आखिर क्यों श्रावण में शिवत्व की ओर अग्रसर होने लगती है आत्मा? इस पौराणिक कथा में जानें सबकुछ
श्रावण मास हिन्दू सनातन परंपरा में केवल एक पंचांगिक महीना नहीं है, बल्कि यह कालचक्र की वह रहस्यमय अवधि है जब संपूर्ण सृष्टि मौन साधना में लीन हो जाती है। यह समय ब्रह्मांडीय चेतना से साक्षात्कार का होता है, जब आत्मा अपने भौतिक आवरणों को छोड़कर शिव के अनंत स्वरूप की ओर आकृष्ट होती है। यह ऋतु नहीं, ऋषियों की अनुभूति है; यह त्योहार नहीं, तप की प्रक्रिया है; यह पर्व नहीं, परम का स्पर्श है।
श्रावण मास की विशेषता केवल इसमें नहीं कि यह देवों के देव महादेव को समर्पित है, बल्कि यह काल स्वयं शिव की मौन उपस्थिति का अनुभव कराता है। ऐसा लगता है जैसे समय की गति मंद हो गई हो और काल स्वयं शिव की जटाओं में बहती गंगा की तरह ठहर गया हो। यह वह क्षण है जब सृष्टि स्वयं को विस्मृत कर सृजनकर्ता में विलीन होना चाहती है।
शिव, जिनका स्वरूप किसी एक मूर्ति या आकार में सीमित नहीं, एक अनंत अनुभव हैं। वे वह मौन हैं जो ध्यान में गूंजता है, वह ऊर्जा हैं जो तप में प्रकट होती है। और श्रावण वह महाकालीन अवसर है जब साधक अपने समस्त अस्तित्व को शिव के चरणों में अर्पित कर देता है। यह वह यात्रा है जहां आत्मा 'मैं' से 'शिवोहम' की ओर चल पड़ती है।
श्रावण के सोमवार – जिन्हें 'श्रावण सोम' कहा जाता है – किसी तिथि विशेष की तरह नहीं मनाए जाते, बल्कि ये साधना के शिखर पर पहुंचने के दिवस होते हैं। जब भक्त शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करता है, तो वह केवल जल नहीं बहाता, बल्कि अपने जीवन, अपने अहंकार, अपनी इच्छाओं का समर्पण करता है। यह समर्पण केवल भक्ति नहीं, ब्रह्म से एकाकार होने की घोषणा है। यह स्वीकारोक्ति है कि शिव और आत्मा दो नहीं, एक ही चेतना के दो प्रतिबिंब हैं।
श्रावण मास केवल अभिषेक या पूजन तक सीमित नहीं है। यह आत्म-शुद्धि का, भीतर की मलिनताओं को धो डालने का पर्व है। यह वह समय है जब भीतर छिपे विकार गंगाजल की तरह बह जाते हैं और अंत में जो शेष रह जाता है, वह है केवल शिव – शुद्ध, निर्मल, अचल।
श्रावण मास वह दर्पण है जिसमें आत्मा अपने भीतर सुप्त उस दिव्यता को देख सकती है, जिसे केवल श्रद्धा, तप और समर्पण से ही जाग्रत किया जा सकता है। यह महीना बताता है कि शिव कोई अलग सत्ता नहीं, वे हमारे भीतर ही वास करते हैं – बस हमें उनके अनुभव के लिए स्वयं के ‘मैं’ को त्यागना होता है। अंततः श्रावण वह मौन आह्वान है, जो आत्मा को शिवत्व की ओर खींचता है। यह स्मरण कराता है कि जब संसार के कोलाहल में भी मौन साधना बनी रहती है, तब ही शिव का साक्षात्कार संभव है। और तभी हम कह सकते हैं – "नाहं देहो न मे देहो, शिवोऽहम् शिवोऽहम्।"

