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जन्मदिन विशेषांक : किस तरह रमाबाई रानडे ने महिलाओं के लिए खोले कई दरवाजे?

 

महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई भारत में 19वीं सदी से ही शुरू हो गई थी और रमावाई रानडे वो महिला थी जो कि महिलाओं के अधिकार के लिए लडी थी यानी रमाबाई रानडे महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाली पहली आंदोलनकारी थीं । बता दें कि, साल 1862 में जन्मी रानडे ने एक राजनीति आंदोलनकारी के साथ ही, समाजसेवी और शिक्षाविद के तौर पर भी पहचान बनाई ।

जानकारी के अनुसार, मुंबई में 19वीं सदी में हिंदू महिला सोशल क्लब और लिटरेरी क्लब की शुरूआत करते हुए रमाबाई ने महिलाओं को भाषाएं सिखाने, सामान्य ज्ञान और जागरूकता देने के साथ ही सिलाई बुनाई और दस्तकारी के काम सिखाए और इतना ही नहीं, सार्वजनिक तौर पर महिलाओं को बोलने की कला भी रमाबाई ने ही सिखाई । महिलाओं के बेहतर जीवन के लिए अपना पूरा जीवन लगा देने वाली रमाबाई ने 1908 में बंबई और 1909 में पूना में सेवा सदन की स्थापना की । साल 1904 में जब भारत में पहली बार महिला कॉन्फ्रेंस हुई थी, तब रमाबाई ही उसकी प्रमुख थीं । पहली भारत महिला परिषद की स्थापना का श्रेय रखने वाली रमाबाई ने पुणे में लड़कियों के लिए स्कूल की स्थापना करवाई थी ।

इसके अलावा रमाबाई ने फिजी और केन्या में भारतीय मज़ूदरों के अधिकारों को लेकर भी संघर्ष किया । उनके जन्म शताब्दी वर्ष 1962 में एक डाक टिकट उनके सम्मान में जारी किया गया था । महिलाओं के प्रति पुरुषों और महिलाओं का नज़रिया बदलने और महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाने वाली रमाबाई को खुद कैसे प्रेरणा मिली? मगर आप सोच रहे होंगे कि आखिर ​रमाबाई में इतनी हिम्मत और यह नज़रिया कहां से आया? तो चलिए आपको बता दें कि, उनकी हिम्मत और उनका ऐसा नजरिया उनको उनके पति से ही मिला था । जी हां, महादेव गोविंद रानडे यानी जस्टिस रानडे की पत्नी थीं रमाबाई । अपने पति से 21 साल छोटी रमाबाई को जस्टिस रानडे ने पढ़ाने लिखाने की ठान ली और लड़कियों को स्कूल न भेजने और छुआछूत के दौर में अपने खानदान और आसपास की तमाम महिलाओं की नाराज़गी झेलते हुए अपने पति के इस मिशन को पूरा करने में रमाबाई को जो ताकत मिली, वह भी उनके पति की ही दी हुई थी ।

जस्टिस रानडे की कोशिशों से ही सिर्फ मराठी बोल पाने वाली रमाबाई ने अंग्रेज़ी और बांग्ला में महारत हासिल कर ली । शायद आपको पता नहीं होगा मगर सार्वजनिक कार्यक्रम के लिए पहला भाषण रमाबाई को उनके पति ने लिखकर दिया था, मगर जल्द ही वह न सिर्फ कुशल वक्ता बन गई बल्कि दूसरी कमज़ोर महिलाओं तक को उन्होंने हक के लिए बोलना सिखाया । जस्टिस रानडे के विचारों से पूरी तरह प्रभावित रमाबाई ने 1901 में पति के देहांत के बाद से उनके दिखाए रास्ते पर कदम आगे बढाया ।