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जोधपुर में गरीबी और बीमारी के बीच जंजीरों में कैद जिंदगी, सिस्टम पर सवाल खड़ा करती तस्वीर

बेबस मां ने जंजीरों में कैद किया बेटी का जीवन, दिल दहला देने वाली है यह कहानी

सरकारी योजनाओं, सामाजिक सुरक्षा और “सबका साथ, सबका विकास” जैसे दावों के बीच जोधपुर जिले के धुंधाड़ा क्षेत्र से सामने आई एक तस्वीर ने पूरे सिस्टम को कटघरे में खड़ा कर दिया है। पंचायत समिति लूणी क्षेत्र के सर गांव से आई यह तस्वीर गरीबी, बीमारी और प्रशासनिक उपेक्षा की भयावह सच्चाई को उजागर करती है। यहां एक मां अपनी मानसिक रूप से बीमार 23 वर्षीय बेटी को जंजीरों में बांधकर रखने को मजबूर है।

यह कोई अपराध नहीं, बल्कि लाचारी की वह कहानी है, जिसे सुनकर संवेदनशील समाज भी झकझोर उठे। मां बताती है कि वह जानती है कि बेटी को जंजीरों में बांधना अमानवीय है, लेकिन उसके पास कोई और रास्ता नहीं बचा। मानसिक रूप से अस्वस्थ बेटी को अकेला छोड़ना संभव नहीं है। अगर उसे खुला छोड़ दिया जाए, तो वह खुद को नुकसान पहुंचा सकती है या गांव में भटक सकती है।

परिवार की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर है। घर चलाने के लिए मां को रोज मजदूरी पर जाना पड़ता है। ऐसे में बेटी की देखभाल के लिए न तो कोई और सदस्य है और न ही कोई सरकारी सहायता पहुंची है। मजबूरी में मां बेटी को जंजीरों में बांधकर मजदूरी पर निकल जाती है, ताकि परिवार का पेट भर सके।

गांव वालों का कहना है कि इस परिवार की स्थिति के बारे में प्रशासन को पहले भी अवगत कराया गया था, लेकिन अब तक कोई ठोस मदद नहीं मिली। न तो मानसिक स्वास्थ्य विभाग की ओर से इलाज की व्यवस्था हुई और न ही सामाजिक सुरक्षा योजनाओं का लाभ परिवार तक पहुंचा। ग्रामीणों का आरोप है कि योजनाएं कागजों तक सीमित रह जाती हैं और जरूरतमंद लोग हकीकत में मदद से वंचित रह जाते हैं।

यह मामला न सिर्फ गरीबी का है, बल्कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाल स्थिति को भी उजागर करता है। विशेषज्ञों का कहना है कि मानसिक रोगियों के लिए सामुदायिक स्तर पर इलाज, परामर्श और पुनर्वास की व्यवस्था जरूरी है। ऐसी घटनाएं बताती हैं कि मानसिक स्वास्थ्य अभी भी समाज और व्यवस्था दोनों की प्राथमिकता नहीं बन पाया है।

मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह घटना गंभीर चिंता का विषय है। किसी भी हाल में किसी व्यक्ति को जंजीरों में बांधकर रखना स्वीकार्य नहीं हो सकता, लेकिन इसके लिए केवल उस मां को दोषी ठहराना भी गलत होगा। असल जिम्मेदारी उस सिस्टम की है, जो समय रहते मदद नहीं पहुंचा सका।

इस तस्वीर के सामने आने के बाद प्रशासन की भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं। सवाल यह है कि क्या सामाजिक सुरक्षा योजनाएं वास्तव में ज़रूरतमंदों तक पहुंच रही हैं? क्या मानसिक रोगियों के लिए पर्याप्त सरकारी संसाधन उपलब्ध हैं? और क्या गरीब परिवारों को संकट के समय सहारा मिल पा रहा है?

फिलहाल यह मामला प्रशासन और समाज दोनों के लिए चेतावनी है। यह सिर्फ एक परिवार की कहानी नहीं, बल्कि उन सैकड़ों-हजारों परिवारों की आवाज है, जो बीमारी और गरीबी के बीच चुपचाप संघर्ष कर रहे हैं। जरूरत है कि सरकार और प्रशासन संवेदनशीलता दिखाते हुए तत्काल मदद पहुंचाए, ताकि किसी मां को फिर से अपनी संतान को जंजीरों में बांधने जैसी अमानवीय मजबूरी न झेलनी पड़े।

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