बिहार न्यूज़ डेस्क लोकसभा चुनाव को लेकर सियासी सरगर्मी चरम पर है, मगर प्र की रंगत फीकी है. पार्टी व प्रत्याशियों के बिल्ले तो अब ओझल हो चुके हैं. बीते दो दशकों में हुई सं क्रांति के प्रभाव चुनाव व उसके प्र के तरीकों पर भी व्यापक रूप से पड़ा है. चुनाव के प्र पारंपरिक तरीके के स्थान पर आज प्रत्याशी सोशल मीडिया व दूसरे माध्यमों पर ध्यान दें रहे हैं.ऑनलाइन प्र में कम खर्च करके प्रत्याशी अधिक लोगों तक पहुंच बना रहे हैं. बात यदि ढाई दशक पहले की करें तो भले ही बच्चों का चुनाव में कोई योगदान नहीं होता था, मगर चुनाव के दौरान उनकी उमंग सिर चढ़कर बोलती थी. प्रत्याशियों के पर्चे-बिल्ले जुटाने की जुगत में गली-मुहल्लों में दौड़ लगाती बच्चों की टोलियां चुनावी माहौल का एहसास कराती थीं
झंडा, बिल्ला, स्टीकर व पोस्टर हुए गायब
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि जब भी कोई प्र वाहन मुहल्लों में पहुंचता था तो बच्चे उसकी ओर दौड़ पड़ते थे. बच्चों को इससे कोई सरोकार नहीं होता था कि वह प्र वाहन किस प्रत्याशी या दल का है. उनकी चाह तो बिल्ला पाने की रहती थी. जैसा माइक पर सुनते वैसे ही नारे लगाते और बिल्ले मांगते. बच्चों के हाथों में झंडा किसी दल का होता तो सिर पर टोपी किसी और दल की. सीने पर कई-कई प्रत्याशियों के बिल्ले लटके रहते थे. मुंह पर ह्यजीतेगा भाई जीतेगाह्ण या ह्यमुहर तुम्हारी कहां लगेगीह्ण के नारे होते थे. अब चुनावी परिवेश एकदम बदल चुका है. कहीं झंडा है न ही बिल्ला, स्टीकर, पोस्टर. चुनाव में अब लगभग पारम्परिक गीत भी अब लगभग चुनाव से बाहर हो गया है.
गया न्यूज़ डेस्क