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यहां पढ़ें महान धनुर्धर एकलव्य की संपूर्ण कथा

religious story about eklavya

ज्योतिष न्यूज़ डेस्क: हिंदू धर्म में महाभारत की कथा कौन नहीं जानता हैं वही एकलव्य महाभारत का एक पात्र हैं वह हिरण्य धनु नामक निषाद का पुत्र था। एकलव्य को अप्रतिम लगने के साथ स्वयं सीखी गई धनुविद्या और गुरुभक्ति के लिए जाना जाता हैं पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बना। अमात्य परिषद की मंत्रणा से उसने न केवल अपने राज्य का संचालन करता है बल्कि निषाद भीलों की एक सशकत सेना और नौसेना गठित कर के अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया। तो आज हम आपको अपने इस लेख में एकलव्य की कथा के बारे में बता रहे हैं तो आइए जानते हैं। 

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महाभारत में वर्णित कथा अनुसार एकलव्य धनुविद्या सीखने के उद्देश्य से द्रोणाचार्य के आश्रम में आया किन्तु निषादपुत्र होने के कारण द्रोणाचार्य ने उसे अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। निराश होकर एकलव्य वन में चला गया। उसने द्रोणाचार्य की एक मूर्ति बनाई और उस मूर्ति को गुरु मान कर धनुविद्या का अभ्यास करने लगा। एकाग्रचित्त से साधना करते हुए अल्पकाल में ही वह धनुविद्या में अत्यंत निपुण हो गया।  

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एक दिन पाण्डव और कौरव राजकुमार गुरु द्रोण के साथ आखेट के लिए उसी वन में गए जहां एकलव्य आश्रम बना कर धनुविद्या का अभ्यास कर रहा था। राजकुमारों का कुत्ता भटक कर एकलव्य के आश्रम में जा पहुंचा। एकलव्य को देख कर वह भौंकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अत: उसनेअपने बाणों से कुत्ते का मुंह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाए थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ते के लौटने पर कौरव, पांडव और स्वयं द्रोणाचार्य यह धनुकौशल देखकर दंग रह गए और बाण चलाने वाले की खोज करते हुए एकलव्य के पास पहुंचे। उन्हें यह जानकार और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की हैं। 

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कथा अनुसार एकलव्य ने गुरुदक्षिणा के रूप में अपना अगूठा काटकर द्रोणाचार्य को दे दिया था। इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान किया हो। अंगूठा कट जाने के बाद कएलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। 

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