने कांधे पर उठा लिया था.. फिर 50 के दशक के उत्तरार्द्ध में लता जी, आशा जी, किशोर दा, हेमंत दा ने भी संगीत के इस स्वर्णिम दौर को सत्तर-अस्सी के दौर में मिलकर इसे लोगों की ज़िन्दगी में जोड़ दिया. इनके बाद की पीढ़ी इनके आसपास भी नहीं पहुंच पाई. देखा जाए तो संगीत विशेषज्ञों के विमर्श में ये बातें निकल कर आती हैं, कि बरसों बाद भी संगीत की दुनिया में किसी का रुतबा ऐसा नहीं है, जो सहगल साहब, रफी साहब, किशोर दा, हेमंत दा मन्ना दा, शमशाद बेगम, सुरैया जी, गीता दत्त, मुकेश जी, लता जी, आशा जी, का है.. 

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इन सभी महानतम गायकों के कंठ से निकले मधुर, कर्णप्रिय हज़ारों गीत आज भी उनकी आवाज़ से पहचाने जाते हैं. बहुत से गीत गाने की लोकप्रियता के कारण रीमेक किए जाते हैं. मुहम्मद अजीज, सुदेश भोसले, कविता कृष्णमूर्ति, बालसुब्रमण्यम, उदित नारायण, कुमार सानू, अभिजीत, अल्का , सोनू निगम, आदि, गायकों ने अपनी आवाज़ एवं प्रतिभा से संगीत को कुछ सम्भालने की कोशिशें किया एक प्रतिष्ठा भी बनाई, लेकिन इन सभी का असर ऐसा नहीं रहा कि इनकी पुरानी पीढ़ी का असर फीका हो जाता.. यह भी बदलते हुए समय के साथ कष्टकर रहा, हालांकि इन सभी के प्रयास, साधना काबिले तारीफ है.. इसके बाद तो संगीत का क्या हाल हुआ है, पूछिए मत, दुख होता है कि जहां फिल्मी संगीत हमारी लाइफस्टाइल का हिस्सा था, हर मूड का संगीत रचा गया है, वहीँ अब संगीत केवल और केवल नाचने के लिए रचा जा रहा है.... अब सोशल मीडिया के साथ ही , तरह तरह के इवेंट होते हैं, खूब सारे गायक - गायिकाएं आ रहे हैं, लेकिन शायद ही कोई नाम किसी को याद हो और गाने तो आज के दौर में पता ही नहीं चलता कब आए और गए. उसकी प्रासंगिकता से मतलब ही नहीं है. अपवाद अरिजित सिंह, विशाल मिश्रा, जैसे कुछ गायकों के अलावा किसी भी गायक का नाम किसी को भी याद नहीं हैं...जब गायकों के ही नाम याद नहीं रहते तो गीतों का क्या ही कहूँ, म्युजिक फिल्म इंडस्ट्री पता नहीं क्यों नेपथ्य की ओर जा रही है? फ़िल्मों का संगीत इतना अप्रभावी क्यों होता जा रहा है? सवाल कई हैं.. 

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पहले गीत - संगीत फ़िल्मों की जान होते थे, संगीत फ़िल्मों से संबधित होते थे. संगीत का मूड, फिल्म को बयां करता था.. जैसे सीआईडी फिल्म में देव साहब इंस्पेक्टर की भूमिका में थे, तो इस फिल्म में कोई भी गीत नहीं था. देव साहब ने कहा कि मुझे गीत चाहिए ही चाहिए, निर्देशक ने जवाब दिया, कि आप सीआईडी इंस्पेक्टर हैं नाचते - गाते अच्छे नहीं लगेंगे. तो उन्होंने कहा फिल्म में मूड के हिसाब से गीत डालिए.. और वो सीआईडी म्यूजिकल हिट मानी जाती है. अब गीत - संगीत सिर्फ़ और सिर्फ़ औपचारिकता रह गए हैं! फ़िल्मों के प्रमोशन में भूमिका निभा रहे हैं. गाने रिकॉर्ड हो जाते हैं. अब ऐसे तेज़ आवाज़ में इसके चलते झमाझम, झन्नाटेदार म्यूजिक इंस्ट्रूमेंट सांजिदों और सुरों पर हावी होते गए. अब ऐसे ही संगीत रचा जाता है, जो कुछ समय के लिए राजनीतिक टॉपिक की तर्ज़ पर ध्यानाकर्षण करता है, और हाशिये पर चला जाता है. आज के ऐक्टर सिर्फ परफॉर्म करके चले जाते हैं. गोल्डन एरा में देव साहब, राज कपूर साहब, राजेन्द्र कुमार, शम्मी कपूर, राजेश खन्ना, आदि ने कालजयी संगीत के लिए अपनी टीम बना ली थी, इसलिए भी वो दौर आज भी प्रासंगिक है. फिर आया, फूहड़ रैप का युग, इसके बाद तो म्युज़िक न जाने कहाँ गुम होता जा रहा है. रैप भी बुरा नहीं है, बशर्ते अपने पैरामीटर पर खरा उतरता हो. अब के प्रोड्यूसर, निर्देशक देव साहब, राज कपूर साहब की तरह संगीत पर रुचि तो लेते नहीं है फटाफट संगीत तैयार हो जाता है, उस संगीत को संगीत की कसौटी पर कसा भी नहीं जाता... ऐसा भी नहीं है, कि आज के संगीतकार विद्वान नहीं है, संगीत रचना बहुत कठिन विधा है, बशर्ते उसे समय दिया जाए. 
पुराने गानों को रीमेक करने का भी सस्ता युग है, नया कुछ है ही नहीं, बीट पे बूटी, टाइप गीत नई पीढ़ी के लिए गढ़े जाते हैं. जबकि म्युज़िक न सुनने का आरोप झेल रही पीढ़ी, यूट्यूब पर पुराने गाने खंगालती है. कितनी बिडम्बना है, नई पीढ़ी के पास अपने गाने ही नहीं है, वो इसलिए कि नई पीढ़ी को गाने रचने का सम

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य ही नहीं मिलता, एक महीने में फिल्म एडिट होकर रिलीज के लिए खड़ी होती है. ऐसे में संगीतकार, गीतकार पुराने गानों को ही रीमेक के ज़रिए रीक्रिएशन की तरफ ले जा रही है, पुराने गानों को उठाकर थोड़ा हेर-फेर करके नया वर्जन आ जाता है. जब नए गाने ही नहीं है तो नए गायकों को कौन याद करे.... आज भी हिंदी सिनेमा खूब ऊचाईयों को छू रहा है. वहीँ सिनेमा का संगीत न जाने कहाँ गुम होता चला जा रहा है. जब हम नए संगीत को समय ही नहीं देंगे, जब उसे सपोर्ट ही नहीं करेंगे, तो आने वाले युग के लिए सदाबहार कर्णप्रिय गीत कैसे बनेंगे?? बदलते हुए परिप्रेक्ष्य में तकनीक विकसित हुई, तो संगीत को ऑटो ट्यूनर भी आ गया.. अब तो सिंगर तो सिंगर, सारे एक्टर भी गायक बनने की सम्भावना तलाश रहे हैं...जब सबकुछ इतना अच्छा चल रहा है, सस्ते दामों पर तो, भला बरसों-बरस रियाज़ करने वाले गायकों, गीतकारों, संगीतकारों को कौन इज्ज़त देगा, बहुत चिंता का विषय है. 

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फिल्मी संगीत में वक़्त के साथ उसकी क्वॉलिटी में वक्त के साथ गिरावट आती जा रही है... , '80 और 90 के गायकों का जो स्केल था, उसी की तर्ज़ पर बस नई पीढ़ी के गायक गाए जा रहे हैं...एक दौर में संगीत को साधना के तौर पर देखा जाता था, अब नाचने का जरिया, संगीत आज सिर्फ एंटरटेनमेंट बन चुका है. संगीत अन्य विधा के मुकाबले बहुत जल्दी बहुत लोगों तक पहुँच रहा है, कम समझने वाले भी उसके साथ जुड़ रहे हैं, यह कुछ समय के लिए लाभकारी होता है, लेकिन दूरगामी, दूरदर्शिता नहीं है. इसलिए आज जब बेहतर संगीत की तलाश होती है तो चाहे जो भी पीढ़ी हो गोल्डन एरा के संगीत का रुख करते हैं, फिर वो यूट्यूब पर खंगालते हैं... और हमारे जेहन में वही पुराने चेहरे जेहन में आ जाते हैं. सिनेमा का संगीत न जाने कब नेपथ्य मे चला गया था, लेकिन आज दयनीय स्थिति में है. संगीत विशेषज्ञों की भी मज़बूरी ही है, अन्यथा सुधार भी किए जा सकते हैं, अफ़सोस और सिर्फ अफ़सोस हिन्दी सिनेमा के संगीत को एक दिन गुम हो जाना।
 

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