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Bhopal नाम तो रोटी है, लेकिन आकार और स्वाद हर जगह अलग
 

रुमाली रोटी


मध्यप्रदेश न्यूज़ डेस्क, भारतीय खानपान में रोटी रोजमर्रा का पर्याय है, कुछ वैसे ही जैसे भात. दाल-रोटी, दाल-भात की तरह ही बुनियादी खाना है जैसा कि अनेक मुहावरों में प्रतिबिंबित होता है. दो जून की रोटी मयस्सर होना या ‘रूखी-सूखी (रोटी) खाय के ठंडा पानी पी’ वगैरह. रोटियां आम तौर पर गेहूं के आटे से बनती और दूसरे मोटे अनाजों, बाजरा, ज्वार, रागी, मडुवे से भी. पंजाब में मक्के की रोटी स्वादिष्ट जुगलबंदी साधती है सरसों के साग के साथ. दक्षिण भारत में चावल के आटे की रोटी पथीरी और रस्सी नाम से बनाई जाती है.
नज्म में भी है रोटी
आगरा के लोकप्रिय जनकवि नजीर अकबराबादी ने रोटियों के बारे में एक बड़ी रोचक नज्म लिखी है जिसमें इस बात का उल्लेख है कि भूखे मनुष्य को चांद और सूरज भी गोल-गोल रोटियां ही नजर आती हैं और रोटियां इंसान से क्या कुछ कराती है और कैसे-कैसे नाच नचाती हैं. कई और भी इसके उदाहरण हैं.
रोटियों के कई प्रकार
बहरहाल, भारत में रोटियों के जितने प्रकार देखने को मिलते हैं वह अद्भुत हैं. इसकी सूची लंबी है. पहले बेलकर फिर हाथ से थपथपाकर (चपतियां कर) जो रोटी तवे पर सेकी जाती उसे चपाती कहते है. तवे से उतारकर जब लकड़ी के चूल्हे या गैस की आंच पर फुलाया जाता तो वह फुलका बन जाती है. प्रेमचंद की एक मार्मिक कहानी ईदगाह में इस बात का वर्णन है कि कैसे मासूम बच्चा हामिद मेले में अपने लिए कोई खिलौना नहीं खरीदता बल्कि पैसे बचा कर अपनी दादी के लिए लोहे का एक चिमटा खरीदता है ताकि तवे से रोटियां निकालते वक्त उसकी अंगुलियां ना जलें.
तंदूर रोटी का चलन पंजाबी शरणार्थियों से
रोटियां सिर्फ तवे पर ही नहीं पकाई जाती बल्कि तंदूर में भी सेकी जाती हैं. तंदूरी रोटियों का चलन उत्तरी भारत में पंजाब से आए शरणार्थियों के साथ बढ़ा. पंजाब के गांवों में औरतें तंदूर के इर्द-गिर्द बैठकर घर से गूंथ कर लाए आटे की रोटियां सेकती थी, आपस में बतियाती थीं, सुख-दुख को साझा करती थीं. इसलिए तंदूर को साझा चूल्हा कहा जाता था. विभाजन के बाद जो लोग बेघर हो गए थे वह रसोई के अभाव में ढाबे के तंदूर से रोटियां लाकर खाते थे. यूं मुसलमान आबादी वाले शहरों में तंदूरी रोटियां नानबाई से ही खरीदकर खाई जाती थीं. इनमें सबसे आम खमीरी रोटियां हैं.
भारत में डबल रोटी अंग्रेजों से पहले से है
लोगों में एक गलत फहमी है कि रोटियों में खमीर का प्रयोग फिरंगियों ने हिन्दुस्तानियों में डबलरोटी से करवाया था. यह गलत है क्योंकि लद्दाख-कश्मीर में खमीर चढ़ी तंदूरी रोटियां जाने कबसे खाई जाती रही हैं. अवध में मिट्टी के तंदूर का नहीं, लोहे के तंदूर का इस्तेमाल होता है. लोहे के तंदूर में कई तरह की नफीस-नाजुक रोटियां बनाई जाती हैं जिनमें शीरमाल, ताफतान, कुलचा, गावजबान, गावदीदा आदि हैं. इनमें कुछ रोटियां बिल्कुल केक जैसी होती है जिनका आटा-मैदा दूध में गूंथा जाता और अंडा भी मिलाया जाता है. शायद यह जोड़ने की जरूरत है कि अवधी कुलचा पंजाबी कुलचे से बहुत अलग है. यह खस्ता तथा परतदार होता है. इसे निहारी के साथ परोसा जाता है.


अलग चीजों के साथ खाते भिन्न-भिन्न तरह की रोटी
अलग-अलग तरह की रोटियों को, अलग-अलग तरह के कोरमे, सालन या कबाब के साथ पेश किया जाता है. आमतौर पर शामी या सींक कबाब के साथ रूमाली रोटी खाई जाती है. रूमाली रोटी को पकाते हुए देखना बड़ा रोचक है. बनाने वाला पहले तो इसे उलटी हथेलियों पर खींच-खींच कर बड़ा आकार देता है. फिर सिर्फ पलभर के लिए पहले से तेज गर्म किए उलटे तवे पर इन्हें सेका जाता है. कुछ रोटियां ऐसी हैं जो अवध, भोपाल, हैदराबाद आदि में विशेष अवसरों पर पकाई जाती है. कुछ में हल्की मिठास होती है तो अधिकांश में बादाम-काजू की गिरी पीस कर मिला उन्हें और भी गरिष्ठ-पौष्टिक बनाया जाता है. इनमें रोगनी रोटी और बाकरखानी रोटी सबसे पहले याद आती है.


बाकरखानी की कहानी
बाकरखानी रोटी की कहानी काफी दिलचस्प है. इसके बारे में कहा जाता है कि किसी नवाब ने इसका नामकरण अपनी प्रेयसी को अमरत्व देने के लिए किया था जिसको वह कभी अपना नहीं बना पाए थे. दूसरों का मत है कि जिन नवाब साहब ने अपने बावर्ची से यह फरमाइशी रोटी ईजाद करवाई उन्हीं का नाम बकारखान था. चूंकि रोटी को अपना बताने वाले बंगाली, दिल्ली वाले और हैदराबादी सभी जगह मौजूद हैं इसलिए यह कहानी मनगढ़ंत लगती है.
विदेशी से अच्छी देसी रोटी
आजकल जो लोग नए-नए विदेशी खाने के शौकीन बन रहे हैं, वे तरह-तरह की डबल (विदेशी) रोटियों का महिमामंडन करते नहीं अघाते. आर्टिजनल कहलाने वाली ये रोटियां- सावर डो ब्रेड, मल्टी ग्रेन ब्रेड, राय ब्रेड-आम डबल रोटियों की तुलना में अपेक्षाकृत महंगी बिकती हैं. अगर हम अपनी देसी रोटियों की बात करें तो उनकी विविधता इनसे कम नहीं. कुछ समय पहले तक घर-घर में मिस्सी रोटी और बेसनी रोटी पकाई जाती थी. सेहत के लिए लोग मिले-जुले अनाज का आटा (थैलाबंद) बाजार से खरीदकर लाते और उसकी रोटियां खाना पसंद करते हैं. मिश्रित आटे को गूंथना और बेलना थोड़ा कठिन होता और इसीलिए इन्हें हाथ से बनाने के कौशल की दरकार होती.

भोपाल न्यूज़ डेस्क !!!
 

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