चित्तौड़गढ़ के विजय स्तम्भ की 9 मंज़िलों और 157 सीढ़ियों में छिपा है शौर्य, स्थापत्य और सनातन संस्कृति का अद्भुत संगम
राजस्थान के ऐतिहासिक नगर चित्तौड़गढ़ की पहचान आज भी उसकी वीरता, शौर्य और संस्कृति से होती है। इस पहचान को पत्थरों में उतारने का काम किया है उस अद्भुत स्मारक ने जिसे हम विजय स्तम्भ के नाम से जानते हैं। यह सिर्फ एक स्थापत्य चमत्कार नहीं, बल्कि राजपूत पराक्रम, स्वाभिमान और इतिहास का प्रतीक है।चित्तौड़गढ़ किले के प्रांगण में स्थित यह विशाल स्तम्भ आज भी दर्शकों को 15वीं शताब्दी के उस स्वर्णिम काल में ले जाता है, जब राजपूतों की तलवारें अन्याय के विरुद्ध गर्जना करती थीं। इस लेख में हम जानेंगे विजय स्तम्भ की 9 मंज़िलों, 157 सीढ़ियों, इसके निर्माण उद्देश्य और उससे जुड़े गौरवशाली इतिहास की पूरी कहानी।
निर्माण की पृष्ठभूमि: एक विजय की स्मृति
विजय स्तम्भ का निर्माण 1433 से 1468 ई. के बीच महाराणा कुम्भा ने करवाया था। यह स्तम्भ खासतौर पर मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी पर मिली ऐतिहासिक विजय की स्मृति में बनवाया गया था। यह न केवल एक युद्ध की जीत को दर्शाता है, बल्कि उस समय के राजपूत आत्मगौरव और धार्मिक विश्वास का भी प्रतीक है।
आकार और विशेषताएं: स्थापत्य का चमत्कार
ऊंचाई: लगभग 122 फीट (37.19 मीटर)
मंज़िलें: कुल 9 मंज़िलें, जो धीरे-धीरे संकरी होती जाती हैं।
सीढ़ियाँ: कुल 157 घुमावदार सीढ़ियाँ, जो शीर्ष तक पहुंचने का रोमांचक रास्ता बनाती हैं।
बनावट: पूरे स्तम्भ को पीले बलुआ पत्थर से बनाया गया है, जो समय बीतने के साथ और भी खूबसूरत दिखाई देता है।
भीतर से लेकर बाहर तक विजय स्तम्भ में हिंदू देवी-देवताओं, पौराणिक दृश्यों और राजपूत योद्धाओं की अद्भुत मूर्तिकला देखने को मिलती है।
शिल्प और मूर्तिकला: पत्थरों में गढ़ा गया धर्म और इतिहास
विजय स्तम्भ की दीवारों पर हिंदू धर्म के देवी-देवताओं, जैसे कि विष्णु, शिव, ब्रह्मा, गणेश और दशावतारों की उत्कीर्ण आकृतियाँ देखने को मिलती हैं। इसके अलावा महाभारत और रामायण के दृश्य भी बेहद सुंदरता से दर्शाए गए हैं।
यह केवल एक स्मारक नहीं, बल्कि एक धार्मिक ग्रंथ की तरह है जिसे पत्थरों पर उकेरा गया है। यह उस युग की सांस्कृतिक चेतना और धार्मिक आस्था को भी दर्शाता है।
उद्देश्य: एक स्तम्भ, अनेक भावनाएं
विजय स्तम्भ का उद्देश्य सिर्फ एक युद्ध जीत की खुशी को दर्शाना नहीं था, बल्कि:
यह हिंदू धर्म की गौरवगाथा को स्थापित करने के लिए बनाया गया।
राजपूतों के स्वाभिमान, आत्मबल और युद्धकौशल की पहचान को अमर करने हेतु।
जनता में धार्मिक और राष्ट्रीय चेतना जाग्रत करने हेतु।
आने वाली पीढ़ियों के लिए एक प्रेरणा स्त्रोत के रूप में।
महाराणा कुम्भा: विजेता ही नहीं, संस्कृति संरक्षक भी
महाराणा कुम्भा सिर्फ एक युद्धवीर नहीं थे, वे एक महान संस्कृति संरक्षक और कला प्रेमी भी थे। उन्होंने चित्तौड़गढ़ में कई मंदिरों, भवनों और स्मारकों का निर्माण कराया। विजय स्तम्भ को उनकी दूरदर्शिता और आत्मबल का जीवित प्रतीक माना जाता है।एक खास बात यह है कि स्तम्भ में महाराणा कुम्भा और उनके वंशजों के नाम भी खुदवाए गए हैं, जिससे यह इतिहास का जीवित दस्तावेज़ बन गया है।
दर्शनीय अनुभव: शीर्ष से दिखती है चित्तौड़ की वीरता
विजय स्तम्भ की 157 सीढ़ियाँ चढ़कर जब कोई व्यक्ति उसकी 9वीं मंज़िल पर पहुँचता है, तो वहां से पूरे चित्तौड़गढ़ किले और आसपास के मैदानों का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। यह दृश्य केवल आँखों के लिए नहीं, बल्कि आत्मा के लिए भी एक अनुभव है — जैसे आप इतिहास की गोद में खड़े हों।
संरक्षण और वर्तमान स्थिति
भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा विजय स्तम्भ को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया गया है और इसका समय-समय पर संरक्षण भी किया जाता है। हालांकि, इसकी नाजुक शिल्पकला और पत्थर समय के साथ क्षतिग्रस्त हो रहे हैं, जिनके लिए सतत देखरेख की ज़रूरत है।पर्यटन के दृष्टिकोण से भी यह स्तम्भ आज चित्तौड़गढ़ की सबसे प्रमुख और लोकप्रिय जगहों में से एक है।
निष्कर्ष: पत्थरों में गढ़ी अमरगाथा
विजय स्तम्भ केवल एक इमारत नहीं, यह राजस्थान की आत्मा, राजपूती स्वाभिमान, और भारतीय स्थापत्य और धार्मिक चेतना का सम्मिलन है। इसकी 9 मंज़िलें और 157 सीढ़ियाँ हमें सिर्फ ऊपर नहीं चढ़ातीं, बल्कि हमें उस युग की ऊंचाइयों तक ले जाती हैं — जब जीवन का उद्देश्य सिर्फ जीतना नहीं, बल्कि सम्मान और धर्म की रक्षा करना था।