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जाने इंदिरा गांधी नहर कैसे बनी बंजर राजस्थान की जीवनदायिन,जाने रेगिस्तान को हरियाली में बदलने की कहानी

 

ट्रेवल न्यूज़ डेस्क,आज हम जानेंगे राजस्थान की जीवनदायिनी इंदिरा गाँधी नहर के बारे में, जो दुनिया में सबसे लम्बी मानव निर्मित नहर है , राजस्थान की वो जीवनदायिनी नहर जिसने बंजर रेगिस्तान को हरा भरा कर दिया , राजस्थान का वो क्षेत्र जहाँ मीलों बस बंजर जमीन और रेत थी उसे हरे भरे खेत खलिहान में बदलने वाली इंदिरा गाँधी नहर के बारे में। इंदिरा गाँधी नहर कब बनी,  इतने दुर्गम मरुस्थल और जानलेवा गर्मी  में ये कैसे बन पायी , इसे किसने  बनाया , 949  किलोमीटर लम्बे इसके सफर की दास्तान , राजस्थान के काया कल्प की दास्तान , इस नहर के आस पास बसे शहरों की कहानी।  तो आईये जानते हैं राजस्थान की जीवनदायिनी इंदिरा गाँधी नहर की कहानी राजस्थान में स्थित थार दुनिया का 17वाँ सबसे बड़ा रेगिस्तान और दुनिया का 9वाँ सबसे बड़ा गर्म मरुस्थल है। जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो मरुस्थल भी दोनों देशो के बीच बंट गया, जिसमे पाकिस्तान के हिस्से में इस मरुस्थल का 15% हिस्सा आया, वहीँ भारत को इसका 85 प्रतिशत हिस्सा मिला। विशाल थार के रेगिस्तान जहां मीलों लम्बी दूरी तक रेतीले धोरों के सिवाय कुछ नजर नहीं आता, ये राजस्थान का वो हिस्सा था जहां का लगभग हिस्सा बंजर और सूखा रहता था। यहां लोगों को पीने का पानी लेन के लिए कई मील दूर पैदल चलकर जाना पड़ता था. राजस्थान में यहां पानी तलाश करना एक जंग लड़ने जैसा ही था. 

<a href=https://youtube.com/embed/41v9MArD1fo?autoplay=1&mute=1><img src=https://img.youtube.com/vi/41v9MArD1fo/hqdefault.jpg alt=""><span><div class="youtube_play"></div></span></a>" style="border: 0px; overflow: hidden"" title="Indira Gandhi Nahar | इंदिरा गाँधी नहर कब बनी, कैसे बनी, कुल लम्बाई | Indira Gandhi Canal | गंगनहर" width="1096">

सन 1899 में उत्तर भारत में भयंकर अकाल पड़ा, राजस्थान बुरी तरह से इस भयंकर अकाल की चपेट में आया। जिसके चलते राजस्थान के जयपुर, जोधपुर, नागौर, चुरू और बीकानेर इलाके भयंकर तरीके से सूखे की जद में आये थे. ये अकाल विक्रम संवत 1956 में होने के कारण इसे स्थानीय भाषा में 'छप्पनिया अकाल' भी कहा जाता है. अंग्रेजों के गजेटियर में ये अकाल 'द ग्रेट इंडियन फैमीन 1899' के नाम से दर्ज हो गया था. अकाल की तबाही से सबक लेते हुए राजा, महाराज व प्रशाशक भविष्य में आने वाले ऐसे अकालों से निपटने के उपायों की योजना बनाने में जुट गए। बीकानेर के महाराजा गंगा सिंह अकाल से निपटने की योजना में सबसे आगे रहे और उन्होंने राजस्थान में नहर के द्वारा पानी लाने की योजना पर विचार करना शुरू किया। और ये जिम्मा कंवर सेन को मिला। महाराजा चाहते थे कि पंजाब से बातचीत करके सतलुज नदी से एक नहर निकालकर राजस्थान के बीकानेर तक पहुंचाय जा सके, जिससे बीकानेर की प्रजा को पानी की समस्या से राहत मिले। इस नहर को गंग नहर के नाम से जाना गया और इसी नहर के चलते राजस्थान को अपना अन्न का कटोरा कहलाने वाला शहर गंगानगर मिला। 

गंग नहर से बीकानेर में तो पानी की समस्या से राहत मिल गई थी लेकिन महाराजा गंगा सिंह और कंवर सेन पूरे राजस्थान को पानी की समस्या से छुटकारा दिलाना चाहते थे। इसी सपने को साकार करने के लिए महाराज गंगा सिंह जी ने पंजाब से पानी राजस्थान तक लाने के लिए एक नहर का ड्राफ्ट तैयार किया और उस समय की अंग्रेजी सरकार को पेश किया। लेकिन लेकिन साल 1947 में कैंसर के कारण महाराज गंगा सिंह का निधन हो गया जिसके बाद इनके बेटे साधुल सिंह बीकानेर के नए राजा बने। पर साल 1947 में देश आजाद होने के साथ ही राजशाही भी खत्म हो गई, जिसके चलते ये ड्राफ्ट ठंडे बस्ते में चला गया। इसके बाद कंवर सेन ने साल 1948 में एक बार फिर से इस नहर की योजना को बीस हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सरकार के समक्ष रखा, जिसे लम्बे विचार विमर्श के पश्चात मंजूरी मिली और 31 मार्च 1958 को केन्द्रीय गृह मंत्री गोविन्द वल्लभ पंत ने इसकी आधारशिला रख इसे राजस्थान नहर का नाम दिया। इसके साथ ही पंजाब भी एक अच्छे पडोसी की तरह राजस्थान को पानी देने के लिए तैयार हो गया था। इस नहर के पानी के लिए पंजाब के फिरजपुर के निकट सतलज व ब्यास नदी के संगम पर हरिके बैराज बनाने का निर्णय लिया गया। लेकिन मंजूरी और पानी के इंतजाम के बाद भी इस नहर का निर्माण आसान काम नहीं था।  

थार के रेगिस्तान में सैकड़ों किलोमीटर की लम्बाई में रेतीले धोरों की मिट्‌टी को हटा कर उन्हें समतल कर नहर बनाना अपने आप में बेहद मुश्किल कार्य रहा। रेगिस्तान की भयानक गर्मी और आंधियों ने इंजिनियरों और मजदूरों के लिए यहां काम करना लगभग नामुनकिन कर दिया था, इसके अलावा काफी मजदूर व इंजिनियर तो भयानक गर्मी और सर्दी में भयानक ठंड से दम तोड़ चुके थे। उस वक्त ना तो आधुनिक मशीनें थी और ना ही पर्याप्त संसाधन थे. लेकिन कंवर सिंह ने नहर के ड्राफ्ट तैयार करते समय यहां के वातावारण को भी ध्यान में रखा था, तभी तो उस से निपटने के लिए कंवर सिंह और उनकी टीम जमीन खोदने के लिए रेगिस्तान के जहाज कहे जाने वाले ऊंट का इस्तेमाल किया। ऊंटों से जमीन खोदने का काम शुरु किया गया तो सबसे मेहनती जानवर कहलाये जाने वाले गधे ने भी माल ढोने का काम बखूबी निभाया. ऊंट और गधों ने मिलकर युद्धस्तर पर काम शुरु कर मिट्टी की खुदाई और ढुलाई के नामुमकिन काम को मुमकिन कर दिखाया. ये जानवर नहीं होते ये नहर बन पाना नामुमकिन था. इस नहर को बनाने में असंख्यों जानवरों ने जान गवाई लेकिन काम को रोका नहीं गया.