Samachar Nama
×

Lucknow  इमरजेंसी के बाद चारों सीटों पर जला था ‘दीपक’

चुनाव

उत्तरप्रदेश न्यूज़ डेस्क  दिल्ली की नजाकत और लखनऊ की नफासत में जन्में नारों को बुंदेलखंड की पथरीली धरा खूब रास आई. कभी बने बनाए समीकरण बिगाड़ दिए तो कभी चुनावी पंडितों की गणित ही गड़बड़ा गई.

1952 में बुंदेलखंड की झांसी-ललितपुर, हमीरपुर-महोबा संसदीय सीट थी. झांसी से रघुनाथ विनायक धुलेकर और हमीरपुर से मन्नूलाल द्विवेदी पहली बार देश की सबसे बड़ी पंचायत पहुंचे. 1957 में बांदा सीट सामने आयी और यहां भी चुनाव हुए. इस चुनाव में झांसी से डा. सुशीला नैयर, बांदा-चित्रकूट-मानिकपुर से दिनेश सिंह और हमीरपुर-महोबा से मन्नू लाल द्विवेदी ने जीत दर्ज की. इसी दौर में एक विरोधी सुर उठा ‘..इस दीपक में तेल नहीं’. 1962 में नारों की तहरीरें कुछ तीखी हुईं. यहीं से जालौन-भोगनीपुर-कालपी सीट सामने आई.

यहां से पहली बार कांग्रेस रामसेवक देश की सबसे बड़ी पंचायत पहुंचे. 1967 में हर तरफ से नए जुमले आए. लिहाजा, सीटें भी बंटी. झांसी से कांग्रेस की डा. सुशीला नैय्यर, बांदा से सीपीआई के चौधरी जागेश्वर सिंह, हमीरपुर में कांग्रेस से स्वामी ब्रह्मानंद से दिल्ली पहुंचे.

कहते हैं जानकार

अंतरराष्ट्रीय बौद्ध शोध संस्थान के उपाध्यक्ष हरगोविंद कुशवाहा कहते हैं कि सभी पार्टियों के अपने नारे उस दौर हुआ करता था. कांग्रेस का पहले चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी थी. फिर गाय-बछड़ा हुआ. फिर इमरजेंसी लगने के बाद लोगों ने इसे नकारा. इसके बाद यहां जनता पार्टी आई. 80 के दौर में कांग्रेस को चुनाव चिन्ह हाथ का पंजा मिला. फिर कांग्रेस आई. उस समय नेताओं को लोग पसंद करते हैं. डा. सुशीला नैय्यर यहां से चार बार सांसद रहीं. वह काफी मृदुल स्वभाव की थीं. आखिरी बार वह जनता पार्टी के सहयोग से बीएलडी से सांसद बनीं थी.

 

झांसी, ललितपुर, जालौन, बांदा की खसियत

1891 से 1974 तक ललितपुर जिला झांसी जिले का ही एक हिस्सा था. उत्तर में झांसी, दक्षिण में सागर, पूरब में मध्यप्रदेश का टीकमगढ़, छतरपुर एवं शिवपुरी तथा पश्चिम गुना से सटा हुआ है. बेतवा, धसान और जमनी नदियों का किनारा. पर्यटक दृष्टि से देवगढ़, नीलकंठेश्ववर त्रिमूर्ति, रणछोरजी मंदिर, माताटीला बांध और महावीर स्वामी अभ्यारण विशेष रूप से प्रसिद्ध है. इसकी स्थापना 17वीं शताब्दी में बुंदेल राजपूत द्वारा की गई थी.

80 के दौर में फिर पलटी बाजी फिर खिल गया ‘पंजा’

80 का दौर आते-आते सियासी जमुले ‘ऊब गई और डूब गई’ के बोल तक आ गए थे. उस दौर में बैच-बिल्ले भी चलने लगे थे. इमरजेंसी के बाद कांग्रेस के दो चुनाव चिन्ह जब्त हो गए थे. 80 में उन्हें ‘पंजा’ चुनाव चिन्ह मिला. जो बुंदेलों के दिल में उतर गया. तब झांसी-ललितपुर सीट से बैधनाथ घराने के उद्योगपति विश्वनाथ शर्मा, जालौन से नाथूराम शाक्यवार, हमीरपुर-महोबा से दूनगर सिंह, बांदा-चित्रकूट रामनाथ द्विवेदी संसद पहुंचे. चारों सीटों पर बाजी पलटी और कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी.

मिट्टी के घड़े में डाला था वोट

बबीना ब्लॉक के बुजुर्ग पूर्व प्रधान घिसौली भारत सिंह बताते हैं कि उस दौर में नारे काफी मृदुल थे. पहला वोट बरोड़ा पोलिंग स्टेशन में देने गए थे. बड़ा सा मटका (मिट्टी का घड़ा) रखा था. उसमें वोट दिया था. फिर शाम को ‘जीत गया भई जीत गया, हमारा नेता जीता गया’.. सुनाई दिया था. झांसी के आवास विकास निवासी 90 वर्षीय बुजुर्ग राजेंद्र कुमार बताते हैं कि चीन से युद्ध के करीब चुनाव हुआ था. तब प्राचार को निकले प्रत्याशी निकल रही बैलगाड़ी पर बैठ जाते थे. मटके का ठंडा पानी पीते है. तब भी नारे बहुत अच्छे थे.

 

लखनऊ न्यूज़ डेस्क

Share this story